माँ
जिस्म से रूह तक ,एक-एक रुआँ होती है,
वो तो माँ है सारी, दुनियाँ से जुदा होती है,
उसकी प्यारी सी, थपक आँख सुला देती
है,
माँ तो पलकों से, भर- भर के दुआ देती है
ये जो दौलत है, बेखोफ़ जिगर, शौहरत, है
माँ के आँचल की, हल्की सी हवा होती
है I
चाहे दुनियाँ ही, रुके, सांस भले थम जाये,
माँ की ममता बहते जल सी दुआ होती हैI
मंदिरों के ये दिए, –फूल, व देहरी के चावल,
हर मुश्किल को उड़ाती सी धुआं होती हैI
नाम अपना भी सिकन्दर,हो या जहाँ जाने,
माँ के आशीष बिना जीत कहाँ होती है,I
मदन पाण्डेय “ शिखर”