।। बंद बैग में ।।
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घर से दफ़्तर,
दफ़्तर से घर,
पल-पल बँटती रही ज़िन्दग़ी।
जल्दी-जल्दी हाथ चलाती
साथ घड़ी के मैं चलती हूँ।
केवल सीमित होंठ दबाकर
कहने भर को मैं हँसती हूँ।
बस, रिक्शा,
लोकल ट्रेनों में,
पग-पग तपती रही ज़िन्दग़ी ।
कागज़-पत्तर के ढेरों में
मैं थककर सपने बुनती हूँ ।
कानों की खिड़कियाँ भेड़कर
साहिब की झिड़की सुनती हूँ।
बंद बैग में
सपने रखकर,
दिन भर खटती रही ज़िन्दग़ी ।
ज़िम्मेदारी घर-बाहर की
भूल चुकी हूँ अपना होना।
कटे पेड़-सी गिर पड़ती हूँ
तकियों बीच हुसक कर रोना।
रही सदा
सबकी होकर पर
ख़ुद से हटती रही ज़िंदगी ।।
डॉ.भावना तिवारी