टँगे-टँगे खूँटी पर आख़िर,
कहाँ तलक़ हम
सत्य बाँचते ।
न्यायालय की चौखट
सच से दूर बड़ी थी।
कानूनों की सूची
धन के पास खड़ी थी।
सगे-सगे वादी थे
लचकर,
मुंसिफ़ कब तक
तथ्य जाँचते ।
आजीवन कठिनाई,
दो रोटी का रोना।
आदर्शों को रहे फाँकते
चाटा नोना।
भूखे-पेट पंक्ति से
हटकर,
कहाँ तलक़ हम
पथ्य माँगते।
तुला-दण्ड था गूँगा
मूरत अंधी-बहरी ।
अभिजातों के हाथों
बहुधा बिकी कचहरी।
ठगे-ठगे रीढ़ तक
झुककर,
कहाँ तलक हम
कथ्य हाँकते ।