ये कोई कहानी या लेख नहीं.... बल्कि एक सच्ची घटना हैं....। हम सभी ने अक्सर कभी ना कभी रिक्शा... ओटो रिक्शा... टैक्सी... टैंपो में सफर किया होगा...। लेकिन कभी कभी ये सफर हमारे लिए बहुत यादगार बन जाता हैं....। चंद मिनटों या घंटों का ये सफ़र हमें बहुत कुछ सिखा जाता हैं... बहुत कुछ दे जाता हैं...। ऐसे ही एक सफ़र की कहानी हैं..." रिक्शा वाला... "।
रक्षाबंधन..... भाई बहन के रिश्ते को एक आयाम देता प्यारा सा त्यौहार....। लेकिन अपनी शादी के बाद मुझे कभी मौका ही नहीं मिला ये त्यौहार अपने भाईयों के साथ मनाने का...। ससुराल की जिम्मेदारी और पतिदेव की काम की व्यवस्ता के चलते हर बार सिर्फ एक आस लेकर बैठ जाती....। लेकिन अठारह सालों बाद इस बार ना जाने कैसे पतिदेव जी तैयार हुवे...। टिकट एक महीने पहले ही बुक करवा दी थीं... अब दूसरे प्रदेश जाना था तो टिकिट्स का इंतजाम पहले ही कर लेना बेहतर होता हैं... वरना त्यौहार के समय परेशानी का सामना करना पड़ता हैं...। वैसे इतने सालों में हम पहली बार किसी त्यौहार पर मायके में जा रहें थे वो भी रक्षाबंधन के दिन तो उत्साहित होना तो लाज़मी हैं...। खैर वो दिन भी आया और वो वक्त भी जब हमें बस निकलना ही था अपने सफ़र पर...। हमारी ट्रेन रात दस बजे की थीं... जो अगले दिन सवेरे आठ बजे हमें छोड़ती..।
लेकिन इस बार कुछ कारणों की वजह से ट्रेन हमें हमारे शहर के मुख्य रेलवे स्टेशन से ना मिलकर एक छोटे से स्टेशन से पकड़नी थीं...। उसके बारे में मैं और पतिदेव जी बिल्कुल अंजान थे... लेकिन गुगल महाराज से छानबीन कर इतना तो पता कर लिया था की घर से वहाँ तक पहुंचने का समय लगभग एक घंटे का हैं...। फिर भी अंजान स्टेशन होने की वजह से हमने रात्रि आठ बजे ही निकलने का सोचा...। पतिदेव जी अपना जरुरी काम खत्म करने के लिए शाम सात बजे घर से निकले ये कहकर की आठ बजे तक आ जाएंगे सभी तैयारियां हम करके रखें...। हमने सभी पैकिंग और काम समय पर खत्म कर लगेज़ के साथ ऊपर पहली मंजिल से नीचे आ गए थे और पतिदेव का इंतजार करने लगे...। आठ बजने में अभी पांच मिनट ही थे की पतिदेव जी आए लेकिन उनके चेहरे पर चिंता की गहरी लकीर साफ़ दिख रहीं थीं...। घर में घुसते ही बोले जल्दी कैब़ बुक कर...। मेरी बड़ी बेटी बुकिंग करने लगी.... मैंने चिंता की वजह पूछी तो बोले बाहर आज हद से ज्यादा ट्रेफिक हैं... जगह जगह जाम़ लगा हुआ हैं....। कल मोहर्रम का त्यौहार था और कल रक्षाबंधन हैं.... शायद इसलिए आज इतना ज्यादा ट्रैफिक हैं....। ये सुन थोड़ी टेंशन तो हमें भी हुई.... उस पर मेरी बेटी की कही बात ने आग में घी डालने का काम किया... उसने कहा की कोई भी कैब़ बुक ही नहीं हो रही हैं.... बुक करके बार बार कैंसिल हो रहीं हैं...। पन्द्रह मिनट तक कोशिश करने के बाद भी जब बुकिंग नहीं हुई तो पतिदेव सोसाइटी से बाहर गए शायद कोई रिक्शा मिल जाए.... लेकिन सोसाइटी के बाहर ही मेन सड़क पर इतना ज्यादा जाम़ लगा हुआ था की कोई रिक्शा तैयार ही नहीं थीं..। दस मिनट बाद लगभग 8:25 को पतिदेव वापस आए और हम सबको साथ लेकर सोसाइटी के बाहर खड़े हो गए..... एक बार फिर से नाकाम कोशिश करने के लिए....। आखिर कार एक रिक्शा रुकी.... चलने को तैयार भी हुई लेकिन सिर्फ मेन टैक्सी स्टैंड तक जो हमारे घर से दस मिनट की दूरी पर था....। वहाँ खड़े रहने से तो हमने उस ओर जाना बेहतर समझा...। लगभग 8:35 को हम वहाँ पहुंचे...। उसके बाद वहाँ खड़ी और आने जाने वाली हर रिक्शा से हम पूछते रहें..... लेकिन ट्रैफिक की वजह से कोई भी जाने को तैयार ही नहीं था..। आखिर कार पतिदेव ने कहा मैं सड़क के दूसरी तरफ़ जाकर कोशिश करता हूँ.... तुम यहाँ कोशिश करो.... जिसको भी रिक्शा मिले फोन कर दे....। ऐसा कहकर पतिदेव सामान के और बच्चों के साथ मुझे सड़क के एक तरफ़ छोड़ कर चल दिए....। एक एक बितता मिनट हमारी चिंता को बढ़ाता जा रहा था.....। इसी कोशिश में 8:50 हो चुके थे..... अब तो मैं भी उम्मीद छोड़ चुकी थीं..... क्योंकि स्टेशन तक पहुंचने का रास्ता ही 55 मिनट का था..... जो ऐसे ट्रैफिक में पार करना नामुमकिन था....। मेरा सारा उत्साह अब आंसूओ में बदल चुका था....। मैं अपने बच्चों के उतरे हुवे चेहरे को देखकर ओर भी ज्यादा मायूस हो गई थीं...। मेरी दोनों बेटियां चार सालों से नानी के घर नहीं गई थीं..... मैं खुद दो साल पहले पापा के आकस्मिक निधन पर गई थीं...... सिर्फ दो दिनों के लिए....। टुटती उम्मीद के साथ साथ ऊपरवाले से दुआ भी मांग रहीं थीं की कुछ चमत्कार कर दो.....। लेकिन चमत्कार सच में हो जाएगा इससे उस वक्त अंजान थीं....। ना जाने मेरी कौनसी दुआ ऊपरवाले तक पहुंची ओर एक रिक्शा आकर रुकी....। मैंने गंतव्य बताया उसने हामी भर दी.... मेरी बेटी ने तुरंत अपने पापा को फोन किया ओर मैं रिक्शा में सामान रखने लगी....। सामान रखते वक्त मोबाइल में समय पर ध्यान दिया तो 8:55 हो चुके थे....। मैने सोचा हम शायद ही वक्त पर पहुंच पाए..... ये सोच मैंने रिक्शा वाले से कहा भईया....... हमारी दस बजे की ट्रेन हैं क्या हम वक्त पर पहुँच पाएंगे....!!
मेरी बात सुन उसने कहा :- रक्षाबंधन के लिए जा रहीं हो बहन....।
मैने कहा :- हां भाई...... अठारह साल बाद पहली बार जा रहीं हूँ लेकिन इतने ट्रैफिक की वजह से बहुत देर हो गई हैं....।
उसने कहा :- कोई नहीं..... मैं पहुंचा दुंगा.... आप बेफिक्र रहिये...।
उसके मुंह से ये शब्द सुनकर मानों मेरे भीतर एक उर्जा फिर से आ गई हो....। बच्चों के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान देख .... ऊपरवाले पर विश्वास कर हम सभी रिक्शा में बैठे....। बड़ी बेटी ने अपने मोबाइल में गुगल महाराज का मैप चालू कर दिया... हर एक मिनट.... हमारे दिलो की धड़कन को बढ़ा रहा था...। मुख्य सड़क पर ट्रैफिक होने की वजह से वो रिक्शा चालक तंग गलियों गलियों में से मार्ग की ओर बढ़ता जा रहा था....। लेकिन उस दिन ऊपरवाला शायद मेरे सब्र को पूरी तरह से आजमाने में लगा हुआ था...।
जिस स्टेशन पर हम जा रहें थे उस एरिया में तीन छोटे छोटे स्टेशन थे.... अब हमारी गाड़ी कौनसे स्टेशन से गुजरने वाली हैं इस बारें में हम अंजान थे..। एक मुख्य स्टेशन था.... एक फेज़ वन और एक फेज़ टू स्टेशन...। हमने मुख्य स्टेशन के लिए बोला था.... क्योंकि पतिदेव को दोस्तों से ऐसी ही जानकारी मिलीं थीं....।
रिक्शा वाले भाई ने भी मुख्य स्टेशन ही देखा था...। पचास की स्पीड.... तंग गलियों और तीन सिग्नल तोड़ने के बाद आखिरकार हम 9:55 को मुख्य स्टेशन पहुंचे....।
बिल्कुल छोटा सा स्टेशन था.... । हम अभी रिक्शा में ही थे की हमने देखा हमारी ट्रेन तो प्लेटफार्म से गुजर रहीं हैं....। पतिदेव भागते हुए इंक्वायरी पर गए.....। वहाँ से पता चला की इस गाड़ी का यहाँ स्टाप है ही नहीं ये गाड़ी फेज़ वन पर रुकने वाली हैं....और फेज़ वन का स्टेशन वहाँ से लगभग चार किलोमीटर की दूरी पर हैं...। हमारी उम्मीद एक बार फिर डगमगाने लगी.... लेकिन एक उम्मीद की किरण ये भी थीं की ट्रेन दस मिनट देरी पर वहाँ पहुंचने वाली थी...। पतिदेव जी ने रिक्शा वाले को पूरी बात बताई.... वो रास्ता नहीं जानते थे फिर भी उन्होंने हमें तुरंत बैठने को कहा.... और बोले :- टेंशन मत करो... ऊपरवाले पर भरोसा रखो....। उसने कुछ दूर चलने पर एक चाय की स्टाल के बाहर बैठे कुछ बुजुर्गों के पास रिक्शा रोकी और उन्हें पूरी जानकारी देकर रास्ता पूछा....। वहाँ बैठे सभी बुजुर्ग अपना अलग अलग रास्ता बता रहें थें...। निराशा और हताशा एक बार फिर से हम सभी को घेर रहीं थीं...। तभी एक बुजुर्ग चिल्लाया और बोला :- अरे क्यूँ उन्हें ओर ज्यादा परेशान कर रहें हैं...। देखो बेटा इन सब को छोड़ो पहले बताओ आपकी गाड़ी का नाम क्या हैं.... नंबर क्या हैं... कहाँ जाना हैं..!!
रिक्शा वाले भाई ने जब उन्हें बताया तो वो बुजुर्ग बोला :- अरे वो गाड़ी फेज़ वन पर नहीं फेज़ टू पर रुकती हैं और आज दस मिनट देरी से भी चल रहीं हैं... दस बजे हैं.... आप लोग एक काम करो सामने वाली पूल के नीचे से जाकर दाहिने तरफ़ मुड़ोगे तो सामने ही स्टेशन दिखेगा..। पांच मिनट लगेंगे... बिना समय गवाएं जाओ..।
रिक्शा वाले भाई ने कहा की इंक्वायरी में तो फेज़ वन पर बोला था..?
तब वो बुजुर्ग बोले :- मेरा विश्वास करो और जो बताया हैं वहां जाओ..।
हमारे पास उनकी बात मानने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था..। पतिदेव ने और रिक्शा वाले भाई ने उनको हाथ जोड़कर धन्यवाद दिया ओर उनके बताए रास्ते पर चल दिए...। हम सभी एक अंजान पर विश्वास करके एक उम्मीद लिए वहाँ पहुंचे...। रिक्शा वाले भाई ने अपनी रिक्शा की चाबी भी नहीं निकाली और पतिदेव से पहले भागकर इंक्वायरी पर गए...। वहाँ से वो मुस्कुराते हुए वापस आए ओर बोले :- हम सही जगह आए हैं.... वो बुजुर्ग सही थे...। गाड़ी अभी आई नहीं हैं...। शुक्र हैं हम समय पर पहुँच गए...। ये सुनकर हमने राहत की सांस ली...। उसके बाद उन भाई ने हमारा लगे़ज भी उठवाया और प्लेटफार्म तक छुड़वाया....।
पतिदेव ने रिक्शा वाले भाई साहब से हाथ मिलाकर उनको धन्यवाद दिया और उनके तय किराए से कुछ अतिरिक्त पैसे भी दिए...। वो भाई अतिरिक्त पैसे ले ही नहीं रहे थे.... पर फिर मैने बहुत रिक्वेस्ट की तब जाकर उन्होंने लिए....। अचानक ना जाने मुझे क्या सुझा.... बस दिल से एक आवाज आई तो मैने उनको एक मिनट रोकते हुए अपनी बैग में से ऊपर की तरफ़ जीप़ में रखी.... एक राखी निकाली और उनकी कलाई पर बांधते हुए कहा :- पता नहीं भईया..... आप किस रुप में हमसे मिले... हम फिर से कभी आपसे मिलेंगे भी या नहीं... पर आपको शुक्रिया कहने का इसके अलावा कोई ओर साधन नहीं हैं फिलहाल मेरे पास...। पतिदेव और मेरे बच्चे भी उनको बार बार धन्यवाद कह रहें थे...। पतिदेव ने उनको गले से लगाया और विदा किया....। वो शख्स चला गया...। वो किस रुप में हमारी मदद करने आया था पता नहीं पर इंसानियत और भगवान पर विश्वास एक बार फिर से बढ़ गया...।
उसके जाते ही अगले ही पल हमारी ट्रेन आई....।
लेकिन एक ओर इम्तिहान देना शायद अभी भी बाकी था... ।
दरअसल.... वो स्टेशन बहुत छोटा था.. सिर्फ दो ही रेल की पटरियां बिछी हुई थीं...। ट्रेन का कौनसा बर्थ कहाँ आने वाला हैं उसकी कोई जानकारी नहीं दिखाई दे रहीं थीं...और हुआ ये की हम जहाँ खड़े थे ट्रेन का इंजन हमारे पास आकर रुका....। हमारा बर्थ था S2.....।
यानि हमें इंजन....उसके बाद जनरल डब्बे... उसके बाद एसी के कोच....उसके बाद स्पेशल कोच उसके बाद S11 से लेकर S2 तक का लंबा सफर तय करना था...और मुश्किल ये थीं की ट्रेन वहाँ सिर्फ दो मिनट के लिए रुकने वाली थीं...। तीन लगे़ज...और बच्चों के साथ.....।
पतिदेव ने एक सबसे भारी लगे़ज लिया और दौड़ लगाई.... यहाँ तक पहुंचने में जो संघर्ष किया हैं अब उसे ऐसे गंवा तो नहीं सकते थे...। उन्होंने कहा एस के डिब्बे के पास पहुंचकर चढ़ जाना... चाहे नंबर कोई भी हो... । पतिदेव और मेरी गुड़िया ने एक एक लगे़ज लिया और बढ़ते गए... । मैं एक और लगे़ज के साथ और अपनी छोटी गुड़िया का हाथ थामकर भागने लगी..। हमें कैसे भी करके एस तक तो पहुंचना ही था...। लेकिन मैं ठहरी अस्थमा की मरीज... कुछ क्षण भागते ही मेरी सांस चढ़ने लगी...।
सच कहूं तो उस वक्त एक पल को मुझे ऐसा लगा शायद मैं नहीं पहुंच पाऊंगी...। क्योंकि मेरा अस्थमा का पंप पतिदेव जो बैग लेकर जा रहें थे उसमें रखा था....। मैने ना जाने क्या सोचकर अपनी छोटी गुड़िया को कहा :- बेटा तुम भागकर पापा और दीदी के पास चलीं जाओ....। उसने पहले तो मना किया पर मेरे जिद्द करने पर वो भागती हुई पतिदेव के पास पहुंच गई....। मैं अभी एसी बर्थ के पास ही पहुंची थीं...। जबकि पतिदेव और दोनों बेटियां एस तक पहुंचने ही वाले थे...। मैने कुछ पल रुककर हिम्मत जुटाई और फिर से भागने लगी...। हालत बद से बदतर हो रहीं थीं.... लेकिन हिम्मत नहीं हारी...। बस हांफते हांफते भागे जा रहीं थीं...। पतिदेव और दोनों बच्चियाँ एस 11 तक पहुँच कर उसमें चढ़ गए....।
मै अभी भी स्पेशल कोच तक ही थीं.... तभी मैने देखा मेरी बड़ी बेटी दौड़ती हुई मेरी तरफ आ रही थीं... वो मेरे नजदीक आई और मेरे हाथों से बैग लेकर मुझे सहारा देकर मेरे साथ चलने लगी...। कुछ कदमों की दूरी तय करते ही हमने सुना तो ट्रेन का सायरन बजा...। मेरी बेटी ने कहा मम्मी भागों बस हम पहुंचने ही वाले हैं...। मैं पूरी जान लगाकर उसका हाथ थामकर भागी और किसी चमत्कार की वजह से ही ये संभव हो पाया की हम दोनों ट्रेन की स्पीड बढ़ने से पहले एस 11 में चढ़ गए....।
कुछ मिनट मैं वही बेसुध सी बैठी रहीं..। आंखों से आंसूओ की धार बहने लगी...। पतिदेव को कहकर मैने बैग में से अपना अस्थमा का पंप निकलवाया... । वो लेकर कुछ मिनट राहत लेकर हम सभी अपने बर्थ की तरफ़ बढ़ने लगे...। एस 11 से एस 2 तक की दूरी तय करने के बाद हम फाइनली अपनी सीट पर पहुंचे...। सीट के नीचे सामान सेट करके हम सभी ने राहत की सांस ली...।
अपने आज तक के जीवन में मैने ना जाने कितनी बार ट्रेन का सफर किया हैं... लेकिन आज तक ऐसा सफ़र कभी नहीं किया...। जिसकी शुरुआत ही मुश्किलों से भरी हुई थीं...।
आजतक ना जाने कितने ही रिक्शा वाले मिले... कितना सफ़र रिक्शा में किया.... लेकिन कभी ऐसा चालक.... नहीं मिला...।
हमारे सफ़र को सही अंजाम तक पहुंचाने में उनका बहुत बड़ा योगदान था...। मैं ना तो उनका नाम जानती हूँ... ना ही ठिकाना.... लेकिन ऐसे लोगों की वजह से ही इंसानियत आज भी जिंदा हैं...।
कुछ लोग शायद उसे गलत भी कहेंगे क्योंकि वो लिमिटेड स्पीड से ज्यादा पर रिक्शा चला रहा था... उसने कुछ सिग्नल भी तोड़े... लेकिन अगर उस वक्त वो ऐसा नहीं करता तो इस बार भी मैं अपना त्यौहार भाईयों के बिना ही मनाती... और फिर उसने ये सब पैसे के लिए किया या किसी मजबूरी की वजह से... लेकिन इसमें कही ना कही मेरा ट्रेन तक पहुंचना ही मुख्य कारण था...। ना उसने किसी का गलत किया ना कोई टक्कर या नुकसान..... सिर्फ मुझे वहाँ पहुंचाने के लिए सब कुछ किया...। उसके लिए मैं उनको दिल से धन्यवाद देतीं हूँ...। पता नहीं मेरी ये बात कभी उन तक पहुंचेगी या नहीं.. कभी उनसे फिर मिलुंगी या नहीं... जाते जाते बस इतना ही कहुंगी.... थैंक्यू सो मच भईया....थैंक्यू सो मच....। 🙏🙏