हितों की रक्षा के नाम पर फिर छले गए झारखंड के आदिवासी
छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 (सीएनटी) और संताल परगना काश्तकारी अधिनियम-1949 (एसपीटी) में प्रस्तावित संशोधनों की भ्रूण हत्या हो गई. जबकि संशोधन के यह सारे प्रावधान आदिवासी हितों की रक्षा के साथ ही उनके आर्थिक विकास को सुनिश्चित करने वाले और गति देने वाले थे. झारखंड सरकार ने गत 9 अगस्त को संबंधित सशोधन विधेयक को स्थगित रखने का फैसला किया है. सरकार ने यह कदम द्वारा विधेयक वापस करने और जनजातीय परामर्शदातृ परिषद् की असहमति के आधार पर उठाया है.
झारखंड सरकार ने संताल परगना काश्तकारी अधिनियम-1949 (सीएनटी) तथा छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 (एसपीटी) में संशोधन किया था. दोनों के लिए अलग-अलग विधेयक को सदन ने 24 नवम्बर 2016 को मंजूरी दे दी थी. इसे स्वीकृति के लिए राज्यपाल के पास भेजा गया था, किन्तु राजयपाल ने विरोध में मिले ज्ञापनों के आधार पर इसे सरकार के पास पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिया था. संशोधन के विरोधियों का तर्क था कि संशोधन का उद्देश्य और आवश्यकता स्पष्ट नहीं है. साथ ही इसमें एकरूपता भी उन्हें नजर नहीं आई थी. मुख्यमंत्री ने संशोधन के दो प्रस्तावों को वापस लेने की तैयारी भी दिखाई, इसके बावजूद गतिरोध बना ही रहा.
दुर्भाग्यपूर्ण रहा फैसला
जिन-जिन स्तरों पर भी संशोधनों को खारिज करने का फैसला हुआ, उसे हर हाल में दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा. संशोधन विरोधियों की एक भी दलील तार्किक अथवा तथ्यात्मक नहीं था. स्वयं राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने विधानसभा के बजट सत्र के पहले दिन अपने अभिभाषण में सीएनटी और एसपीटी में संशोधनों के निर्णय को अभूतपूर्व, ऐतिहासिक और दूरगामी बताया था. इससे समझा जा रहा था कि मौजूदा सत्र में सरकार या संशोधन विधेयक विधानसभा में पेश करेगी.
ये संशोधन आदिवासी भूमि के सार्वजनिक उपयोग के लिए अधिग्रहण से संबंधित थे. संशोधनों में उनके हितों की व्यापक रक्षा और सम्पूर्ण लाभ दिलाने का प्रावधान था. लेकिन एक बार फिर आदिवासी हितों को रौंदते हुए निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा अपने-अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की रक्षा में बलि चढ़ा दी गई. यह सम्पूर्ण झारखंड के आदिवासियों का दुर्भाग्य है कि जो खेल खेला गया, वह भी उन्हीं को ढाल बना कर खेला गया.
सीएनटी एक्ट में संशोधन के प्रावधान
इन संशोधनों के अंतर्गत सीएनटी की धारा-21, धारा-49 (1), धारा 49 (2) व धारा-71 (ए) में संशोधन किया गया था. धारा-21 में गैर कृषि उपयोग को विनियमित करने की शक्ति दी जानी थी. इसमें जिक्र किया गया है कि सरकार समय-समय पर ऐसे भौगोलिक क्षेत्रों में भूमि के गैर कृषि उपयोग को विनियमित करने के लिए नियम बनाएगी तथा राज्य सरकार द्वारा समय-समय पर ऐसे उपयोगों को अधिसूचित किया जाएगा. राज्य सरकार गैर कृषि लगान अधिरोपित कर सकेगी. नगर पालिका सीमा के भीतर व बाहर स्थित अपनी भूमि के कृषि उपयोग से संबंद्ध गैर कृषि कार्यों के लिए काश्तकारों द्वारा कोई गैर कृषि लगान भुगतान नहीं करना होगा. परंतु, कृषि से गैर कृषि उद्देश्यों के लिए परिवर्तित भूमि पर रैयतों का स्वामित्व (मालिकाना हक) पूर्व की भांति बना रहेगा.
- धारा 49 (1) में कहा गया कि कोई भी जोत या जमीन मालिक सरकारी प्रयोजन हेतु सामाजिक, विकासोन्मुखी एवं जन कल्याणकारी आधारभूत संरचाओं के लिए अधिसूचित की जानेवाली परियोजनाओं के लिए जमीन हस्तांतरित कर सकेंगे. हस्तांतरित जमीन का मूल्य वर्तमान भू-अर्जन अधिनियम के अंतर्गत तय भूमि के मूल्य से कम नहीं होगा. जोत सड़क, केनाल, रेलवे, केबुल, ट्रांसमिशन, वाटर पाइप्स एवं जनपयोगी सेवा, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, पंचायत भवन, अस्पताल व आंगनबाड़ी के लिए जमीन दे सकेंगे.
- 49 (2) में प्रावधान किया गया था कि जिस प्रयोजनार्थ जमीन का हस्तांतरण हुआ है, उससे भिन्न उपयोग नहीं हो सकेगा. जिस प्रयोजनार्थ भूमि हस्तांतरित की गई है, यदि उसके लिए पांच साल तक उपयोग नहीं होगा, तो वह मूल रैयत या उसके विधिक उतराधिकारी को वापस हो जाएगी. इसके लिए पूर्व में हस्तांतरण संबंधी दी गई राशि भी वापस नहीं होगी.
- साथ ही सीएनटी एक्ट की धारा-71 (ए) की उप धारा-2 को समाप्त करने का फैसला किया गया था. अध्यादेश प्रारूप में भी इसे समाप्त करने का प्रावधान किया गया था. इस उप धारा के समाप्त होने से आदिवासियों की जमीन मुआवजा के आधार पर किसी अन्य को हस्तांतरित नहीं की जा सकेगी.
एसपीटी एक्ट में संशोधन का प्रावधान
संताल परगना काश्तकारी अधिनियम-1949 एसपीटी की धारा-13 में संशोधन किया गया था. इसके स्थान पर धारा 13 (क) स्थापित किया गया. इसमें कहा गया कि राज्य सरकार समय-समय पर ऐसे भौगोलिक क्षेत्रों में भूमि के गैर कृषि उपयोग को विनियमित करने के लिए नियम बनाएगी. राज्य सरकार द्वारा समय-समय पर ऐसे उपयोगों को अधिसूचित किया जाएगा. राज्य सरकार गैर कृषि लगान लगाएगी. इसकी मानक दर भूमि के बाजार मूल्य के एक प्रतिशत से अधिक नहीं होगी. मानक दर अधिसूचना की तिथि से पांच साल के लिए मान्य होगी. नगरपालिका सीमा के भीतर व बाहर स्थित अपनी भूमि के कृषि उपयोग से संबद्ध गैर कृषि क्रियाकलापों के लिए काश्तकार द्वारा कोई लगान भुगतान नहीं होगा. वैसी भूमि पर गैर कृषि लगान लगाया जाएगा, जिसका उपयोग नगर पालिका या नगर निगम क्षेत्रों के भीतर या बाहर गैर कृषि प्रयोजन के लिए किया जाता है. परंतु, कृषि से गैर कृषि उद्देश्यों के लिए परिवर्तित भूमि पर रैयतों का स्वामित्व (मालिकाना हक) पूर्व की भांति बना रहेगा.
लुटेरे बने स्वयं आदिवासी नेता और अधिकारी
सीएनटी और एसपीटी को स्वयं अनेक आदिवासी नेता और कुछ सरकारी आदिवासी अधिकारी अपने स्वार्थसिद्धी का माध्यम बनाए हुए हैं. यह अधिनियम संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल है और यह ज्यूडिशल रिव्यु से बाहर है. सीएनटी एक्ट की धारा 46 के मुताबिक राज्य के छोटानागपुर और पलामू डिविजंस में एससी/एसटी या ओबीसी की जमीन सामान्य लोग अथवा संबंधित पंचायत से बाहर का कोई दूसरे आदिवासी भी नहीं खरीद सकता. ऐसे में बेचने की जरूरत पड़ने पर ऐसे नेता और अधिकारी उनकी मजबूरी का फायदा उठा कर मनमाने दर पर उनकी भूमि खरीदते रहे हैं. क्योंकि आदिवासी समाज में वैसे पैसे वालों की संख्या अभी भी बहुत कम है, जिन्हें बाजार दर पर कीमत चुकाने की क्षमता हो.
कुछ वर्ष पहले तत्कालीन राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष रामेश्वर उरांव का मामला सामने आया था. उन पर आरोप था कि गुमला निवासी होते हुए भी उन्होंने रांची के बरियातु में आदिवासियों की जमीन खरीदी. उन्होंने सफाई दी थी कि वह जमीन उनकी पत्नी के नाम पर खरीदी गई है, वह बरियातु की ही रहने वाली है.
वैधानिक प्रावधान संभवतः उनके पक्ष में था. अतः बात आयी-गई हो गई. लेकिन ऐसे उदाहरण ढेरों हैं, जिसमें लोगों ने आदिवासी परिवारों की आर्थिक मजबूरियों का फ़ायदा उठा कर लड़कियों को रखनी (रखैल) रख लिया और है और उसके नाम पर आदिवासी जमीन संबंधित गांव में खरीदते रहे हैं.
आज भी झारखंड के आदिवासियों के साथ उनकी अपनी भूमि के क्रय-विक्रय अधिकार को लेकर कोई भी इमानदार नहीं है. आश्चर्य का विषय यह है कि अब तक किसी ने आदिवासियों की भूमि की खरीद की जांच की मांग किसी ने भी करने की जरूरत महसूस नहीं की है.छोटानागपुर टेनेंसी (सीएनटी) एक्ट अथवा सीपीटी एक्ट, जो आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए है, उसका यदि सबसे अधिक गलत फायदा कोई वर्ग उठा चुका है, अथवा उठा रहा है तो उसमें आदिवासी नेताओं के साथ अनेक आदिवासी अधिकारी शामिल हैं, जो एसटी आरक्षण का लाभ लेकर उच्च पदों तक पहुंचे और अन्य गैरआदिवासी अधिकारियों की तरह भ्रष्टाचार का सहारा लेकर जनता को एवं सरकारी खजाने को लूटा और फिर अपनी इस भ्रष्ट कमाई से झारखंड के शहरों, रांची और इसके आस-पास अपने ही आदिवासी भाइयों की जमीन औने-पौने दामों में हड़प ली है.
आदिवासी भूमि खरीद की जांच की मांग भी नहीं उठी
ऐसे अनेक उदाहरण हैं. अनेक बड़े आदिवासी अधिकारी और आदिवासी नेता झारखंड में शुरू से यही सब करते आए हैं. आदिवासियों में से ही ये दोनों वर्ग आज भी गरीब भोले-भाले आदिवासियों को लूटने वाले सबसे बड़े लुटेरे बने हुए हैं. इसी श्रेणी में सूबे के बड़े आदिवासी नेता और मुख्यमंत्री रहे पिता-पुत्र शिबू सोरेन और शैलेश सोरेन के नाम भी हाल के दिनों में खूब उछले हैं, लेकिन जांच के नाम पर सरकार के एक कदम भी आगे नहीं बढ़े.
इन बड़े आदिवासी अधिकारियों और आदिवासी नेताओं ने पिछले चालीस-पचास वर्षों में रांची और झारखंड के शहरों के आस-पास जिन-जिन आदिवासियों से जमीनें खरीदी हैं, उनकी कोई जांच कराने की मांग तो उठा कर देखे. कम से कम आज भी कोई आदिवासी नेता तो इस मांग को लेकर सामने कत्तई नहीं आएगा.
विकास और सिंचाई योजनाओं के विरोध की राजनीति और...
जब कभी झारखंड में कोई विकास योजना की शुरुआत हुई, उसके पीछे लंबा आंदोलन चला. इस बीच आदिवासी नेताओं और अधिकारियों ने संबंधित क्षेत्र के आदिवासियों को सरकार द्वारा जमीन छीने जाने का डर दिखा कर उनकी जमीनें औने-पौने दामों में स्वयं खरीद लीं. बाद में सरकार के साथ सौदेबाजी कर और अधिग्रहण होने वाली जमीन की मुआवजा राशि बढ़वा कर, उन अधिगृहीत भूमि की बढ़ी हुई कीमत सरकार से बटोर कर मालामाल हो गए. मामला चाहे स्वर्णरेखा बहुद्देशीय योजना की रहा हो या पारस जलाशय योजना का, अथवा झारखंड (पूर्व उत्तरी और दक्षिणी छोटानागपुर) के किसी भी जिले की, सभी परियोजनाओं के विरोध के बाद संबंधित आदिवासी नेता यही खेल खेलते रहे हैं और इसमें भ्रष्ट आदिवासी अफसर भी बहती गंगा में अपने हाथ धोते रहे हैं.
आज अनेक ऐसे उच्च शिक्षा प्राप्त आदिवासी युवक हैं, जो नौकरी न कर, व्यावसाय या उद्योग के क्षेत्र में कदम रखना चाहते हैं. उनके पास उनकी बेशकीमती जमीन भी है, जिसे बैंकों में गिरवी रखकर वे बैंक लोन लेना चाहते हैं. अथवा रांची जैसे शहर में अपने पुराने मकान के नवीकरण के लिए लोन लेना चाहते हैं, लेकिन सीएनटी एक्ट के प्रावधानों के कारण उन्हें कोई बैंक कर्ज नहीं दे सकता. ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जिससे यह साफ हो जाएगा कि जिला उद्योग केंद्रों के माध्यम से अनेक आदिवासी युवक अपनी लघु इकाई के लिए बैंक लोन लेने में विफल रहे.
करोड़ों की भूमि के मालिक बने मजदूर
रांची शहर के अल्बर्ट एक्का चौक पर फिरायालाल की बिल्डिंग है. उसके पीछे और आस-पास का इलाका चरडी गांव हुआ करता था. लाइन टैंक तालाब आदिवासियों की है. चरडी गांव के आदिवासी आज भी वहीं रहते हैं. वहां की जमीनें उनकी हैं, जिनकी कीमत आज के बाजार दर के हिसाब से कम से कम 50 हजार रुपए प्रति वर्गफुट तो होनी ही चाहिए. ऐसी कीमती जमीन के मालिक वहां के आदिवासी आज कैसी जिंदगी जी रहे हैं, यह भी ‘केस स्टडी’ का विषय है.
झारखंड में कोई निजी क्षेत्र का अथवा सार्वजनिक क्षेत्र का भी कोई बड़ा उद्योग आजादी के बाद नहीं आ पाया, क्योंकि निजी क्षेत्र के सामने भूमि अधिग्रहण बड़ी समस्या थी.
इसमें कोई शक नहीं कि पूर्व में सार्वजनिक क्षेत्र के लिए भूमि अधिग्रहण के कारण हजारों आदिवासी भूमिहीन बन कर रह गए. भारी इंजीनियरी निगम बना तो उस क्षेत्र के हजारों आदिवासियों को जो मुआवजा मिला, उसका उचित प्रबंध कर पाने की समझ नहीं होने के कारण हमने हजारों आदिवासियों को जमींदार से भूमिहीन और रिक्शा चालक बनते देखा है. महिलाएं दूसरे के घरों में नौकरानी बन चौका-बरतन कर जीवन यापन करने को मजबूर हो गईं. आज उनके लिए कोई नहीं सोचता. भारी इंजीनियरी निगम डूब रहा है. कोई यह मांग नहीं उठाता कि आदिवासियों की वहां की अधिगृहीत बेकार पड़ी जमीन उन्हें वापस लौटा दी जाए.
बोकारो स्टील प्लांट के लिए भूमि अधिग्रहण के मामले में भी यही सब हुआ और शिबू सोरेन तो स्वयं इसके गवाह हैं. आदिवासियों के नाम पर मुआवजे के लिए लड़ने वाले उनके अपने वकील और मुख्तार साथियों ने भी क्या-क्या गुल वहां खिलाए थे और आदिवासियों को मिली मुआवजे की बड़ी राशि के साथ क्या हुआ, इसके तो वे स्वयं गवाह रहे हैं.
थियोडोर बोदरा प्रकरण...
ऐसे ही आदिवासी नेता हुआ करते थे थियोडोर बोदरा, उन्होंने भी बरियातु क्षेत्र में स्कूल खोलने के नाम पर आदिवासियों से मिट्टी के मोल उनकी जमीन हथिया रखी थी. कुछ वर्षो बाद वही जमीन अपनी बेटियों में बांटने के लिए उपायुक्त, रांची से उन्होंने अनुमति मांगी थी. जिन आदिवासियों को ठग कर उन्होंने वह जमीन हथियाई थी, उन्हें जब पता चला और उन्होंने जब लिखित रूप से उपायुक्त, रांची के सामने बातें रखीं तब यह पोल खुली. धनबाद के दैनिक ‘आवाज’ में यह समाचार छपा और बोदरा साहब के खिलाफ आवाजें उठनीं शुरू हुईं, तब पता चला कि ऐसी अनेक भूमि में ही नहीं, आदिवासियों के साथ घोटालों के अनेक मामलों में वे लिप्त रहे हैं. उस वक्त वे पटना हाईकोर्ट के रांची बेंच में वे स्टैंडिंग काउंसिल के सदस्य हुआ करते थे. जब बात आगे बढ़ने लगी तो हृद्याघात के कारण वे स्वर्ग सिधार गए. ऐसे अनेक उदाहरण हैं. जिनसे यह साबित हो जाएगा कि यह सीएनटी एक्ट आज खुद आदिवासियों के लिए घातक बना हुआ है और उनके विकास के सबसे बड़े प्रतिरोधों में से एक है.
इस सीएनटी एक्ट का फायदा उठाने में गैर आदिवासी भी पीछे नहीं रहे हैं. ऐसे हजारों गैरआदिवासी मिल जाएंगे, जिन्होंने आदिवासियों की जमीनें हड़पने के लिए आदिवासियों युवतियों से फर्जी विवाह रचाया अथवा उन्हें रखैल (रखनी) बना लिया और उनके नाम पर आदिवासी जमीन मिट्टी के मोल खरीदते रहे. बाद में उनसे पैदा उनके बेटे-बेटियों को अलग रख उन्हें पालते रहे और उनके नाम पर भी जमीन का धंधा करते रहे हैं.
आज ये डर दिखाते हैं कि सीएनटी एक्ट में संशोधन कर गैरआदिवासियों को भी आदिवासियों की जमीन खरीदने की छूट दे दी जाएगी तो आदिवासियों का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा. यह हौवा खड़ा कर न केवल आदिवासियों को बेवकूफ बनाया जा रहा है, बल्कि उनकी लाचारी का फायदा भी उठाया जा रहा है. ऐसे एक नहीं, झारखंड में ऐसे हजारों प्रसंग हैं. कोई आदिवासी नेता इस बारे में नहीं सोचता.
झारखंड आंदोलन के दौरान वादा...
झारखंड पृथक राज्य का आंदोलन जब 1980 के दशक में जोर पकड़ा तो उसके पीछे गैरआदिवासियों का समर्थन इस आधार पर आंदोलन को मिला था कि झारखंड राज्य में गैरआदिवासियों को भूमि संबंधी अधिकार में सीएनटी एक्ट को आड़े नहीं आने दिया जाएगा. तत्कालीन आदिवासी नेताओं में एन.ई. होरो, कार्तिक उरांव, बागुन सोम्बरुई आदि ने अनेक बार सार्वजनिक रूप से इस बात पर जोर दिया था कि गैरआदिवासियों को भूमि खरीद में सीएनटी एक्ट आड़े नहीं आने दिया जाएगा. रांची के एक दैनिक में छपे अपने एक साक्षात्कार में बागुन सोम्बरुई ने साफ कहा था कि झारखंड राज्य बना तो सीएनटी एक्ट बदल दिया जाएगा.
पर्यायी व्यवस्था हो...
आज महाराष्ट्र में आदिवासियों की जमीन संबंधी ‘महाराष्ट्र भूमि राजस्व अधिनियम 1966 की धारा 36(अ) शिथिल कर दी गई है. इसमें आदिवासियों की जमीन खरीदने से पहले उनके लिए पर्यायी व्यवस्था करने का प्रावधान कर दिया गया है. यह सब आदिवासी हितों की रक्षा के उद्देश्य से किया गया है. अब महाराष्ट्र के आदिवासी अपनी जमीन बाजार मूल्य पर बेच कर अतिरिक्त सुरक्षा पाने के अधिकारी बन गए हैं. लेकिन झारखंडी आदिवासी नेता और आदिवासी अधिकारी केवल अपने व्यक्तिगत हितों की रक्षा अर्थात आदिवासियों को आदिवासी के नाम पर लूटने के अपने हितों की रक्षा के लिए परेशान हैं.
-कल्याण कुमार सिन्हा,
नागपुर, महाराष्ट्र.