"सबका साथ सबका विकास" इसी नारे पर सारा देश चल रहा है। देश भर सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है। हमारा देश कृषि प्रधान देश है और देश की अधिकांश आबादी भी कृषि से उत्पन्न खाद्यान्नों पर ही निर्भर है। हमारे देश में कृषि उत्पादन में होने वाली कमी भी महंगाई का कारण है। सरकार के द्वारा सड़क, रेल और वायु परिवहन को विस्तारित किए जाने के कारण से कृषि भूमि का अधिग्रहण सरकार के द्वारा किया जाता है। लाखों एकड़ कृषि भूमि अधिग्रण करके सरकार किसानों को मुआवजा दे देती है। मुआवजे से कृषि भूमि तो नहीं बढ़ती है। बल्कि कृषि भूमि का ह्रास होता जा रहा है। वहीं शहरी क्षेत्रों और गांवों का विस्तार आपस मिल जाने के कारण से जंगल और गांव भी लगातार खत्म हो रहे हैं। यदि किसी भी कृषि भूमि के आसपास कोई भी राजमार्ग निकलता या रेल लाइन निकलती या विमानतल का निर्माण होता है तो सरकार के द्वारा अधिग्रहण की भूमि के अलावा बहुत बड़ी मात्रा में अन्य कृषि भूमि भी दुष्प्रभावित होती है। क्योंकि इनके आसपास व्यापारिक, व्यवसायिक, औद्योगिक और पर्यटन की गतिविधियां प्रारंभ हो जाती है।
इसी चक्कर में फार्म हाउस,/कालोनियां आदि का विस्तार होता है ये देखने सुनने में तो बहुत लुभावना लगाता है। इस विकास से प्रकृति खत्म हो रही इस पर विराम लगाने के लिए कृषि को प्रोत्साहित करना जरूरी है। साथ इससे पशु पालन भी खत्म हो रहा है। मवेशियों को चरने और विचरण करने की जगह नहीं बची कई पोखर और तालाबों पर वैध अवैध आवास बन चुके हैं। हमारी सरकार किसानों को ऋण माफी दे रही उनके खातों में दो चार मुट्ठी रुपया भी स्थानांतरित कर रही है। कृषि भूमि और वनों के क्षरण को नहीं रोक रही है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो फल, सब्जी, अनाज और तेल घी आने वाले समय में इतना ज्यादा मंहगा हो जायेगा कि हम भले ही संपन्न बने रहें हमें भूखों मरने की नौबत आ सकती है। अत्याधुनिक सुख सुविधाएं और धन की संपन्नता भी कुछ नहीं कर पाएगी क्योंकि हम लगातर भारत को विदेशों जैसा चकाचौंध वाला बनाने के चक्कर में और राजनीतिक लोकप्रियता के चक्कर में कृषि भूमि, नदी तालाब,पोखर, वन और सारी प्रकृति को खत्म करते जा रहे हैं। हम खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम कर रहे हैं। इससे आज यदि "सबका साथ सबका विकास" हो रहा है तो भविष्य में "सबका साथ सबका विनाश" भी हम ही कर रहे हैं। वर्तमान पीढ़ी खुद अपनी समझ बूझ से जनसंख्या को नियंत्रित करने का काम कर रही है एक या अधिकतम दो से ज्यादा संताने कोई भी नहीं चाहता है। बढ़ती आबादी के लिए इतना प्रयास कारगर नहीं है इसके लिए सामाजिक जागरूकता और सरकार के सकारत्मक प्रयासों की जरूरत है। हम भारत को भारत ही रहने दें इसे अमेरिका या सिंगापुर बनाने के चक्कर में हम बहुत कुछ खो चुके हैं। अभी भी यदि हम प्रयास करें तो बहुत कुछ बच सकता है। इसमें समग्र समाज की जागरूकता जरुरी है। हमारा देश पहले अंग्रेजों का गुलाम था आज राजनीती का गुलाम है। राजनिति से गुलामी से आजादी का मसीहा हम सभी को बनना होगा।अन्यथा हथेली पर सरसों उगाने की नौबत आ सकती है। जल, जमीन और जंगलों के क्षरण को रोकना जरूरी है, अन्यथा सृष्टि के विनाश को समय से पहले हम खुद आमंत्रित कर रहे है। इसका दोषी भगवान नहीं आज का इंसान है।
अरुण कुमार चौबे इंदौर मध्यप्रदेश