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एक गिलास पानी (लघुकथा)

25 अप्रैल 2018

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उस सरकारी कार्यालय में लंबी लाइन लगी हुई थी। खिड़की पर जो क्लर्क बैठा हुआ था, वह तल्ख़ मिजाज़ का था और सभी से तेज़ स्वर में बात कर रहा था। उस समय भी एक महिला को डांटते हुए वह कह रहा था, "आपको ज़रा भी पता नहीं चलता, यह फॉर्म भर कर लायीं हैं, कुछ भी सही नहीं। सरकार ने फॉर्म फ्री कर रखा है तो कुछ भी भर दो, जेब का पैसा लगता तो दस लोगों से पूछ कर भरतीं आप।"


एक व्यक्ति पंक्ति में पीछे खड़ा काफी देर से यह देख रहा था, वह पंक्ति से बाहर निकल कर, पीछे के रास्ते से उस क्लर्क के पास जाकर खड़ा हो गया और वहीँ रखे मटके से पानी का एक गिलास भरकर उस क्लर्क की तरफ बढ़ा दिया।


क्लर्क ने उस व्यक्ति की तरफ आँखें तरेर कर देखा और गर्दन उचका कर ‘क्या है?’ का इशारा किया। उस व्यक्ति ने कहा, "सर, काफी देर से आप बोल रहे हैं, गला सूख गया होगा, पानी पी लीजिये।"


क्लर्क ने पानी का गिलास हाथ में ले लिया और उसकी तरफ ऐसे देखा जैसे किसी दूसरे ग्रह के प्राणी को देख लिया हो, और कहा, "जानते हो, मैं कडुवा सच बोलता हूँ, इसलिए सब नाराज़ रहते हैं, चपरासी तक मुझे पानी नहीं पिलाता..."


वह व्यक्ति मुस्कुरा दिया और फिर पंक्ति में अपने स्थान पर जाकर खड़ा हो गया।


शाम को उस व्यक्ति के पास एक फ़ोन आया, दूसरी तरफ वही क्लर्क था, उसने कहा, "भाईसाहब, आपका नंबर आपके फॉर्म से लिया था, शुक्रिया अदा करने के लिये फ़ोन किया है। मेरी माँ और पत्नी में बिल्कुल नहीं बनती, आज भी जब मैं घर पहुंचा तो दोनों बहस कर रहीं थी, लेकिन आपका गुरुमन्त्र काम आ गया।"


वह व्यक्ति चौंका, और कहा, "जी? गुरुमंत्र?"


"जी हाँ, मैंने एक गिलास पानी अपनी माँ को दिया और दूसरा अपनी पत्नी को और यह कहा कि गला सूख रहा होगा पानी पी लो... बस तब से हम तीनों हँसते- खेल ते बातें कर रहे हैं। अब भाईसाहब, आज खाने पर आप हमारे घर आ जाइये।"


"जी! लेकिन , खाने पर क्यों?"


क्लर्क ने भर्राये हुए स्वर में उत्तर दिया,

"जानना चाहता हूँ, एक गिलास पानी में इतना जादू है तो खाने में कितना होगा?"

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