अचानक आकाशीय बिजली की भीषण गड़गड़ाहट, साथ ही जोर की बरसात और इधर धरती की बिजली गायब, यानि घोर अंधेरा।
आजकल घर में आपात काल के लिऐ भी मोमबत्ती शायद ही उपलब्ध होती है, इसलिए अंधेरे में बैठने के अतिरिक्त कोई रास्ता भी तो नहीं बचता, किसी प्रकार रमेश अंधेरे में ही बालकोनी में पहुंच, वहां बैठ लाइट आने की इंतजार करने लगा। ऐसी घनघोर बारिश में जरुर कोई बड़ा फाल्ट हुआ होगा तभी तो काफी देर से लाइट आई ही नही, इन्तजार करने के अलावा किया भी क्या जा सकता है? ऐसे बैठे बैठे ही रमेश लगभग१५ वर्ष पूर्व घटित घटना की याद में सिमट गया।
राजस्थान के आदिवासी इलाके कोटड़ा के जंगली क्षेत्र में एक आदि वासी परिवार में उस शाम को याद कर रमेश का मन मस्तिष्क झंकृत हो उठा।
एक मित्र के साथ रमेश ने आदिवासी क्षेत्र भ्रमण करने और उनके जीवन को देखने का कार्यक्रम बनाया, कैसे जीवन जीते हैं, कैसे और क्या खाते हैं, क्या करते हैं, ये सब जिज्ञासा लिए रमेश कोटड़ा पहुंच ही गए। किसी प्रकार एक आदिवासी परिवार के यहां शाम के भोजन का जुगाड किया, तभी तो पता चलता वो कैसे रहते और क्या खाते हैं? उस परिवार के मुखिया का नाम था शिव,उसकी पत्नी ललिया और करीब 21-22वर्षीय बहन झुमरी, बस उस परिवार में ये तीन ही प्राणी थे . बाद में पता चला एक बेटा भी है, पर वो उदयपुर में मजदूरी का काम करता है।
शिव को पहले ही सूचना भिजवाई जा चुकी थी कि दो व्यक्तियों का रात्रि भोजन उसके यहां है। सो रमेश अपने मित्र के साथ शिव के यहां शाम ७बजे पहुंच गया। वहां जाकर पता लगा कि आदिवासी परंपरा के अनुसार उनके यहां भोजन तब बनना प्रारंभ होता है, जब अथिति घर आ जाए, भले ही उसे पहले ही सूचना हो। लिहाजा रमेश के पहुंचने के बाद भोजन बनाने की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई।
भोजन बनाया ही जा रहा था कि घनघोर वर्षा प्रारम्भ हो गई।उस टिन टप्पर वाले घर में कई स्थानो से पानी टपकने लगा, झुमरी भाग भाग कर उन स्थानों पर बर्तन रख उस विपदा औऱ विवशता को ढ़कने का प्रयत्न कर रही थी।रमेश और उसका मित्र केवल ढांढस बधाने कुछ कर भी नही सकते थे।सच पूछा जाये तो वो वहां आने के लिये अपराध बोध से ग्रस्त थे।किसी प्रकार भोजन तैयार हुआ, यह तो समझ नही आया कि क्या बना है, रोटी भी हलक से नीचे नही उतर रही थी, रमेश ने तो चुपके से अपनी बची रोटी अपनी जेब में ही रख ली।
वनवासियों का जीवन देख मन अवसाद से भर गया।बरसात की रात उनके लिये रोमांच, मस्ती, रोमांस लेकर नही आती, लेकर आती है एक अस्तित्व का संकट।फिरभी अथिति का सम्मान वो नही भूलते।
द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अगूंठा गुरुदक्षिणा में मांग लेने के बाद से शेष समाज से बनाई दूरी कैसे दूर हो, ये एक अहम प्रश्न सामने आता ही है।रमेश कोई समाज सुधारक तो था नही वो तो कोटड़ा वनवासी परिवार मे जिज्ञासा वश गया था, पर वो विचलित था।
अचानक उसने एक निर्णय लिया और एक बार फिर उसी परिवार में अकेला ही पहुँचा और शिव से बोला भाई,आज मैं तुम्हारे यहाँ भोजन करने नही आया हूँ, लेकिन कुछ मांगने आया हूँ, शिव असमंजस में था, शायद सोच रहा था कि उसके पास क्या है जो ये बाबू मांगने आ गये?इतने में ही उसकी पत्नी ललिया भी आ गई।
शिव आज मैं तुमसे झुमरी का हाथ मांगने आया हूँ,क्या मुझे स्वीकार करोगे?तभी एक बार फिर आकाश में बिजली चमकी और जोरदार वर्षा शुरु हो गई।
अचकचा कर शिव ने रमेश को अपनी टिन टप्पर वाली झोपड़ी में अंदर खींच लिया।वर्षा हो रही थी और झुमरी फिर टपकते पानी वाले स्थानो पर बर्तन रख रही थी, पर आज उसका सहयोग रमेश भी कर रहा था।
बालेश्वर गुप्ता
पुणे(महाराष्ट्र)
मौलिक