किताबें कुछ कहना चाहती हैं.
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं.
लिखा था सफ़दर हाशमी ने. और सच ही तो लिखा था. न जाने कितने लंबे समय से किताबें हमारी दोस्त हैं. उनके रंग-रूप बदले, हाथ से लिखी जाने वाली किताबों की जगह छापे खाने से निकली किताबों ने ले ली, लेकिन उनसे हमारा रिश्ता नहीं बदला. बल्कि और मज़बूत ही हुआ. किताबों के बड़े पैमाने के उत्पादन ने उन्हें ख़ास से आम तक पहुंचा दिया. हमने किताबें खरीद कर पढ़ीं, मांग कर पढ़ीं, चुरा कर पढ़ीं. अपने घर में उन्हें संजोया और अपनी थोड़ी-सी किताबों से मन नहीं भरा तो बहुत सारी किताबों के लिए पुस्तकालय बना दिए. किताबों ने हमें वैचारिक समृद्धि दी और साथ ही हमारी पहचान को ऊंचाई भी दी. आपके घर में, आपके हाथ में किताब का होना आपके सुरुचि संपन्न और सुसंकृत होने का परिचायक बना.
लेकिन भय है कि अब यह सब ख़त्म हो जाने वाला है.
किताबों के प्रेमी तो बहुत ही चिंतित व्यथित हैं.
इस डिजिटल युग में कागज़ की किताबों की जगह ई-बुक्स लेने लगी हैं. किताबों के रसिक चिंतित हैं कि क्या अब वे कागज़ के खुरदरेपन को अपनी उंगलियों की पोरों से महसूस करने से महरूम हो जायेंगे? क्या अब नई छपी किताब की स्याही की गंध उनकी नासिका को अनिर्वचनीय सुख प्रदान नहीं करेगी? क्या पुस्तकालय बीते ज़माने की बात हो जायेंगे? क्या सब कुछ खत्म हो जायेगा? और खत्म न भी हो तो क्या इतना बदल जायेगा कि उसे पहचान पाना ही दुश्वार हो जायेगा?
जब से हमारी ज़िन्दगी में कम्प्यूटर आया है उसने बहुत कुछ बदल दिया है. कम्प्यूटर और इंटरनेट इन दोनों ने मिलकर हमारी ज़िन्दगी को सिरे से ही बदल डाला है. अब वे प्रिंटिंग प्रेस बीते ज़माने की बात हो गए हैं जिनमें कोई कम्पोज़ीटर आंखों पर मोटा-सा चश्मा लगाये एक-एक अक्षर(वह भी उलटे क्रम में) एक लोहे की ट्रे में जमाया करता था, फिर उन जमे हुए अक्षरों को एक धागे से बांध कर प्रूफ उठाया जाता था.... अब वह सारा काम आपका कम्प्यूटर कर देता है. किताब का निर्माण बहुत आसान हो गया है. न केवल निर्माण, उसका संग्रहण भी. जैसे-जैसे कम्प्यूटर की मेमोरी में विस्तार हुआ है, यह भी मुमकिन हो गया है कि आपके छोटे-से कम्प्यूटर में 1000 - 2000 किताबें पड़ी रहें. न सिर्फ आपके कम्प्यूटर में पड़ी रहें, निस्सीम में कहीं लहराती रहें और आप जब चाहें, इण्टरनेट और कम्प्यूटर की मदद से उन्हें पढ़ लें! इंटरनेट के माध्यम से आपके लिए यह भी संभव हो गया है कि आप उनका आदान-प्रदान कर सकें. किसी दूसरे देश में बैठे आपके मित्र के पास कोई किताब हो तो उसे आप तक पहुंचने में पलक झपकने जितना भी वक़्त नहीं लगेगा. और वह भी बिना किसी खास खर्चे के. यह है डिजिटल युग का करिश्मा! और हम सब इसके गवाह हैं, भोक्ता हैं.
डिजिटल तकनीक के आ जाने और क्रमश: अधिक सुलभ हो जाने से किताबों का स्वरूप बदल कर लगभग अदृश्य-सा हो गया है. यानि किताब होकर भी नहीं होती है. यही तो चमत्कार है डिजिटल तकनीक का. और इस चमत्कार ने किताबों का संग्रहण कई रूपों में मुमकिन बनाया है. अभी हमने आपके कम्प्यूटर पर किताब के संग्रहण की चर्चा की. कम्प्यूटर का ही एक विस्तार है पेन ड्राइव. आप अपने कम्प्यूटर में संग्रहित किताब को अपनी पेन ड्राइव पर स्थानांतरित या कॉपी करके कहीं भी ले जा सकते हैं. इन दिनों पेन ड्राइव की मेमोरी में जिस तरह विस्तार हो रहा है उसे देखते हुए अब 24 खण्डों वाले एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका को आप लगभग एक फ़ाउण्टेन पेन के आकार वाली पेन ड्राइव में समेट सकने में सक्षम हो गए हैं. और इतना झंझट भी क्यों? उसी किताब या उन्हीं किताबों को आप अपने मोबाइल फोन में भी तो संजो सकते हैं, यथा सुविधा पढ़ लेने के लिए. अगर आप चाहें तो एक पतली-सी डीवीडी में बहुत आसानी से 2000-3000 किताबें संग्रहित कर सकते हैं.
और बात यहीं तक सीमित नहीं रही है. अब तो यह भी ज़रूरी नहीं रह गया है कि किताबें, या कोई भी और सामग्री (जैसे संगीत) कम्प्यूटर, पेन ड्राइव या सी-डी/डीवीडी में भौतिक रूप से आपके हाथों में ही हो. अब तो आप अपने संग्रह को अनंत आकाश में भी संजो कर रख सकते हैं और जब आपका मन चाहे, उसका उपयोग कर सकते हैं. गूगल ड्राइव या ऐसी अनेक चीज़ों के कारण यह मुमकिन हो गया है कि एक ख़ास आकार तक के संग्रह को निशुल्क और उससे ज़्यादा आकार के संग्रह को कुछ शुल्क चुका कर कहीं अन्यत्र संग्रहित कर लिया जाए और इस तरह अपने साधनों की स्मृति को अन्य उपयोग के लिए बचा रखा जाए.
स्वाभाविक ही है कि ऐसा हो जाने से स्थान की बचत तो हो ही रही है, किताबों को (भले ही उनका रूप बदल गया है) एक से दूसरी जगह ले जाना सुगम हो गया है. दुनिया की बहुत बड़ी लाइब्रेरी की तमाम किताबें आपके घर की एक छोटी-सी अलमारी में समा सकती हैं. किताबों के इस रूप में आ जाने से स्थान के साथ-साथ कागज़ की भी बचत हो रही है जो पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण बात है. आज सारी दुनिया पेडों के कटने को लेकर जिस भयावह भविष्य से आक्रांत है, उसे देखते हुए ई बुक्स का बढ़ता प्रचलन बड़ी राहत देने वाला क़दम है.
और जैसे इतना ही काफ़ी न हो, अगर ज़रूरत हो तो इन किताबों की प्रतियां भी आसानी से बनाई जा सकती है. जो किताब आपके पास है, वह आपके मित्र या मित्रों को भी सुगमता से सुलभ हो सकती है. डिजिटल सामग्री की प्रतिलिपि बनाना और उसका संप्रेषण करना कितना आसान है, यह विस्तार से बताने की आवश्यकता अब नहीं रह गई है. हालांकि जब मैं यह बात कर रहा हूं तो मेरे सामने कॉपी राइट, लेखक की रॉयल्टी और प्रकाशक के मुनाफ़े का प्रश्न भी उपस्थित है. ध्यान इन समस्याओं की तरफ भी दिया जा रहा है. बहुत सारी डिजिटल सामग्री इस तरह लॉक कर दी जाती है कि उसका अनधिकृत उपयोग नहीं किया जा सकता. लेकिन जब हम पुस्तक को पाठक की दृष्टि से देखते हैं तो अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा उसकी सुलभता का ही होता है.
इस डिजिटल सामग्री को, इस ई-बुक को पढने के लिए अतिरिक्त प्रकाश की भी आवश्यकता नहीं होती. जिस कम्प्यूटर या ई बुक रीडर पर आप इसे पढते हैं उसका अपना प्रकाश ही पर्याप्त होता है. कागज़ वाली किताब के पन्ने मुड़-तुड़ जाते हैं, फ़ट भी जाते हैं, ई बुक चिर युवा बनी रहती है.
एक बहुत महत्वपूर्ण बात यह कि हर डिजिटल सामग्री की तरह, ई बुक में से भी अगर आप कुछ खास तलाशना चाहें तो यह काम बहुत आसान होता है. मसलन, अगर आप यह जानना चाहें कि हरिवंश राय बच्चन की कविताओं की जो ई बुक आपके पास है उसमें ‘जो बीत गई’ से शुरू होने वाली कविता कहां है, तो कागज़ वाली किताब में इसे तलाश करने में जितनी देर लगेगी, उसकी तुलना में ई बुक में यह खोज लगभग तुरंत ही हो जायेगी.
इधर अनेक कंपनियों ने इन ई बुक्स को पढने के लिए विविध प्रकार के ई बुक रीडर बाज़ार में उतार दिए हैं. ये ई बुक रीडर सामान्यत: पॉकेट बुक आकार के फोटो फ्रेम नुमा उपकरण होते हैं और डाउनलोड करके अथवा उपकरण में पहले से संग्रहित पुस्तक को इनके स्क्रीन पर पढ़ा जा सकता है. सोनी और अमेज़ॉन के इस तरह के उपकरण, जिन्हें क्रमश: रीडर और किंडल के नाम से जाना जाता है, बहुत लोकप्रिय हैं. इनके बाद विश्वप्रसिद्ध एप्पल कंपनी ने जो नया उपकरण आइ-पैड जारी किया है, उसमें भी इस तरह के उपयोग की और अधिक संभावनाएं हैं. कई कंपनियां छोटे, कम सुविधाओं वाले हैंड हेल्ड कम्प्यूटर बना रही हैं जिन पर ये किताबें पढी जा सकती हैं. इनका आकार पतली-सी पॉकेट बुक जितना होता है. पाम ऐसी ही एक विख्यात कंपनी है. अमेज़ॉन के किंडल पर न केवल पुस्तकें, बल्कि दैनिक अखबार भी पढे जा सकते हैं. क्या ज़रूरत है कि आप पूरा अखबार खरीदें और उसे उलटे-पुलटें. आप हेड लाइंस देखिये और फिर जिस समाचार में आपकी रुचि हो सीधे उस तक पहुंच जाइये. सामान्यत: इन उपकरणों पर पढने के लिए आपको किताब खरीदनी पड़ती है, यानि उसे पैसा चुका कर डाउनलोड करना होता है, लेकिन यह मूल्य उसी किताब के मुद्रित संस्करण से बहुत कम होता है. इस तरह आप कम राशि में अधिक पुस्तकें पा और पढ़ सकते हैं. तकनीक के विस्तार और प्रसार के कारण अब इन ई बुक्स को आपके मोबाइल हैंडसेट पर भी पढ़ा जा सकना सम्भव हो गया है. किसी भी ठीक-ठाक से मोबाइल में ई बुक रीडर होता ही है जिस पर आप किसी किताब को डाउनलोड करके पढ़ सकते हैं. और जैसे इतना ही पर्याप्त न हो, किसी किताब के वर्ड या पीडीएफ प्रारूप को तो आप बिना किसी अन्य बाहरी एप्लिकेशन के साधारण से साधारण मोबाइल हैंडसेट तक पर पढ़ सकते हैं.
और जहां तक मूल्य का प्रश्न है, यह बात भी उल्लेखनीय है कि दुनिया भर में लाखों पुस्तकें तो निशुल्क डाउनलोड करने के लिए सुलभ हैं. स्वाभाविक ही है कि इनमें से ज़्यादातर अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं में हैं, लेकिन अब भारतीय भाषाओं में भी इसकी शुरुआत हो चुकी है और हिंदी की अनेक कालजयी कृतियां निशुल्क डाउनलोड करके पढी या संग्रहित की जा सकती हैं. इनमें से ज़्यादातर किताबें तो ऐसी हैं जिनके कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है. बहुत सारे लेखक अपनी नई किताबें भी स्वेच्छा से ई बुक्स के रूप में सुलभ करा रहे हैं. आखिर लेखक को पाठक भी तो चाहिये. कहना अनावश्यक है कि इन किताबों की संख्या में दिन दोगुनी रात चौगुनी वृद्धि हो रही है. ऐसा करने में लेखक के हितों की परवाह भी स्वत: ही हो जाती है. यह माना जाता है कि अगर किसी लेखक की कोई एक या कुछ किताबें निशुल्क ई बुक के रूप में सुलभ कराई जाती हैं तो पाठक उस लेखक की कुछ अन्य किताबें खरीद कर भी पढने को प्रेरित होता है. इस तरह लेखक (और प्रकाशक के भी) लाभ की कोई क्षति नहीं होती. पाठक का तो लाभ है ही.
किताब के स्वरूप में हो रहे इस परिवर्तन से किताब के पारंपरिक अनुरागी क्षुब्ध हैं. जैसा मैंने पहले भी कहा, एक तो उन्हें लगता है कि इस तरह, डिजिटल रूप से पढने में वह सुख मिल ही नहीं सकता जो किसी किताब को हाथ में लेकर पढने से मिलता है, और इसलिए अगर उन्हें विकल्प दिया भी जाए तो वे डिजिटल ई बुक को कभी नहीं पढेंगे. मुझे लगता है यह भावनात्मक मुद्दा है और कुछ हद तक वैयक्तिक रुचि का प्रश्न भी है. किताब से हमारा रिश्ता बहुत पुराना है और जो परंपरावादी हैं वे अगर इस रिश्ते में किसी भी तरह का बदलाव देखने को तैयार नहीं हैं तो उनकी इस भावना का भी पूरा आदर किया जाना चाहिए. लेकिन साथ ही यह भी समझा जाना चाहिये, दुनिया में बहुत सारी बातें हमारी इच्छा के बिना भी होती हैं. ई बुक को आना है तो वह आकर रहेगी. आप उसे अपनाते हैं या नहीं, यह आपकी इच्छा है. भोजपत्र-ताड़पत्र और हस्तलिखित पुस्तकों से अगर हम आज की सुमुद्रित किताबों तक आए हैं और यह यात्रा यहीं तो नहीं थम सकती. इसे तो आगे चलना ही है.
दूसरी महत्वपूर्ण चिंता यह है कि कहीं इन ई बुक्स के प्रचलन से मुद्रित पुस्तकों का अस्तित्व ही नष्ट न हो जाए. ज़ाहिर है कि यह चिंता भी पुस्तकानुरागियों की ही है. जब भी जीवन में कुछ नया आता है, पुराने को लेकर इस तरह की चिंता करने की सुदीर्घ परंपरा है. मेरा विचार तो यह है कि ई बुक्स किताब का विकल्प नहीं, उसका विस्तार है. ऐसा कभी भी नहीं हो सकता, कम से कम निकट भविष्य में तो, कि कागज़ पर छपी किताबें पूरी तरह विलुप्त हो जाएं. वे भी रहेंगी, और ई बुक्स भी फलेंगी-फूलेंगी. यानि शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के नज़ारे होंगे. और इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये. बल्कि ये एक दूसरे की पूरक ही रहेंगी. किसी कृति को ई बुक के रूप में पढने के बाद आप उसी कृति को मुद्रित पुस्तक के रूप में संजो कर रखने को व्याकुल हो उठेंगे, या किसी मुद्रित पुस्तक को पढकर उसी लेखक की एकदम हाल ही में प्रकाशित पुस्तक को अपने स्थानीय पुस्तक विक्रेता के पास न पाकर ई बुक के रूप में पढकर संतुष्ट हो लेंगे.
इस सारे मुद्दे को इस रूप में भी देखा जाना चाहिए कि हमारा लगाव किससे से है? शब्द, विचार और सृजन से, या उसके भौतिक रूप यानि कागज़ पर सजी हुई स्याही से? कहना अनावश्यक है कि महत्व विचार और सृजन का है. ऐसे में ई बुक्स से चिंतित होने की कोई आवश्यकता मुझे तो नहीं लगती.
आप क्या सोचते हैं?
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