🌷 🌷। । राजा के ३६ गुण । ।❤️ ❤️
चरेद् धर्मानकटुको मुञ्चेत् स्नेहं न चास्तिकः ।
अनृशंसश्चरेदर्थं चरेत् काममनुद्धतः ॥
(अब मैं क्रमश: उन गुणोंका वर्णन करता हूँ) १- धर्मका आचरण करे, किंतु कटुता न आने । २ आस्तिक रहते हुए दूसरोंके साथ प्रेमका बर्ताव न छोड़े। ३- क्रूरताका आश्रय लिये बिना अर्थ-संग्रह करे । ४ मर्यादाका अतिक्रमण न करते हुए ही विषयोंको भोगे ।
प्रियं ब्रूयादकृपणः शूरः स्यादविकत्थनः ।
दाता नापात्रवर्षी स्यात् प्रगल्भः स्यादनिष्ठुरः ॥
५- दीनता न लाते हुए ही प्रिय भाषण करे । ६ शूरवीर बने, किंतु बढ़-बढ़कर बातें न बनावे। ७- दान दे, परंतु अपात्रको नहीं। ८-साहसी हो, किंतु निष्ठुर न हो ॥
संदधीत न चानार्यैर्विगृह्णीयान्न बन्धुभिः ।
नाभक्तं चारयेच्चारं कुर्यात् कार्यमपीडया ।।
९- दुष्टोंके साथ मेल न करे। १०-बन्धुओंके साथ और परलोकमें सुख का लड़ाई-झगड़ा न ठाने। ११- जो राजभक्त न हो, १२-किसीको कष्ट पहुचाय ही अपना कार्य करे
अर्थ ब्रूयान्न चासत्सु गुणान् ब्रूयान्न चात्मनः ।
आदद्यान्न च साधुभ्यो नासत्पुरुषमाश्रयेत् ।।
१३- दुष्टोंसे अपना अभीष्ट कार्य न कहे। १४. | अपने गुणोंका स्वयं ही वर्णन न करे। १५ श्रेष्ठ पुरुषों से उनका धन न छीने । १६- नीच पुरुषों का आश्रय न लें ।
नापरीक्ष्य नयेद् दण्डं न च मन्त्रं प्रकाशयेत् ।
विसृजेन्न च लुब्धेभ्यो विश्वसेन्नापकारिषु ॥
१७-अपराधकी अच्छी तरह जाँच पड़ताल किये बिना ही किसीको दण्ड न दे। १८-गुप्त मन्त्रणाको प्रकट न करे। १९-लोभियोंको धन न दे। २०-जिन्होंने कभी अपकार किया हो, उनपर विश्वास न करे ॥
अनीर्षुर्गुप्तदार: स्याच्चोक्षः स्यादघृणी नृपः ।
स्त्रियः सेवेत नात्यर्थं मृष्टं भुञ्जीत नाहितम् ॥
२१- ईर्ष्यारहित होकर अपनी स्त्री की रक्षा करे। २२-राजा शुद्ध रहे; किंतु किसीसे घृणा न करे। २३-स्त्रियोंका अधिक सेवन न करे। २४-शुद्ध और स्वादिष्ट भोजन करे, परंतु अहितकर भोजन न करे ।
अस्तब्धः पूजयेन्मान्यान् गुरून् सेवेदमायया ।
अर्चेद् देवानदम्भेन श्रियमिच्छेदकुत्सिताम् ॥
२५-उद्दण्डता छोड़कर विनीतभावसे माननीय पुरुषोंका आदर-सत्कार करे। २६-निष्कपटभावसे गुरु जनोंकी सेवा करे। २७-दम्भहीन होकर देवताओंकी पूजा करे। २८-अनिन्दित उपायसे धन-सम्पत्ति पानेकी इच्छा करे ॥
सेवेत प्रणयं हित्वा दक्षः स्यान्न त्वकालवित्।
सान्त्वयेन्न च मोक्षाय अनुगृह्णन्न चाक्षिपेत् ॥
२९-हठ छोड़कर प्रीतिका पालन करे। ३० - कार्य-कुशल हो, किंतु अवसरके ज्ञानसे शून्य न हो।
३१-केवल पिण्ड छुड़ानेके लिये किसीको सान्त्वना या भरोसा न दे। ३२- किसीपर कृपा करते समय आक्षेप न करे ॥
प्रहरेन्न त्वविज्ञाय हत्वा शत्रून् न शोचयेत् ।
क्रोधं कुर्यान्न चाकस्मान्मृदुः स्यान्नापकारिषु ॥
३३- बिना जाने किसीपर प्रहार न करे । ३४- शत्रुओंको मारकर शोक न करे । ३५-अकस्मात् किसीपर क्रोध न करे तथा ३६-कोमल हो, परंतु अपकार करनेवालोंके लिये नहीं ॥
तात्पर्य यह है की आधुनिक लोकतांत्रिक परिवेश में राजा की योग्यता एवं दायित्व की समीक्षा जनता को ही करनी चाहिए । हम सामान्यतया वैवाहिक जीवन की कुशलता के लिए गुण मिलान करते हैं किन्तु राजा जो राष्ट्र का स्वामी होता है जिसका गुण अवगुण देखे विना जातीवाद - परिवारवाद - धर्मवाद के व्यामोह में अपने राजा का चुनाव कर लेते हैं जो राष्ट्र की अखंडता एवं सम्प्रभुता के लिए उपयुक्त सिद्ध नहीं होते हैं और ---
राजा हि सर्वभूतानां पिता भवति धर्मतः ।
यह वाक्य संकट में आ जाता है ।