माँजिस्म से रूह तक ,एक-एक रुआँ होती है,वो तो माँ है सारी, दुनियाँ से जुदा होती है, उसकी प्यारी सी, थपक आँख सुला देतीहै,माँ तो पलकों से, भर- भर के दुआ देती है ये जो दौलत है, बेखोफ़ जिगर, शौहरत, हैमाँ के आँचल की, हल्की सी हवा होतीहै I चाहे दुनियाँ ही, रुके, सांस भले थम जाये,माँ की मम
मापनी - १२१२२ 12122=============================समझ नहीं है यही सही है lबिना महिष गौ कहाँ दही है llकरें मिलावट जहाँ विदेशी -कहाँ सुखी वे , जगत वही है llगजल लिखूँ मैं कहाँ जहाँ में ,सखे सिखाते विधा यही है llमहा मिलन मन विधा सुसंगम ,सुरभि सुधा ऱस सकल मही है llनहीं लिखे हम कभी कलम से ,कहाँ सुभाषित धरा