मापनी - १२१२२ 12122=============================समझ नहीं है यही सही है lबिना महिष गौ कहाँ दही है llकरें मिलावट जहाँ विदेशी -कहाँ सुखी वे , जगत वही है llगजल लिखूँ मैं कहाँ जहाँ में ,सखे सिखाते विधा यही है llमहा मिलन मन विधा सुसंगम ,सुरभि सुधा ऱस सकल मही है llनहीं लिखे हम कभी कलम से ,कहाँ सुभाषित धरा
मन मे कुछ और पहली हीनज़र मे दिया उसने धोखा।हम भी नकम थे उसीके गली मे,रख दियापान का खोखा।जब भीनिकलती वो अपनी गली से,नजरेलड़ाके वो, नज़रेचुराती वो।कभीइतराकर कभी मुस्कराकर,हमे वोजलाती, हमे वोजलाती।जाती कहाँथी? हमे न बताती,हम भी उसीकी यादों मे जलने लगे...पहली हीनज़र मे दिया