आई बाढ गयी
“ अजी सुनते हो उठो “ – सुलोचना ने किरसन के बिल्कुल कान के पास जाकर पुकारा ।
किरसन उर्फ कृष्ण ने आँखें खोलने की असफल सी कोशिश की पर नींद से बोझिल पलकें मानो चिपक गयी थी । वह चादर को सिर से पाँव तक खींच करवट बदल सो गया । सुलोचना ने अधीरता से झँकझोरा – “ उठो भी , बाहर देखो “।
कृष्ण ने घङी देखी । अभी सुबह के सवा चार हुए थे । आसमान अँधेरे की चादर ओढे सो रहा था ।
“ ऐसी भी क्या आफत है जो इतनी सुबह शोर मचा रही हो “ ।
सुलोचना को साँस सामान्य करने में पूरा जोर लगाना पङा – “ वो पाँवधोई आयी हुई है “।
“ भागवान ये पाँओधोई तो सदियों से यहीं है , शहर में पीढीयों से बह रही है । आज कहाँ से आयी “।
“ मेरा मतलब चढ गयी है ” ।
तब तक बाहर लोगों के चलने – दौङने ,बोलने की आवाजें सङक पर सुनायी देने लगी थी । सब सरपट एक दूसरे से होङ लगाए चले जा रहे थे खालापार पुल की ओर । कुरते के बाजू में हाथ डाल पैरों में चप्पल फँसाते वह भी बाहर की ओर लपके और भीङ में शामिल हो गये । पंद्रह मिनट का रास्ता दस मिनट में पार कर जब वह पुल पर पहुँचे तो नहाँ अच्छी खासी भीङ जमा हो चुकी थी ।
हमेशा मुश्किल से घुटनों तक पानी वाली पाँवधोई इस समय खतरे का निशान से ऊपर जा चुकी थी । पाँवधोई जिसके बारे में कई लोककथाएँ और जनश्रुतियाँ प्रसिद्ध हैं .।
जैसे पाँवधोई साक्षात गंगा जी का अवतार है ।
कि पाँवधोई का आदि - अंत आजतक कोई ढूँढ नही पाया ।
यह बाबा लालजी दास के कमंडल से निकली है इसीलिए उनके आश्रम के आसपास ही चुपचाप बिना शोर किए बहती है ।
बाबा लालजी दास सिद्ध पुरुष थे । रमते जोगी । एक दिन घूमते घामते सहारनपुर आ गये तब यह सकलापुर हुआ करता था । यहाँ शमशान के पास वाले बाग में उन्होने धूनी रमायी तो यहीं के हो गये । यहाँ के बङे शमशान के पास आज भी उनका बाङा स्थित है । बाबा का नियम था , हर रोज चार बजे अँधेरे में ही आठ कोस दूर गंगाजी में पैदल स्नान करने जाते । लौटते लौटते दस और कभी – कभी तो ग्यारह बज जाते । वापिस आ साथ लाये गंगाजल से शिव का जलाभिषेक करते । फिर प्रसादी तैयार होती ।तब आहार ग्रहण करते । तब तक जल भी नहीं । आँधी हो या तूफान यह नियम कभी नहीं टूटा ।
पर एक दिन बाबा से उठा ही नहीं गया । दो दिन से बुखार था लेकिन नित्यक्म जारी था । बाबा ने उठने की कोशिश की पर शरीर धोखा दे गया । सुबह गयी , दोपहर गयी , शाम भी जाने को हो गयी । बाबा ने अपनी सारी शक्ति बटोरी । अपनी छङी और कमंडल को आदेश दिया – जाओ गंगा से मेरे शिव के लिए पानी ले आओ । गंगा को कहना , हर रोज बच्चा माँ के पास आता था , क्या आज माँ नहीं आ सकती थी । छङी और कमंडल चल दिए । आधे घंटे बाद आगे आगे छङी आ रही थी , उसके पीछे कमंडल और उसके पीछे स्वयं गंगा मैया । बाबा ने जी भर गंगा में स्नान किया । जिस रास्ते से बाबा की छङी गयी थी , उस दरार से ढमोला नाम का बरसाती नाला शहर के दक्षिण में बहता है । उत्तर में जिस दिशा से लौटी उधर बहती है यह पाँवधोई । बाबा के कमंडल जितना जल है इसमें इसलिए पाँव ही बुङते हैं ।
साल में नगरपालिका दो बार इसकी सफाई कराती है । पहली बार बैसाखी से एक हफ्ता पहले क्योंकि बैसाखी पर लालदास के बाङे का नहान होता है । शहर के , आसपास के गाँवों के लोग गंगा स्नान का पुण्य लेने आते है । छोटे मोटे खेलखिलौने वाले अपनी दुकानें सजाने आते हैं । कुम्हार मिट्टी से कबूतर,मोर,राजा ,रानी ,चक्की और भी न जाने क्या क्या बना कर लाते है इस मेले के लिए । पूरा दिन खूब धूमधाम रहती है । सो निगम वाले भी सफाई के थोङा सा पुण्य लाभ ले लेते हैं ।
दूसरी बार यह सफाई होती है असौज की रामलीला के पहले । केवटलीला यहीं जो संपन्न होती है । बनवास लीला के बाद रामलीला भवन में रामलला की आरती होती है फिर राम , सीता और लक्ष्मण रथ पर सवार होते हैं । बैंडबाजों के साथ शहर के मुख्य बाजारों से होता हुआ रथ पाँवधोई के घाट भूतेश्वर मंदिर पर पहुँचता है । वहाँ साफ सुथरी पाँवधोई में सजी सँवरी नाव खङी होती है । रथ से उतर कर राम, लक्ष्मण और सीता नाव की ओर बढते हैं । सङक के दोनों ओर खङी भीङ जयकार कर उठती है , सियापति रामचंद्र की जय । राम के हाथ में माईक थमा दिया गया है । राम करुण स्वर में गुहार लगाते हैं – सुनो हो केवट भइया जल्दी लगा दो गंगा पार । केवट जल्दी जल्दी से अपने डायलाग बोलता है । भीङ साँस रोके खङी सुन रही है । अब केवट परात में पानी ले आया है । पैर धोये जा रहे हैं । केवट के बाद मैनेजमैंट के सदस्य बारी बारी से चरण पखार रहै हैं । आरती होती है । केवट कंधे पर उठा कर राम और सीता को नौका में रखी मैरेज पैलेस वाली कुरंसियों पर पधरा देता है । लक्ष्मण खुद चल कर आता है और राम सीता की कुर्सियाँ पकङ उन के पीछे खङा हो गया है । कीर्तनिए अभी गा रहे हैं – सुनो मेरे रघुराई लिए बिना उतराई कैसे ..। तब तक नाव में लगी रस्सी पकङ शहर के धनी मानी घुटनों घुटनों पानी में उतर गये हैं । रस्सी के सहारे नौका धीरे धीरे आगे बढती है । कुछ कदम दूर आगे रथ फिर खङा है । राम लक्ष्मण और सीता जयजयकार के बीच दोबारा रथ पर बैठ गये हैं । रथ कुछ देर बाद आँखों से ओझल हो जाता है तो भीङ आगे बढती है , जल से अपने ऊपर छीटा देती है ,आचमन कर मुक्ति के सपने देखती है । और प्रसन्नचित्त घर लौट जाती है । इन दोनों अवसरों के छोङ कर यह पाँवधोई शहर की पापधोई बन कर सारा साल पूरे शहर का मैला ढोती है । सारे शहर का गटर , नाले , नालियाँ इसी में समाते हैं ।
अगर यह पाँवधोई न होती तो पूरा शहर कचरे का बङा सा डिब्बा नजर आता - क़ृष्ण ने मन ही मन सोचा । वह अपनी दुकान संभालने बेहटरोड चल पङा है । हल्की हल्की बूँदे अभी भी पङ रही हैं पर लोग जमे हुए हैं वहीं पाँवधोई के तट पर । एकटक देखे जा रहे हैं पानी की रफ्तार । बीच धारा में अचानक किसी के घर का सामान डूबता उतराता गुजरता है । लोग सहम कर डर के मारे हाथ जोङ लेते हैं । बीच बीच में खबरों का आदान प्रदान भी चल रहा है ।
“ मोरगंज तो सारा डूब गिया । सारी आढत में इ पानी भर गिया ।
“ इब्ब सारा गेहूं , चावल बरबाद हो जावेगा “।
“ दालमंडी वाले पुल में भी पानी पानी हो गया “।
“ लाला गिरधारी ने दुकान पै जाकर देखा । शटर के नीचे से गुङ और शक्कर शरबत बन के बह रहे थे । लाला तो चक्कर खाके गिर गिआ । सुना हारट अटैक था “।
“ नक्खासा बजार में भी पानी पानी है “ ।
“ सुनी है , जे बलि लिए बिना नी जाती । पक्का बलि होती है , मेरे दादा बतावै थे “।
“ इसै नारियल भी तो चढाया करैं ”।
“ सही कहवै तू , चढै तो सही “।
बीस मिनट में ही कहीं से दो रेहङी पर नारियल आ गये । साथ ही रामरती मनिहारन भी अपनी टोकरी में बिंदी , टिकुली, सेनुर और चूङी सजाए पहुँच गयी है । सुहागनें पति और बच्चों की दुआ माँगती सूप भर चार चूङी ,सिंदुर , बिंदी , काजल खरीद रही हैं । जिसके पास पैसे नहीं हैं, घाट की दुकान बाले खन्ना अंकल अपनी कापी में लिख लिख के सामान दिलवा रहे हैं । धरम का मामला है । शाम को पैसे पहुँच जाएँगे । न पहुँचे तो हर दिन के पाँच रुपये ब्याज ।
औरतें बच्चों के सिर पर से पाँच बार घुमा के नदी में नारियल सिरा रही हैं । जिनके साथ बच्चे नहीं हैं ,उन्होने अपने ही सिर के ऊपर से नारियल फेर के नदी में बहा दिया है ।
“ हे गंगा मइया सावन में आई हो। बोहत हो ली । खुशी खुशी जाओ अब “।
थोङी सी देर में धारा में कई नारियल , फूल , चूङियाँ तैरते नजर आने लगे हैं ।
सुबह के चार बजे से अब दिन के बारह बजने वाले हैं पर भीङ ज्यों की त्यों है । भूख प्यास भुला इस समय सब पाँवधोई की लीला देखने में व्यस्त हैं ।
इसी भीङ में शंकर खङा है । सामने स्कूल की वरदी में सजी दो चोटियाँ झुलाती तीन लङकियाँ खङी हैं । पीठ पर भारी भरकम स्कूल बैग टँगा है पर उन्हें जैसे कोई परवाह ही नहीं .। बात बेबात ताली बजा कर हँसती खिलखिलाती जाती हैं । शंकर को पानी दिखाई नहीं देता । नदी का उफान भी नहीं । न ही लोगों के चेहरे पर चिपकी चिंता । दिख रहा है बस हँसी का कलकल करता झरना जो लगातार बह रहा है । रुकने का नाम ही नहीं ले रहा । गोरी लङकी हँसते हँसते टमाटर जैसी लाल हो जाती है । उसे लगता है पाँवधोई की बाढ से शायद वह बच जाए पर इस बहाव से बचना नामुमकिन है । बह गौर से देखता है । यह जो ज्यादा ही चुलबुली है , यह अपनी गली के समीर की बहन जैसी लग रही है । शायद वही या कोई और । वह अनिश्चय की स्थिति में है । सोच ही रहा है कि उसके कान अपनी ही आवाज से चौंक गये हैं ।
“ ए छुटकी तू आज स्कूल नहीं गयी “ ।
आवाज सुन वे तीनों घूम गयी है चुलबुली के साथ साथ गोरी भी – “ गये थे भैया जी पर सारे मटियामहल में तो पानी भरा है । बङी दीदी ने छुट्टी कर दी । रेनीडे हो गया आज “।
अब आगे क्या बोले , उसे समझ नहीं आता । एक बार तो डर भी गया अगर इन्होने मुझ से यही सवाल पूछ लिया तो । पर उसका डर अकारण निकला । वे फिर से अपनी बातों में मस्त हो गयी हैं । वह अकबका कर इधर उधर देखता है । किसी ने कुछ देखा सुना तो नहीं । पर किसी को उसे देखने की फुर्सत नहीं । एक ठंडी साँस ले के वह निश्चित हो गया है । अचानक उसके हाथ पैंट की जेब में चले गये । जेब में पाकेटमनी के रुपयों में से पचास रुपये अभी पङे हैं । उधर पानी है कि पुल को छूने लगा है । कोई कोई लहर पुल के ऊपर भी आ जाती है । दो चार शरारती लङके पुल के ऊपर वाले पानी पर छपक छपक करते दौङ पङे । लोगों के झुंड ने चिल्ला कर उन्हें रोकना चाहा , तब तक वे पुल पार कर गये । लङके अपनी जीत पर प्रसन्न हैं । उनका हौसला बढ गया है । वे फिर से इधर के लिए दौङ पङे हैं । ये उनके लिए खेल हैं । लोगों का विरोध फीका पङ गया है पर उनके माथे की लकीरे गहरा गयी हैं । औरतें आतुर हो उठी है । लङकियों की हँसी पर भी विराम लग गया है । वह लपक कर तीन पुङिया दाल - मोठ ले आया । एक अपने पास रख दो पुङिया उन लङकियों की ओर बढा दी । उसके आश्चर्य को बढाते हुए उन्होने पुङियाँ पकङ ली और खाना शुरु कर दिया । वह भी खाने लगा है । अबोला ज्यों का त्यों है ।
तभी वातावरण को चीरती एक चित्कार हवा में गूँज उठी है । पुल पर दौङते लङको में से एक शायद अपना वेग नहीं सँभाल पाया या किसी साथी का धक्का लग गया और वह नदी की उफनती लहरों में समा गया । जब तक कोई कुछ समझ पाता , वह आँखों से ओझल हो गया । हवा आहों और सिसकियों से बोझिल हो गयी है । पीछे वालों को कुछ दिखा नहीं तो आगे वालों से बार बार पूछ रहे हैं । “ भई का हुआ । का हुआ । हमऊ तौ बताओ । पर कोई कुछ बताने की स्थिति में कहाँ है ।
घाट के दोनों किनारों पर बोलते बतियाते लोग स्तब्ध हो गये हैं । हर तरफ सन्नाटा छा गया है । कोई किसी से बात नहीं कर रहा । लोग उचक उचक कर देख रहे हैं , शायद उस बच्चे का कोई निशान मिल जाए ।
अचानक एक ठंडी साँस भर किसी ने कहा
“ बङे सही कहते थे न । ये पाँवधोई जब आती है तब एक बलि अवश्य लेती है । ले ली न बलि “ ।
लोगों ने इधर उधर देखा । किसने कहा .? किसने ? कारण जो भी रहा हो पर अब का यही सच था । बेचारा लङका डूब गया । लोग गमजदा हो गये । बेचारे बच्चे ने शहर को पाँवधोई के प्रकोप से बचाने के लिए अपनी बलि दे दी थी । लोगों ने मान लिया कि बलि हो चुकी । इस बलि को लेने के बाद गंगा मैया शांत हो लौट जाएँगी । पानी अब कुछ घंटे और है । उसके बाद सब ठीक हो जाएगा ।
लटके हुए उदास चेहरे लिए सब लोग घरों को लौट पङे हैं । पत्नियों ने अपनी काँच की चूङियाँ और मोँओ ने अपने बच्चे अपने आँचल में छिपा लिए । अनदेखे ईश्वर से सबकी रक्षा करने की प्रार्थना भी कर ली ।
दुकानोंवाले ऊपर से शांत दिख रहे थे पर मन ही मन हुए नुकसान का हिसाब लगा रहे हैं । इंशयोरैंस वाले को क्या हिसाब दिखाना है , उसके क्यास लगाये जा रहे हैं ।
कृष्ण की दुकान ऊँची जगह बनी थी इसलिए नुकसान नहीं हुआ पर उसने भी लंबी सी लिस्ट बना ली है । मुआवजे का एसटीमेट लेने वकील के पास जा रहा है ताकि समय रहते एप्लाई कर सके । जो पीछे रह गया ,उसे कुछ नहीं मिलने वाला । कृष्ण जैसे सैंकङों जोग इस जुगाङ में लग गये हैं ।
शंकर अभी तक पाँवधोई की धारा देखने में ही खोया हुआ था । पानी उस लङके को अपने भीतर छिपा शरारत से मुस्कुरा रहा था । उछलती लहरें पहले से शांत दिख रही थी । उसने डबडबायी आँखों से पीछे मुङ कर देखा । उसका दिल धक से रह गया । लङकियाँ वहाँ से जा चुकी थी । उफ उसने तो उनका नाम तक नहीं पूछा । एक प्रेम कहानी का ऐसा अंत होता है क्या ।
बाढ में बहुत कुछ बह जाता है । फिर से नये जीवट के साथ पुनरनिर्माण होता है । लोग भी घरों की ओर लौट रहे थे । घर जहाँ जीवन है । उसी जीवन की ओर ।
धीरे धीरे पैर घिसटकर चलता हुआ वह भी लौटने वालों की भीङ का हिस्सा हो गया है ।
स्नेह गोस्वामी