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*दुःख: संयोग वियोग संयोग*

28 दिसम्बर 2021

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🙏दुख, संयोग वियोग संयोग 🙏


     🙏 मैं समझती थी/समझता था कि प्रेम में स्त्रियाँ ही दुख भोगती है, व्याकुल होती हैं, क्रंदन करती या वियोग में व्यथित होती हैं ,पर सत्य तब जाना जब उसे देखा।

 🙏 न जाने क्या था उसमें , मेरी सखी बेला उससे लिपटी रहती थी।वो अचानक दुनिया से चली गई । उससे बिछड़ कर वह पात विहीन ठूँठ -सा पेड़ बन कर रह गया। सेव- से रक्तिम गाल मलिन हो पिचक गए,अधरों पर पपड़ियाँ आ गईं। बिना संवारी बढ़ी दाढी, रूखी वीरान नेत्र अनगिनत काली रातों में जागने की प्रमाण दे रही थी।

🙏जीवन का सूरज डूब रहा था और उसकी हर प्रातः एकाकी थी। बंजर छाती पर जाने कौन -सा हिमसागर हिममय गया था। हाथों का रूखा और कर्कश स्पर्श तब अनुभव हुआ जब मैंने उससे हाथ मिलाया। मैंने उसकी ओर देखा पर उसकी सीलन भरी हृदय की भीतियों से उसकी आँखों तक कोई सन्देश नहीं पहुँचा।

 🙏मुझे लगा उसके मन के वीरान मरुस्थल में  चारों ओर असंख्य शूल उगे है और हरियाली को देखने को विकल मन कितना लाचार है। आँखों की हिम बनी झील के नीचे ठहरा पानी दिखाई तो नही  दिया , लेकीन मुख से निकली अग्नि की लपट अवश्य दिखाई दी। मुझे उस समय अनुभव हुआ प्रेम में स्त्रियां ही नहीं मरती ,पुरुष भी मर जाते हैं।

  🙏मैं कुछ देर उसके पास बैठी रही । वह मेरी मित्र का पति था। वह शैय्या पर लेट कर स्वर करते पंखे को गोल -गोल घूमते देखता रहा। उसका एक आँसू नहीं गिरा मगर मुझे लगा उसका तकिया भीगा सा हो गया है। उसकी आँखों के जलस्त्रोत सूखे थे मगर प्रेम के अवशेष आँसू उसने जतन से संजो रक्खे थे।

 🙏अचानक मुझे अनुभव हुआ वो वहीं उसके पास थी और मुझे वापस जाने के लिए कह रही थी। मैं चुपचाप उठी और बाहर निकल गई। अपने घर की सड़क पर मुझे लगा उसके घर का एकाकीपन मेरे साथ चला आया है। घबराते हुए मैने जल्दी से द्वार खोला ,अंदर भी एक और शून्यता मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। मैंने

तुरन्त ही दूरदर्शन कार्यक्रम  चला दिया। अब लगा मेरे साथ दो -चार लोग हैं। मैं सहजता से शैय्या पर लेट गई। ध्यान वहीं लगा था ,सोच रही थी इस स्थिति यानी प्रिय के वियोग में क्या कोई पुरुष भी ऐसा वीतरागी हो सकता है ? हाँ ,अब अनुभव हुआ ,पुरुष भी स्त्री की तरह कोमल हृदय का होता है, दुख में वह भी घबराता और रोता है, उसका मन भी चीत्कार करता है। वियोग वह भी सहन नहीं कर पाता और यही सब सोचते मेरी कब आँख लग गई ,पता ही नहीं चला। अगली प्रातः द्वार की घण्टी बजी, द्वार पर मेरे पति खड़े थे जो अभी टूर से लौटे थे , थकान से उनका चेहरा कुम्हला गया था । मैं उनसे लिपट गई। आज उन्हें मैंने नए दृष्टिकोण से देखा था।

🙏डॉ त्रिभुवन नाथ श्रीवास्तव, प्राचार्य, विवेकानंद योग प्राकृतिक चिकित्सा महाविद्यालय एवम् चिकित्सालय, बाजोर, सीकर, राजस्थान

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