मापनी - १२१२२ 12122
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समझ नहीं है यही सही है l
करें मिलावट जहाँ विदेशी -
कहाँ सुखी वे , जगत वही है ll
गजल लिखूँ मैं कहाँ जहाँ में ,
सखे सिखाते विधा यही है ll
महा मिलन मन विधा सुसंगम ,
सुरभि सुधा ऱस सकल मही है ll
नहीं लिखे हम कभी कलम से ,
कहाँ सुभाषित धरा रही है ll
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राजकिशोर मिश्र 'राज' प्रतापगढ़ी