पेट में ऐसी आग लगी है,
आंखों की नींद भाग गई है।
ये भोर की पौ फटती नहीं
ये रात भी अब कटती नहीं।
समय की गति रुक गई है,
आंत हमारी सुख गई है।
कोई तो पानी का प्याला दे दे,
रूखा सूखा ही निवाला दे दे।
मेहनत करता मैं भी,
सम्मान से जिता मैं भी।
पर क्या करूं,
रोटी के लिए मेहनत चाहिए,
और मेहनत के लिए रोटी।
- रंजन मिश्रा