घुमक्कड़ी (भाग -1)
हरिद्वार-ऋषिकेश-देहरादून यात्रा
दिनांक : 06 जून 2022
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यात्राएं पूर्व में तय नहीं की जाती, यात्राएं प्रारंभ होती हैं, सहसा या अचानक। ऐसी यात्राएं जो अचानक या सहसा की जाती है, वह सदैव स्मरणीय होती है, पूर्व से ही पूर्णतः व्यवस्थित यात्राओं में कौतूहल नहीं रहता है। ऐसी ही एक अव्यवस्थित और अनियोजित यात्रा पर निकल पड़े थे, मैं और मेरा मित्र।
हमारी इस यात्रा में पूर्व नियोजित कुछ नहीं था, क्योंकि घूमने का यह कार्यक्रम भी केवल एक दिवस पहले बना था। दोस्त के क्वार्टर की छत पर बैठे-बैठे चर्चा चल रही थी, कि घूमनें के लिए कहाँ चला जाएं। पहले मैंने प्रस्ताव रखा लेह से लद्दाख मोटरसाइकिल यात्रा की जाएं, फिर प्रस्ताव आया केदारनाथ चला जाएं, अन्तः तय हुआ सबसे पहले हरिद्वार चलते है, वहाँ तय किया जाएगा, कि आगे कहाँ चलना है। अब आईआरसीटीसी पर ट्रेन के टिकट की खोज शुरू की तो पता चला, पूरा भारत ही हमारी तरह घूमने का विचार बना चुका है, तो इतनी जल्दी ट्रेन की कंफर्म टिकट मिलना मुश्किल नहीं, नामुमकिन सा ही है। तो अब तय हुआ सीकर से हरिद्वार रात को जो वातानुकूलित बस चलती है, उसमें दो स्लीपर कोच बुक करवाई जाएं। हम दोनों ने तुरंत मोटरसाइकिल उठायी और चल पड़े टिकट बुक करवाने के लिए। हमें हमारी इच्छा के अनुसार दो स्लीपर कोच मिल गए। अगले दिन रात को आठ बजे वाली बस से जाना तय हुआ और तय समय पर हम दोनों अपना-अपना घुमक्कड़ी का थैला उठाये चढ़ लिए, सीकर से हरिद्वार की बस में। कहाँ रुकना है, आगे कहाँ जाना है, क्या-क्या घूमना है, कुछ भी तय नहीं था, बस यह तय था कि चलना है, और जहाँ मन करें, वही चलना है। वैसे मेरा मानना है, जो भी कार्यक्रम बहुत पहले से तय किये होते है, वो कभी पूरे होते ही नहीं है। घुमक्कड़ी का असली मजा या कहे घुमक्कड़ी का मतलब ही यही है कि बस आप चल पड़े, बिना किसी तय योजना या कार्यक्रम के, केवल इसलिए कि आपको अपने अंदर के यात्री को शांत करना है।
बस हमारे अनियत सफर को शुरू करने के लिए चल पड़ी अपने नियत सफर पर। लगभग दस बजे बस रुकी और आवाज आने लगीं कि जिसको खाना खाना है या चाय पीनी है, वो नीचे आ सकते है, बस यहाँ थोड़ी देर रुकेगी। यह जगह हमारे ज्यादा अनुकूल और अच्छी नहीं थी, परंतु मुझे पता था कि अधिकांश ये बसे ऐसी ही जगह रुकती है। हम दोनों भी घर से बनाये हुए पराठे लिए बस से नीचे उतर लिए और वही एक खाट या कहे पलंग ( मारवाड़ी में जुट की रस्सी से बने पलंग को खाट कहा जाता है) पर बैठकर पराठो का आनंद लेने लगे।
थोड़ी देर बाद बस के ड्राइवर ने चलने का हॉर्न दिया और सारी सवारियां वापस अपनी अपनी सीटों पर आकर जम गई। अब बारी थी, आराम से नींद निकालने की, इसलिए हम दोनों भी अपने अपने कोच में सोने की तैयारी करने लगें। थोड़ी देर में दोस्त तो आराम से नींद की गहराइयों में उतर कर आगामी यात्रा के सपनों में खो गया। परन्तु मैं जो कि लगभग पूरे छः फिट का हूँ, उस पूरे-पूरे छः फिट के केबिन में आराम से फिट नहीं हो पा रहा था। क्योंकि कहते है कि इंसान जब सोता है, तो उसकी लम्बाई बढ़ जाती है। अब लम्बाई बढ़ने का तो पता नहीं था, परन्तु मै उस छः फिट के केबिन में पूरा नहीं आ रहा था, तो कैसे-जैसे पैरों को मोड़ के सोने की कोशिश करने लगा।
आंखों में नींद ने डेरा डालना शुरू ही किया था, कि बस में शोर सुनाई देने लगा। बस का परिचालक और सवारियां आपस में बातों वाला झगड़ा कर रहें थे।(ऐसा झगड़ा जहाँ केवल आप अपनी वाकपटुता का प्रदर्शन करते है, इसमें हिंसा या हाथापाई होने की ना के बराबर संभावना होती है) शायद एक पूरा परिवार सीकर के पास प्रसिद्ध धार्मिक स्थल खाटूश्याम जी के दर्शन कर के दिल्ली जा रहा था, और उनकी एक सीट पर एसी नहीं चल रही थी, जिसकों लेकर आपस में विवाद चल रहा था। अब उनके इस विवाद में नींद कहाँ आने वाली थी, क्योंकि वो विवाद करते-करते मेरी सीट के सामने ही आकर खड़े हो गए थे। करीब आधा घंटे बाद मामला शान्त हुआ, जैसा कि ऐसे अधिकांश मामलों में होता है। बस अब अपनी गति से आगे बढ़ रही थी और मुझें भी हल्की-हल्की नींद आने लगी थी। सुबह करीब पांच बजे जब नींद खुली, तो हमनें अपने आप और बस को दिल्ली के ट्रैफिक जाम में खड़ा पाया। बस धीरे धीरे रेंगते हुए आगे बढ़ने लगी, इस समय बस को लगभग मुजफ्फरनगर के पास होना चाहिए था, परन्तु हम तय समय से लगभग तीन घंटे देरी से चल रहे थे। जैसे-तैसे ट्रैफिक जाम से बाहर निकल के गाड़ी तीव्र गति से आगे बढ़ने लगी। लगभग दो घंटे बाद सभी सवारियों के आग्रह पर गाड़ी को मुजफ्फरनगर के आसपास चाय-पानी के लिए रोका गया। हम भी उतर लिए और प्रातःकाल की क्रिया से निवृत्त होकर चाय पीने का मन बनाने लगे। जब चाय वाले के काउंटर पर पहुँचे तो कुल्हड़ वाली चाय को देखकर मन खुश हो गया। कोरोना काल के कारण आजकल सभी चाय वाले डिस्पोजल कप में चाय पिलाने लगे है, जिसमें ना चाय का स्वाद आता है, ना ही मन भरता है। कुल्हड़ की चाय का स्वाद ही अलग है। चाय को होंठो से लगाते ही चाय की जो खुशबू है, वह आपके मन और आत्मा दोनों को तृप्त कर देती है। मिट्टी की खुशबू और चाय का मीठापन बड़ा ही आनंददायक समागम है।
अचानक बस के ड्राईवर ने हॉर्न देकर चलने का संकेत दिया, सभी सवारियां फिर अपने अपनी सीट पर बैठ कर चल पड़ी, अपने गंतव्य हरिद्वार की ओर। लगभग दो घंटे बाद हम हरिद्वार पहुंचे। हरिद्वार की हवा में गंगा के जल की एक अलग नमी और खुशबू है। आपको हवा में जो हल्की ठण्ड है, वो आभास करा देती है कि आसपास नदी बह रही है।
(शेष भाग-2 में)
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डॉ. अनिल 'यात्री'