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शह की संतान (लघुकथा)

25 अप्रैल 2018

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तेज़ चाल से चलते हुए काउंसलर और डॉक्टर दोनों ही लगभग एक साथ बाल सुधारगृह के कमरे में पहुंचे। वहां एक कोने में अकेला खड़ा वह लड़का दीवार थामे कांप रहा था। डॉक्टर ने उस लड़के के पास जाकर उसकी नब्ज़ जाँची, फिर ठीक है की मुद्रा में सिर हिलाकर काउंसलर से कहा, "शायद बहुत ज़्यादा डर गया है।"


काउंसलर के चेहरे पर चौंकने के भाव आये, अब वह उस लड़के के पास गया और उसके कंधे पर हाथ रख कर पूछा, "क्या हुआ तुम्हें?"


फटी हुई आँखों से उन दोनों को देखता हुआ वह लड़का कंधे पर हाथ का स्पर्श पाते ही सिहर उठा। यह देखकर काउंसलर ने उसके कंधे को धीमे से झटका और फिर पूछा, "डरो मत, बताओ क्या हुआ?"


वह लड़का अपने कांपते हुए होठों से मुश्किल से बोला, "सर... पुलिस वालों के साथ... लड़के भी मुझे डराते हैं... कहते हैं बहुत मारेंगे... एक ने मेरी नेकर उतार दी... और दूसरे ने खाने की थाली..."


सुनते ही बाहर खड़ा सिपाही तेज़ स्वर में बोला, "सर, मुझे लगता है कि ये ही ड्रामा कर रहा है। सिर्फ एक दिन डांटने पर बिना डरे जो अपने प्रिंसिपल को गोली मार सकता है वो इन बच्चों से क्या डरेगा?"


सिपाही की बात पूरी होने पर काउंसलर ने उस लड़के पर प्रश्नवाचक निगाह डाली, वह लड़का तब भी कांप रहा था, काउंसलर की आँखें देख वह लड़खड़ाते स्वर में बोला,


"सर, डैडी ने मुझे कहा था कि... प्रिंसिपल और टीचर्स मुझे हाथ भी लगायेंगे तो वे उन सबको जेल भेज देंगे... उनसे डरना मत.... लेकिन उन्होंने... इन लड़कों के बारे में तो कभी कुछ नहीं..."


कहते हुए उस लड़के को चक्कर आ गए और वह जमीन पर गिर पड़ा।

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