वह जितना तेज भाग रही थी, दिल की धड़कन उससे तेज थी। धुक ..., धुक ..., धक ..., धक ...। उसी दिल में क्रोध की ज्वाला भी धधक रही थी। जैसे फूस की झोपड़ी वैशाख की दोपहरी में अग्नि को समर्पित हो गई हो। धुँआ का कतरा तक नहीं। आग ...। सिर्फ आग। 'धू ..., धू ..., धू ...।'
शायद कुछ भी नहीं बचेगा। कुछ भी नहीं। सर्वस्व स्वाहा! 'पतिया रे! तेरा सर्वस्व स्वाहा! तेरा करम माटी का ढेर।' दहकते ह्रदय से चीत्कार-सा उठ रहा था। पैरों की गति के साथ हवा की गति भी तेज हो गई। 'सांय ..., सांय ..., सांय ...।'
'सब सपना अकारथ ...। व्यर्थ का मोह ...। पानी का बुलबुला ...। सपनों की झोपड़ी को एक चिंगारी ने खाक कर दिया। हर तरफ राख ही राख था। कुछ भी शेष नहीं रहा।' पैर पगडंडी पर उभरे टीलेनुमा ठोकर से टक्कर खा गए। वह सगमगाई। देह झनझना उठा। पर कलाबाजी खाती हुई संभल गई। फिर भागने लगी। 'कहाँ जाएगी पतिया?'
'कहीं भी ...।'
'फिर भी ...!' अंतर्मन संशय मिटाना चाहता था।
'उस करमजले के घर से दूर। बहुत दूर। जहाँ उसकी परछाईं भी न दिखे ...।'
'पतिया, तू बड़ी कठोर है रे!'
'मैं ..., कठोर! कठोर मैं हूँ!' वह अकचका कर खड़ी हो गई। ठीक चौराहे के बीचोबीच। हैरत! वह चौराहे के बीच में क्यों खड़ी हुई? बड़ा विचित्र चौराहा था वह। जिस राह से चल कर वह आई थी वह ससुराल की थी, और सामने जो राह थी वह सीधे नैहर की ओर जाती थी। तीसरी राह जंगल की ओर जाती थी और चौथी रेलवे स्टेशन की ओर। मन उलझ-सा गया, "अब बोल री पतिया! कहाँ जाएगी तू ...?"
वह जितनी तेज निर्णय चाहती थी उतनी ही उलझती जा रही थी। चारों तरफ राहें बिछी थी, लेकिन मन दुविधा में डोल रहा था। 'कहाँ जाएगी? नैहर, जंगल, स्टेशन या वापस वहीं जहाँ से चली थी।' वह बीच चौराहे पर ठुकमुक खड़ी थी। कदम उठ ही नहीं रहे थे। अंतरतम से कोई पूछ रहा था, 'बोल न री, पतिया!'
'कहाँ? वापस यथार्थ संसार में या अतीत के स्वप्निल धुंधलके में या निःसार माया से मुक्ति की ओर या फिर सर्वथा नए आह्लादकारी अज्ञात लोक में नया बसेरा ढूँढने। बोल न री, पतिया! यह चौराहा तुम्हारे भविष्य का मील स्तंभ है।'
पतिया चौराहे पर गुमशुम खड़ी थी। जैसे वर्षों से वहीं खड़ी हो। और लाखों बार सोच कर भी निर्णय नहीं कर पा रही हो। दिमाग के चौराहे पर चारो तरफ से विचारों का रेला उमड़ता चला आ रहा था। चारो राहों के निजी सौंदर्य व आकर्षण उसे मोहित कर रहे थे, परंतु चारो की कुरूपता-कड़वाहट उसके पैरों में बेड़ियां-सी पड़ी थी। 'पतिया!! इसी चौराहे पर जीवन भर चुपचाप खड़ी रहेगी क्या ...?'
वह टकटकी लगा कर उस राह को ताक रही थी, जिससे आई थी। नंगे धूसर खेतों के बीच लेटी पगडंडी दूर तक नजर आ रही थी, जो आगे जाकर खेतों के साथ हवा के रंग में समा गई थी। और दूर गाँव के बगीचे की धुंधली-सी हरियाली, जिसे भूरे बादलों की टुकड़ी ने घेर रखा था। उसी बगीचे के पार सड़क के किनारे पुराने बरगद की छाँव में पालथी मारे 'सूप' बिन रहा होगा बुधन।
बुधन काम में जब मशगूल होता था तब जीभ बाहर निकल आती थी, और उससे लार टपकता रहता था। पतिया को बड़ी घिन आती थी। 'छिह! बहुत घिनाहा हैं। जी को मुँह में समेटो जी!' पतिया ने नफरत से मुँह फेर लिया, पीछे की पगडंडी से आगे की ओर। वह पगडंडी आगे की ओर भाग रही थी। या शायद उधर से ही चौराहे की ओर आ रही थी। जो हो, वह पगडंडी कुछ ही दूर तक दृश्यमान थी, फिर हवा ...। वही तो नैहर की पगडंडी थी।
औरत के लिए पगडंडी नैहर से शुरू होकर ससुराल की ओर जाती होगी। परंतु पतिया की निगाहें उस पगडंडी के उदगम तक पहुँच ही नहीं पा रही थी। नैहर के गाँव को भी वृक्षों, झाड़ों, हवाओं व बादलों ने ओझल कर रखा था। उस चौराहे से न नैहर दिख रहा था, न ससुराल!
एक छोड़ कर आई थी, दूसरा वर्षों पहले छूट चुका था। 'कहाँ जाओगी, पतिया? पगडंडी ससुराल से नैहर की ओर जाती है क्या? बोल पतिया! बोल तो सही।'
वह उद्विग्न हो उठी। मन में सवालों-शंकाओं के बगुले पंख फड़फड़ाने लगे। 'सामने की पगडंडी पर चल कर कभी खोज पाऊँगी बाबुल का वही घर, जहाँ अबोधपन और तरुणाई के खुशनुमा कालखंड को छोड़ आई थी!
वह परेशान होकर तीसरी पगडंडी की ओर निहारने लगी। आँखों की पुतलियाँ स्थिर थी। दूर, बहुत दूर बादलों के साथ पर्वताकृति एकाकार हो रही थी। यही पगडंडी उस निर्जन एकांत की ओर ले जाती है शायद। उधर ही तो जादुई काले पहाड़ हैं। बाबा अक्सर बताते थे, 'वहाँ कोई नहीं जा पाया है, पतिया! कोई नहीं। अगम को कोई साध ले तो अगम किस बात की।'
'क्यों, बाबा? उधर राह नहीं है क्या? दादी तो कहती है कि सात पहाड़ के बाद नया लोक है। हर हारे हुए आदमी वहीं जाकर विश्राम करते हैं।'
'धत्त पगली ...! सच बताऊँ, जो भी उधर गया है वह लौट कर आया ही नहीं। फिर बताएगा कौन? बोलो ...?'
पतिया विक्षुब्ध हो उठी, 'मैं कभी नहीं जाऊंगी पहाड़ की ओर। हारूंगी ही नहीं।' उसकी निगाहें काले पहाड़ों की धुँधली आकृतियों से साक्षात्कार कर लौट आई। रहस्यमय चीजों से पतिया को डर-सा लगता था। वह पलट कर चौथी पगडंडी की ओर टकटकी लगा कर देखने लगी। 'मँजी हुई है। बहुतों गुजरे होंगे। वही तो स्टेशन की ओर जाती है। वहाँ से शहर। बहुत कुछ है उस जादुई नगरी में। स्वर्ग सदृश्य सर्वसुख।'
'भोला का बाप भी भाग कर गया था। और उसका बंद नसीब खुल गया। चम्पी को महीने-महीने नोट की गड्डी मिलती है। यहाँ तो सूप-दौरी बनाते-बेचते व सुअर चराते साग-सतुआ के लिए बेहाल रहता था। नसीब का खेल है। शहर जाने का ही नतीजा था कि पिंडारी का 'माना' अफसर होकर भी भोला से नातेदारी जोड़ा। अब तो भोला का बाप धन्ना सेठ बन गया। चार लगुआ-भगुआ आगे-पीछे डोलते रहते हैं!
पतिया की दमित इच्छाएँ कल्पनाओं-खावों में ढलने लगीं। तीन साल पहले गाँव की तीन लड़कियां भाग कर शहर चली गई थी। तीनों बाल विधवाएं थी। गाँव-घर में नित्य दुतत्कारें सुनती रहती। राह चलना दूभर हो गया। घर में उठते-बैठते ताने मिलते थे। तंग होकर भोर के धुंधलके में तीनों सहेलियां भाग गई। खूब हल्ला मचा। ढूँढने की खूब कोशिशें हुई। पर सब बेकार गया। पता नहीं किस बिल में समा गई थी। सब हैरत में थे कि गुम हुई तो तीनों की तीनों ...।
साल भर बाद खबर मिली उसकी। 'रेजिन' का काम करते-करते तीनों की गृहस्थी भी बस गई थी। सबकी अपनी-अपनी 'खोली' हो गई। जीवन की तमाम हसरतें पूरी कर ली। अब तो तीनों के माँ-बाप शान से 'कुटमैती' करने जाने लगे। समृद्धि ने परिवार-समाज के नजरिए को बदल दिया था। संपन्नता बहुत सारी खामियों को बड़ी खूबसूरती से ढँक लेती है।
उसके पैर हरकत में आते उससे पहले ही नैहर की पगडंडी के आकर्षण ने खींच लिया। वह क्षितिज में विलीन धूसर पगडंडी के छोर पर बसे गाँव में पहुँच गई। लेकिन वहाँ अवशेष था ही क्या? बूढ़े बाप सूप के कोरों पर टाँके गाँठते-गाँठते चल बसे थे। चार आदमी चुपचाप गंगा में प्रवाहित कर आए। गाँव में हलचल तक नहीं हुई। बूढ़ी माँ बच गई, वह भी बेकाम। उठ कर पानी भी नहीं पी पाती थी। हाथ काँपते रहते थे, 'झुमनी' गाय की तरह आठो पहर। बच्चे तक जी नहीं लगाते थे।
'भौजाइयों की अपनी रंगीन दुनियां थीं। सूप का कारोबार बिसरी कहानी-सी हो गई। भाई लोग शहरी हो गए। पुराने जूतों के मरम्मत-बिक्री में खासे मुनाफे थे। महीने के आखिर होते-होते हजारों रुपए भेज देते थे। भौजाइयों की रोज दीवाली होती थी। दिन भर श्रृंगार-पटार या मटरगस्ती। बूढ़ी की टोह लेने वाली कोई नहीं।
खूब 'हुलस' कर दुर्गा पूजा में गई थी। बड़ी वाली देह की उतरन साड़ी थमा दी, ऊपर से झोली भर उलाहना। मंझली तो बोली तक नहीं। पता नहीं किस जन्म की ईर्ष्या सधा रही थी! छोटी अच्छी है, पर 'उड़ाक' है। साफ मुकर गई कि इस महीने तो धन्नो के बाबू ने एक 'रुपल्ली' भी नहीं भेजा। मन तो आकाश है, लेकिन बादल रहे तभी तो वर्षा होगी। पतिया मन मसोस कर रह गई। गठरी में अठन्नी तक नहीं थी। बच्चे तरसते रह गए। वह कुनवे भर को कोसती रह गईं। आने से पहले बहुत मनुहार की थी बुधन का, "एक दिन के खातिर ही सही, चलो तो ...।"
"तू जा। मुझे भिखमंगों के घर नहीं जाना। कंगला हूँ, अपने घर-दुआर में। चोर-उचक्का तो नहीं हूँ न। भीख तो नहीं मांगता।"
"नाहक हलकान हैं। कोई तो इल्जाम नहीं ठोका। हर कोई अपने घर का राजा होता है।"
"पतिया, घबराती काहे है! अबकी अतरी के मेला में ठाठ देखना। सूप-दौरी की दुकान सजा दूँगा। पैसा तो बरसेगा, पतिया! ढिबरी भर जाएगी। सब सोच लिया। कलिया और झगरू को साथ करूँगा। तू भी रहना।"
पतिया चिढ़ गई, "बुधन का दिमाग भी बुधन! अतरी के मेला में लोग मिठाई खाने, तमाशा देखने जाते हैं या सूप-दौरी खरीदने! सुअरों के साथ दौड़ते-भागते दिमाग भी 'सुअरा' गया है! कितना भी नहला दो, नाली देखते ही लोटेगा ही। खूब चारा डालो, मैला देख दौड़ेगा ...!"
"हरामजादी जाती है या ...," बुधन अधबने सूप को परे धकेल हंसिया उठा लिया। क्रोध से उसका शरीर काँप रहा था। पतिया चुपचाप खिसक गई थी।
और नैहर से लौटी तो बुधन को सराहते हुए। उसके बाद फिर कभी नहीं गई थी पीहर के गाँव। कभी नहीं। और आज ...। चौराहे पर खड़ी पतिया को कृषकाय हथेलियाँ संकेत दे रही थी। "थू ...! नहीं आऊँगा रे करमजला भाई! कितना मारा था बुधन को छोटकू ने। बाप रे! साला होकर बहनोई पर लाठी उठा लिया!" पतिया दयार्द्र हो गई, "दारू पीकर थोड़ा-सा बहक गया था, और क्या! कौन भौजाई से ठठ्ठा नहीं करता है! छोटकी ही तो दिन-रात 'रभसती' रहती थी। अपनी लुगाई का दोष कौन देखता है! कमजोर था बुधन। कितनी बेरहमी से पीटा था बेचारे को? सात दिन तक हल्दी का सेक लगाती रहीं।"
लेकिन आज बुधन ने भी रंग दिखा दिया। कोई करम छोड़ा क्या? बीच सड़क पर घसीट कर ...! ऊपर से कह दिया, "जाओ, जहाँ जाना है। हाय रे, शरीफ आदमी!"
आहत मन धुंधुआती काली पहाड़ी की ओर जाती पगडंडी की ओर पलटा। अब बचा ही क्या है संसार में? निःसारता का दिग्दर्शन तो हो गया। जिस प्रीत के लिए वह सहोदर भाईयों को दुत्तकार आई, भौजाइयों से तकरार कर बैठी, बीमार माँ को भूल आई, और जब उसी ने टूटे जंग लगे बक्शे-सा बाहर फेंक दिया तो फिर ...। अब जीवन का मोह किसके लिए? प्राण हेतु देह तप करे और प्राण देह को धकिया दे तो देह क्या करे?
देह और प्राण का एका होने पर संसार सुखमय होता है। बुधन तेज हँसिये की धार पर खपच्चियाँ तैयार करता था, पतिया उसे रंगों में डूबा-डूबा कर रंग-बिरंगी सूप बीनती थी। सब बोलते थे कि पतिया के हाथ में कला बसती है। छठ के दिनों में बरगद की छाँव में ग्राहकों की भीड़ जुटती थीं। आदेश-दर-आदेश ...। अग्रिम ...। हो-हुज्जत ...। जल्दबाजी ...। अपनत्व भरे बोल ...। सबसे अच्छा सूप किसका- बुधन डोम का। 'भई, दो रुपए अधिक भी ले ले तो परवाह नहीं। उसी से लेना है। पतिया के हाथ में 'जस' है। सूप जल्दी टूटती ही नहीं है। बंधन ऐसा कि फौलादी जोड़ बेकार।'
गाँव भर में चर्चा होती थी, 'बुधन की तकदीर खुल गई।' पहली कमाई में ही भोला के बाबू के हाथ से रेडियो मंगवा ली थी पतिया ने। बुधन खुश था। खुशी का खजाना मिल गया था उसे। कितना सुहाता था उसकी काँख से लटकता हुआ रेडियो! और रेडियो के प्रति उसकी अशकी परवान चढ़ने लगी। घर में, आँगन में, बरगद के नीचे, बाँसबाड़ी में और सुअर चराते वक्त भी रेडियो साथ नहीं छोड़ता था वह। रेडियो के स्पीकर से निकलते गाने बुधन में उमंग भर देता था। बिनाई के समय बाँस के झुड़मुटों से टंगी रेडियो की आवाजें दूर-दूर तक सुनाई पड़ती थी। 'चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजड़े वाली मुनिया ...!'
परायों के मुँह से रेडियो की तारीफें सुन-सुन कर पतिया फूले न समाती थी। लोग-बाग बहाने बना कर वहाँ जमा रहते थे। बुधन डोमो का अघोषित नेता बन गया। 'वाह रे पतिया! तू बड़ी दिमागदार है रे!'
पतिया खुशी से मुँह आँचल में छुपा लेती, "मेरी बात मानो तो स्वर्ग का ...!"
"रहूँगा, पतिया! तेरी बात पर ही रहूँगा। तू तो भवानी है, पतिया!"
वही बुधन इतना बदल गया! अतरी के मेले में बाँस की फतुरिया बेचने पर बात बनी थी। उसके लिए पूँजी चाहिए थी। पतिया ने वर्षों से रखी माटी की 'टोइयाँ' जमीन पर पटक कर फोड़ दी। 'झन्न ..., झन्नाक ..., टन ...।'
सिक्कों की ढेर! बुधन अचानक खामोश हो गया। विस्मय से फैली आँखें सिकुड़ गई। शंकाओं के बुलबुलों ने दिमाग को बेचैन कर दिया, "कहाँ से लाई इतने पैसे, पतिया! कहीं बड़ी हवेली ...।"
पतिया विकल हो उठी, "क्या हुआ जी! सिक्के देखते ही चेहरे पर मुर्दनी बरसने लगी है!"
"पतिया, एक बात बोलूं।"
"बोलो। पूछ कर तो कभी नहीं बोला। फिर आज ...।"
"रोज बड़ी हवेली क्यों जाती थी?"
"काम करने।"
"झूठ मत बोलो।"
"कैसी झूठ?"
"पतिया, जा, इस घर से निकल जा," बुधन का स्वर अचानक तेज हो गई, "तू तो फतुरिया है रे! फतुरिया! बाँस की नहीं, हाड़-माँस की ...।"
पतिया तमतमा कर उठ खड़ी हुई। बुधन ने धक्का मार दिया। सिक्कों की ढेर पैरों की ठोकर से छितरा गया। बुधन का आक्रोश हवा में तैरने लगा। 'पतिया! जा, इस घर से निकल जा। तू फतुरिया ...। बाँस की नहीं ...।'
वह पछाड़ खाकर चौखट पर गिरी और सिसकने लगी। बुधन का उफनता क्रोध बहुत खौफनाक हो गया। उसने धड़ाधड़ 4-5 लात पतिया की पीठ पर दे मारा, "फतुरिया का बास घर में नहीं होता है। चली जा रे ...।"
गुड्डे की तरह चुप रहने वाला बुधन के भीतर देशी दारू खुराफात मचा रही थी। उसने पतिया का बाल पकड़ कर खींचना शुरू किया, "फतुरिया की जगह घर में नहीं। चली जा बाजार ..., हाट ..., मेला ..., कहीं भी ...।"
पतिया का मन खट्टा हो गया। वह नफरत व वितृष्णा से तमतमा उठी। बुधन से बाल छुड़ा कर बाहर आ गई। जैसे बिना डोर की पतंग हवा में लहरा रही हो। वह भयभीत साँप की तरह बेतहाशा पगडंडियों पर भागती जा रही थी। दिमाग में बुधन का कटु वचन हाहाकार मचा रहा था। "तू फतुरिया है रे!"
चौराहे पर खड़ी पतिया के दिमाग में विभत्स ध्वनियाँ शोर मचाने लगी। "फतुरिया का घर नहीं होता। चली जा बाजार ..., हाट ..., मेला ...।"
उसके पैर शहर की ओर जानेवाली पगडंडी की ओर भागने लगी। "थप ..., थप ..., थप ...।"
नफरत के तीखे कतरों ने उसके मन को पूरी तरह लहू-लुहान कर दिया था। बुधन की दुत्तकारें खौफनाक पिशाच की तरह उसकी गर्दन दबोचने के लिए दौड़ रही थी। वह बेतहाशा भाग रही थी। पगडंडियां पीछे छूटती जा रही थी।
रेलवे के प्लेटफॉर्म पर जाकर वह स्थिर हुई। दिमाग की नसों में अब भी सनसनाहट हो रही थी। 'कितना चाहा था बुधन को! अपना सबकुछ स्वाहा कर दी उस भूत घर को सजाने में। सबकुछ। सब व्यर्थ गया। सारा 'करम' गोबर का चोत! जिसके लिए फूल बोया उसने ही काँटों का बाड़ लगा दिया!
ढहता हुआ घर, अन्न के दाने नहीं, पहनने के कपड़े नहीं, बर्तन-भाड़े तक नहीं। गंदगी का अंबार। रहने-सहने के तरीके नहीं। शून्य से शुरू हुआ था गृहस्थी का सफर। तब बुधन 'बुधुआ' था। गाँव का सबसे बेबकुफ़ लड़का। पतिया के आते ही सबकुछ बदल-संवर गया था। डोम टोली का बुधुआ 'बुधन' बन गया। पतिया की मेहनत ने गोबर में गुलाब उगाया था। पर आज ...।
कर्तव्य का हर लेखा पल में मिट गया। उसी को घर बदर कर दिया जिससे घर 'घर' था। सोचा भी नहीं कि आँख नहीं रहने से चेहरे का क्या होता है? 'कठकरेज'! पलट कर भी नहीं देखा। शक को परखने की कोशिश तो कर लिया होता। फैसला सुना दिया। ब्रह्म वाक्य। वापस नहीं होगा।
पतिया के मन में भावों-विचारों की आँधी चल रही थी। नफरत से सराबोर मन प्लेटफॉर्म पर बढ़ती अजनबियों की भीड़ में स्वयं को अकेला महसूस करने लगा। एक ट्रेन रुकी तो लोगों की हुजूम उतर आई। रोते रहने से सूज गई आँखें अनायास भीड़ में बुधन की तलाश करने लगी। निर्दयी के साथ यह कैसा सम्मोहन! "ए पतिया, कहाँ भाग रही है रे? शहर जाएगी। फतुरिया बनने। मेरी जोरू फतुरिया बनेगी ...! नाच करेगी ...!"
हाथ में डंडा पकड़े नशे से डगमगाता हुआ बुधन सामने आ खड़ा हुआ, "चल, उठ।"
पतिया तमक उठी, "सड़क पर उतारे हो तो तमाशा भी करने दो। पतिया को भूल जा। मर गई तुम्हारी पतिया।"
"अपनी जोरू को भूल जाऊँ! हरामजादी!" बुधन ने झपट्टा मारा। वह छिटक गई। बुधन औंधे मुँह प्लेटफॉर्म पर गिरा। पतिया ठुकमुक़ा गई। तमाशाइयों की भीड़ लग गई। आक्रोश में उफनता बुधन उठा और डंडा चला दिया। पतिया चीख उठी, "तू मारने वाला होता कौन है?"
"तेरा खून पी जाऊँगा," बुधन डगमगा रहा था, "फतुरिया बनना है तो माथे का कलंक पोछ।"
अकेली औरत पर अत्याचार होते देख भीड़ आक्रोशित हो उठी। बुधन ने दुबारा डंडा उठाया तो एक युवक ने पीछे से उसका हाथ पकड़ लिया। आवेशित भीड़ उस पर बरसने लगी। चेहरा ढँक कर सिसक रही पतिया अचानक बौखला उठी। पास पड़ा पत्थर उठा कर बुधन को पीट रहा आदमी की पीठ पर दे मारी। "ढम्म ...।"
बुधन के विरुद्ध उठे हाथ उठे रह गए। स्तब्ध भीड़ हैरत से पतिया को देखने लगी।
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■ प्रमोद 'रंजना'