न्याय की आशा
हर ओर हताशा
प्रक्रिया है ढीली
डगर पथरीली
भटकते हैं दर-दर
नहीं मिलता न्याय
बांधे आंखों पर पट्टी
खड़ी न्याय की देवी
बाहुबल,धनबल का
द्वारपाल है न्याय
सूनी आंखें देखें सपने
बीतेंगे सदियां टूटे सपने
न्याय है स्वप्न इस व्यवस्था में
अन्याय छुपा न्याय के
मुखौटों में
न्याय हार जाता है
अन्याय जीत जाता है
धूल चाटती फाइलों में
घर की चारदीवारी में
सरकारी दफ्तरों में
बाजारों, बस्तियों में
घुट जाता है दम न्याय का
फैला है जाल सर्वत्र अन्याय का
कहां है न्याय,कैसा है
बीत जाती सदियां
चलती रहती है जिंदगी
बढ़ती रहती है तारीख
आदमी गुजर जाता है
न्याय नहीं मिल पाता है।
©✍ अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक