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घुमक्कड़ी (भाग- 2)

19 जुलाई 2022

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घुमक्कड़ी (भाग- 2)

हरिद्वार-ऋषिकेश-देहरादून यात्रा

(दिनांक : 07 जून 2022)

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बस ने हमें हर की पौड़ी (हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार समुद्र मन्थन के बाद जब धन्वंतरी, अमृत के लिए झगड़ रहे देव-दानवों से बचाकर अमृत ले जा रहे थे, तो पृथ्वी पर अमृत की कुछ बूँदें गिर गई और वे स्थान धार्मिक महत्व वाले स्थान बन गए। अमृत की बूँदे हरिद्वार में भी गिरी और जहाँ पर वे गिरी थीं वह स्थान हर की पौड़ी कहलाता है) के सामने वाले दूसरे घाट से लगभग पांच सौ मीटर दूर छोड़ दिया। अब हम हमारा घुमक्कड़ी वाला थैला उठाये चल पड़े, किसी अच्छे से आश्रम या होटल में शरण लेने के लिए। घर से जो सोच के चले थे, यहाँ आकर सब उल्टा पाया। सोचा था गंगा के घाट पर एकांत में आनंद से गंगा स्नान किया जाएगा और जहाँ से हर की पौड़ी के दर्शन हो ऐसा होटल या आश्रम बुक किया जाएगा, परन्तु यहाँ तो हम जैसे लोगों की ही भीड़ लगी थी। मैं पहले भी कई दफा हरिद्वार आ चुका था, पर इतनी भीड़ और शोर यहाँ पहली बार देख रहा था। चारों तरफ लोग ही लोग। हर की पौड़ी के पास आश्रम और होटल मिलना भी मुश्किल था। पैदल- पैदल घाटों के पास जितने भी होटल और आश्रम थे, सब में कमरा खाली है क्या ? इस भाव को आँखों में भरें उनके सामने खड़े हो जाते थे, उत्तर केवल एक मिलता, कमरा खाली नहीं है। अनन्तः हर की पौड़ी से थोड़ी सी दूर होटल में एक कमरा खाली मिला, लेकिन वो भी बहुत मँहगा। यहाँ सामान्य दिनों में हजार से पंद्रह सौ रुपये में अच्छा कमरा मिल जाता है, परन्तु आज वही कमरा हमे पैतीस सौ रुपये में लेना पड़ा। क्योंकि की हम चाहते थे कि कमरा ऐसा हो जहाँ से गंगा जी की दर्शन होते रहे। 

कमरा बुक करके सामान रख कर, सबसे पहले हमनें गंगा जी में डुबकी लगाने का निर्णय लिया। होटल से निकल के चल पड़े, हर की पौड़ी घाट की तरफ और देखने लगे ऐसी जगह जहाँ आराम से डुबकी लगा कर थोड़ी देर पानी में ही मगरमच्छ की तरह शांत बैठा जा सके, परन्तु बहुत कोशिश के बाद समझ आया कि ऐसा इस घाट पर तो संभव नहीं होगा। धीरे धीरे चलने लगें घाट पर आगे की ओर, कि कोई घाट तो होगा जहां हमारी इच्छा पूरी हो सके और चलते चलते हम हमारी होटल के सामने वाले घाट पर ही पहुँच गए, जहाँ थोड़ी कम भीड़ थी, और गंगा का प्रवाह भी थोड़ा शांत था। निर्णय हुआ अभी यहाँ ही स्नान का आनंद लिया जाए, बाद में शाम को कोई और अच्छी जगह ढूंढी जाएगी। हम दोनों दोस्त उतर लिए गंगा माँ की गोद में अपने सफर की थकान मिटाने के लिए। हाँ थोड़े बहुत पाप भी धूल जाएं, इस से मुझें कोई परहेज नहीं था, परन्तु बौद्विकता कहती है ये संभव नहीं हो पायेगा। खैर इस विचार को त्याग कर हम बस आनंद लेने लगें उस समय का। हाँ एक बात तो बताना ही भूल गया, पहली बार गंगा जी के पानी मे पैर डालते समय शरीर या आत्मा दोनों तुरंत बाहर आ जाते है क्योंकि कि पानी अपेक्षा से अधिक ठंडा है। इतनी गर्मी होने के बावजूद भी वो पानी बहुत ठंडा महसूस होता है। लेकिन एक बार पूरे शरीर को गंगा जी में अर्पित, मेरा मतलब है, एक पूरी डूबकी मारने के बाद सारी ठंड और थकान गायब हो जाती है। करीब एक घंटे तक नहाने का आनंद लेने के बाद भूख लगना स्वाभाविक है। तो हम भी पानी से बाहर निकल के वापस होटल की ओर चल पड़े। 

कमरे में कपड़े बदल कर किसी अच्छे और साफ सुथरे खाने के होटल को ढूंढ़ने लगें। किसी ने सलाह दी कि यहाँ पास में ही जैन भोजनालय है, वो बड़ा ही स्वादिष्ट और सात्विक खाना खिलाता है। हम धीरे-धीरे चल पड़े उसी ओर, थोड़ा आगे चले तो किसी को पूछा कि ये जैन भोजनालय कहाँ है, तो उन महाशय ने बिन मांगे ही सलाह दी कि वहाँ खाने के लिए ना जाएं बहुत भीड़ है, और खाना भी इस समय ज्यादा अच्छा नहीं मिलेगा। अब एक और समस्या खड़ी हो गयी फिर कहाँ खाना खाया जाएं। हरिद्वार में खाना खाने वाले ढ़ाबे और होटल बहुत है, परंतु भीड़ अधिक होने के कारण सब जगह शोर शराबा था, जहाँ हम जाना नहीं चाह रहे थे। तभी मेरी नजर एक रेस्टोरेंट पर पड़ी उसमे दो महिलाएं रोटियां बेल रही थी तथा दो पुरुष रोटियां सेक रहे थे, भीड़ भी नहीं थी केवल दो-चार लोग ही अंदर बैठे थे। हमें लगा मिल गयी सही जगह, हम पहुँच गए अंदर और खाना खिलाने की बात कही। उनमें से एक व्यक्ति ने कहा कि सर हमारे यहां की रतलाम स्पेशल थाली खा के देखे। हमनें वही दो थालियां आर्डर कर दी। जब तक थाली आती हम इधर उधर देखने लगें। उन चारों को देखने लगे, थोड़ी देर बाद आभास हुआ कि यहाँ ये चार लोग जिसमे दो पुरुष और दो महिलाएं है, किसी भी तरह से होटल में काम करने वाले या खाना बनाने वाले नही लग रहे है। इनकी वेशभूषा और क्रियाकलापों से लग रहा था, कि वो इस काम मे नए नए है। फिर हमनें उनमें से एक व्यक्ति को कुछ संकोच करते हुए पूछा कि आप कब से ये काम कर रहे है और कहाँ से है, तो उन्होंने बताया कि वो तथा उनके भाई तथा उन दोनों की पत्नियों ने अभी पांच-सात दिन पहले ही इस होटल हो शुरू किया है। वो सब दिल्ली से है तथा कोरोना काल की मार के कारण व्यवसाय में घाटा होने के कारण यहाँ आकर होटल को किराये में लेकर चला रहे है। हरिद्वार में अभी पर्यटन का मौसम है तो सोचते है, कुछ कमाई कर ली जाएं। हमनें रात का खाना और अगली सुबह का नाश्ता भी यही से किया। उनका खाना और नाश्ता बहुत सात्विक और स्वादिष्ट था। 

खाना खाकर होटल पहुँच कर हम होटल के कमरे में आराम करने लगे और खिड़की से दिखाई देते गंगा के प्रवाह का नजारा देखने लगे। 

दोपहर में अचानक हमारे दोस्त साहब को पता नहीं क्या सूझी, बोले मनसा माता के चला जायेगा, मैं पहले भी जा चुका था इसलिए मैंने उन्हें बहलाने की कोशिश की, परन्तु वो साहब कहां मानने वाले थे, बोले नहीं हमारा तो पहली बार है हम तो जायेंगे, तो हम भी जैसे-तैसे खड़े हुए कपड़े बदलकर चल पड़े दोस्त के पीछे -पीछे। होटल के बाहर आकर हमनें रिक्शा किया और दोनों ने अपनी अपनी काया को रिक्शे पर सवार किया और चल पड़े मनसा माता के दर्शन के लिए। मुझें रिक्शा में बैठना पसंद नहीं है, क्योंकि कि मुझें लगता है कि कोई इंसान किसी दूसरे इंसान का वजन ढोए ये मानवता के विरुद्ध कार्य है। जब मैंने दोस्त को ये बात बताई, तो उन्होंने कहा कि अगर आपकी तरह ही सब लोग सोचने लगे तो फिर बेचारे रिक्शावालों का घर कैसे चलेगा। अब मुझें भी उनकी बात में दम लगा और उस समय में भी उनकी बात से सहमत हो गया। रिक्शावाले ने हमे मनसा माता की पहाड़ी पर जहां से चढ़ाई शुरू होती है उनके नजदीक उतार दिया। जब दोस्त पहले से तय किराया पचास रुपये देने लगे तो मैंने उनसे कहा कि पचास नहीं उसको पूरे सौ रुपये दिए जाएं, माता के मंदिर में जो प्रसाद चढ़ाया जाएगा, वो पैसा इस भाई को दे दिया जाए, तो शायद अपना प्रसाद सही जगह पहुँच जाए। उन्होंने रिक्शावाले को पचास की जगह सौ रुपये दिए। रिक्शावाले ने हमे बड़े ही प्रेम से मुस्कुराते हुए देखा और धन्यवाद दिया। हमें भी लगा प्रसाद शायद सही जगह पहुँच गया हैं। 

अब हम माता की पहाड़ी की चढ़ाई जहां से शुरू होती है वहाँ पहुचे तो हमारी सारी जिज्ञासा और खुशी गायब हो गयी, क्योंकि मुझे लगा था कि पैदल चढ़ने के स्थान पर हम उड़नखटोला (रोप-वे) ले लेंगे और आराम से ऊपर जाकर दर्शन कर आएंगे और पूरे हरिद्वार का विहंगावलोकन भी कर लेंगे। परन्तु जब देखा कि यहाँ तो रोप-वे की टिकट के लिए बहुत बड़ी लाईन लगी है और अधिक भीड़ के कारण टिकिट काउंटर दो घंटे के लिए बंद भी कर दिया गया है, तो सबसे पहले यही विचार आया कि यहीं से माता के हाथ जोड़ लिए जाएं और वापस होटल लौट जाएं, परंतु हमारे साथी ठहरे पुलिसमैन बोले नहीं भाई साहब दर्शन तो करने ही है, चाहे पदयात्रा करनी पड़े। हमें मालूम था साहब को समझाना व्यर्थ है तथा ये पहली बार हरिद्वार आये है इनको मना करना भी उचित नहीं होगा। तो हम चल पड़े माता ही पहाड़ी की पैदल यात्रा पर। लगभग चालीस मिनट के रास्ते मे दो-तीन जगह बैठने के बाद हम माता के मंदिर के सामने थे। दर्शन हेतु लम्बी लाईन लगी थी तो लगभग बीस मिनट बाद दर्शन का नम्बर आया। दर्शन कर जैसे ही हम बाहर निकले जोरों से प्यास लगी, पास की छोटी सी दुकान से पानी की बोतल मांगी तो आवाज आई, साहब कौनसी दूँ, मैंने कहा भाई यहाँ जो है वो ही दे दो, यहाँ असली कंपनी वाली पानी की बोतल तो मिलने से रही,(आजकल पर्यटन स्थलों पर दुकानदार अधिकांशतः असली कंपनी के नाम से मिलती जुलती नाम की पानी की लोकल ब्रांड वाली  बोतलें ही अधिक बेचते है) परन्तु उस भाई ने मुझें उपहास की दृष्टि से देखा और अंदर से असली कंपनी की पानी की बोतल निकाल के मेरे सामने रख दी। उसकी आँखों मे उस समय वैसी चमक थी, जैसे उसने अभी-अभी ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीता हो और मेरी हालत उस दीन-हीन मनुष्य जैसी जिसके जीवन को उस पानी के देवता ने धन्य कर दिया हो। खैर पानी का आनंद लेकर हम थोड़ी देर वही बैठ गए और ऊपर से पूरे हरिद्वार के दर्शन करने लगे और उसकी सुंदरता को अनिश्चित काल के लिए आँखों मे बसाने का प्रयास करने लगे। थोड़ी देर वहां बैठने के बाद हम धीरे धीरे सीढ़ियों से नीचे उतरने लगें और लगभग पच्चीस मिनट के बाद पुनः हरिद्वार की मुख्य सड़क के सामने खड़े थे। 

नीचे आये तो शाम हो चुकी थी, जिधर भी देखों लोग हर की पौड़ी की तरफ ही चले जा रहे थे, क्योंकि अब समय हरिद्वार के सबसे बड़े आकर्षण गंगा की संध्या आरती का था। लोग हर की पौड़ी और उसके आसपास के सभी घाटों पर दो से तीन घंटे पहले ही एकत्रित होना प्रारंभ कर देते है, ताकि उस विश्व प्रसिद्ध और आलौकिक गंगा की संध्या आरती को देख सके और अपने-अपने कैमरों और मोबाइल फोनों में सहेज के रख सके। 

हमें भी इस अवसर का साक्षी बनना था, परंतु हम उस भीड़ में शामिल होना नहीं चाह रहे थे तो हमनें एक नयी जुगत लगाई कि क्यों ना ऐसे घाट पर चला जाये, जो भले यहाँ से थोड़ा दूर हो परन्तु वहाँ से गंगा आरती भी आराम से दिख जाएं और ज्यादा भीड़ भी ना हो। चारों तरफ नजर दौड़ाने पर सामने एक घाट दिखाई दिया जो एकदम खाली और शांत था, जहाँ बैठने के लिए भी विशेष व्यवस्था की गई थी। अब लक्ष्य था उस घाट तक पहुँचा कैसे जाएं, जब पूरी जांच पड़ताल हुई तो पता चला, इस घाट पर पहुँच के लिए हरिद्वार से ऋषिकेश जाने वाली मुख्य सड़क पर पहुँचकर वहाँ से अंदर जाना होगा, और वहाँ इस समय जाने के लिए कोई रिक्शा या ऑटो भी नहीं मिलेगा, क्योंकि सभी लोग अब हर की पौड़ी की तरफ आते है। इसलिए यहाँ से जाने के लिए कोई तैयार नही होगा। हमनें पैदल जाने का निर्णय किया। लगभग दो किलोमीटर पैदल चलने के बाद हम उस घाट के सामने पहुँचे तो पता चला, ये यहाँ का वीआईपी घाट है, यहाँ केवल हरिद्वार के विशेष अधिकारी और नेताओं को ही जाने की अनुमति है। तब समझ आया कि ये घाट इतना खाली क्यों है। मन मे प्रश्न उठा कि देखों ईश्वर और प्रकृति ने कभी इंसान-इंसान में कोई फर्क नहीं किया, मनुष्य ने स्वयं ही सामाजिक भेदभाव उत्पन्न किया है। इसके लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार है, कि हमनें एक ऐसा लोकतंत्र स्थापित किया है, जिसमें जो लोकसेवक और नेता आम जनता के सेवक होने चाहिये थे, वो अपने आपको जनता से अलग और ऊपर मानते है और जनता के पैसों से ही विशेष सुविधाओं का लाभ उठाकर, जनता को ही अँगूठा दिखाते है। हमनें बाहर खड़े पुलिस वाले साहब को अपना परिचय दिया तो उन्होंने थोड़ी जाँच पड़ताल के बाद हमें अंदर जाने दिया। हमनें वहीं से गंगा आरती के दर्शन किये तथा घंटो बैठे बैठे गंगा को निहारते रहें। बिना एक दूसरे से बात किये हम यू हीं बैठे रहे और गंगा के तेज प्रवाह से उत्पन्न होती ध्वनि को मन के अंदर उत्पन्न होते संगीत के साथ एकाकर करने का प्रयास करने लगे। कब समय बीत गया और रात के ग्यारह से भी अधिक बज गए पता ही नहीं चला। हम वहाँ से निकले और सीधा खाना खाने के लिए चल पड़े। खाना खाने के बाद थोड़ी देर चहल कदमी करते हुए होटल पहुँचे तथा होटल की छत पर बैठकर ऊपर से गंगा के घाटों का और उन पर हो रही रोशनी को निहारने लगें। खाना खाने के बाद की खुमारी तथा बहती हुई ठंडी हवा ने धीरे धीरे आँखों में नींद को भरना शुरू कर दिया था, ऊपर से पूरे दिन की थकान भी थी, सो हम थोड़ी देर बाद नीचे आकर आराम से अपने कमरे में नींद के आगोश में समाते चले गए।

(शेष भाग-तीन में)


• डॉ. अनिल 'यात्री'

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