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जलता हुआ पंजाब......... एक घटना

25 फरवरी 2023

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                                 हम सभी इस घटना से पहले भी समाचार पत्र के लेखों में पढ़ चुके हैं आज हम  सभी इस  घटना को पढ़ते हैं। पंजाब  के  हर चुनाव में बिजली, पानी, बीजों, ग्राह्यों पर सब्सिडी की बढ़ती जाती है। पिछले चुनाव में तो पंजादा राज करने वाले किसान परिवारों के लिए पार्टी ने मुफ्त समझौता तककी घोषणा कर डाली थी। सोचिए तो जरा कृषि के मज्य में कि  सानों के लिए ही मुफ़्त समझौता की घोषणा!पंजाब की धरती को कोयला बनाने के लिए अब पराए हाथों की जररत नहीं। म अब लगातार उस धरती के लिए हम लोग ही कर रहे हैं। सदियों से किसानों को यहां की धरतीपुत्र माना जाता रहा है। लेकिन मान्यता तो बाजार के दौर में शायद शो-रूम में लगे जालों सी दिखती हैं, इसलिए जल्दी ही हटा दिए गए हैं। पंजाब का किसान भी अब इन फोकट विचार से मुक्त हुआ है। वह एक साल में दो बार अपनी पृथ्वी को उसी को आग के बारे में निर्धारण कर देता है, जिससे वह साल भर में अपने परिवार के भरण-भार के लिए परिणाम प्राप्त कर लेता है। अब पंजाब की कृषि योग्य भूमि कई-कई पूरे दिन धूल-धूसरित जलती रहती है। डराने ने स्पष्टाड़ो में तो काफी तत्त्व जलते हैं लेकिन सच में तो प्लेटकी लाइव लाइसेंसिंग शक्ति ही जलती है। पंजाब का पानी तो कई सालों से सुलगते कोयलों ​​पर ही है, अब इंतजार करता है तो उसका छन से उड़ जाना भर का ही है।

 

                   साल में दो बार अपने खेतों को आग के बारे में पहचानना यह सुनिश्चित करता है कि आने वाले वर्षों में हम पंजाब की पूरी पृथ्वी को ही आग के बारे में पहचानते हैं। 'हरित क्रांति' की शुरुआती पोस्टचाप के दिनों में सिर्फ धान का ही भूसा लिखने की रीत डाली गई। लेकिन बाद में गेहूं की पराली को (भूसा) भी आग लगने लगी। कारण बताया जाने लगा कि भूसे की अधिक मात्रा के कारण अनाज की परेशानी से परेशानी होती है। फिर अगली सफलता के लिए धरती को तैयार करने में भी यह खड़ा हुआ भूसा संकट डालता है।

 

थोड़ा पीछे लौटें। भूसे से पहले यहां हमारे खेत में रुक-रुक कर जलते हैं। पिछले कुछ वर्षों से पंजाब में फसल काटने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर हारवेस्टर मशीन आ गई। मशीन से फसल की बाली, दाने कटते हैं, वहीं घनघोर छूट मिलती है। इतने खतरनाक ट्रक काटने के लिए बने हैं, जाम लगाने को नहीं।

                       फसल  जब हाथ से कटती है तो दरांती नीचे से घनघोर कटती है। जड़ों का लटकन में हल चलाकर पलट दिया जाता है इस तरह खेत को वापस प्राकृतिक रचना, तत्त्व मिलते रहते थे।      अब हारवेस्टर ऊपर-ऊपर से दाना, बाली नोंच लेते हैं, स्टैंड रह जाते हैं घनघोर। हरित क्रांति से पहले पंजाब में नतीजा से बचाए गए हिस्से को सबसे कीमती माना गया। पालतू जानवरों का काम आता है। चारे में, सअअक


ब एक तो पशु वहां से बच सकते हैं। टैक्ट्रर आ गए हैं। फिर जो हैं वो भी कारखाने में बने पशु आहार पर पलते हैं और क्रिया से दूध देते हैं। ऐसे खेत में घनघोर जलते हैं खलियान में भूसे के ढेर। पूरा पंजाब धू-धू कर जलता है। बेशक चिंतक कुछ भी कहते हैं लेकिन पंजाब में कांग्रेसी और अकालियों की टॉम एंड जेरी टाइप सरकारें ऐसे छोटे मोटे मैमोरेंडमों के इस ओर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देना चाहतीं। सिर्फ लालच का पर्याय बन चुके किसानों की नई पौध और किसान संघ भी अब यही अनुरोध है कि पराली जलने के अलावा और कोई उपाय नहीं बचाना है। उनका यह भी कहना है कि बहुत अधिक भूसे को ठिकाने लगाने या खेतों में खपाना संभव नहीं है, खास तौर पर व्हीट के झाड़ को कई दिनों में खेतों में छलनी रखना संभव नहीं है क्योंकि यह जल्दी सड़ा नहीं है।


साल में दो बार अपने खेतों को आग के बारे में पहचानना यह सुनिश्चित करता है कि आने वाले वर्षों में हम पंजाब की पूरी पृथ्वी को ही आग के बारे में पहचानते हैं। 'हरित क्रांति' की शुरुआती पोस्टचाप के दिनों में सिर्फ धान का ही भूसा जलने की रीत डाली गई। लेकिन बाद में गेहूं की पराली को भी आग के बारे में पता चलने लगा।मौसमों के साथ तालमेल बिठाकर अगली सफलता निर्धारण का जो संयम हमारे पुरखों में था, वह अब बचा नहीं है। इस संयम की कमी के शिकार राज और समाज दोनों ही हैं। यहां जीवन की प्राथमिकताएं बदली गई हैं। अब खेती बाड़ी से जुड़े लोगों को घास-फूस, खेतों की मेंढ पर रुकें, धरती के दोस्तों में अंधेरों में, किसी में भी जीवन छलकता दिखाई नहीं देता। सच तो यही है कि अब हम इन्हें नहीं समझते हैं।

पंजाब की तरह ही आज दुनिया के वे देश भी इसी आंच से तपते नजर आ रहे हैं तो अक्ल कर्ज लेने के मुगलते में हम हमेशा रहते हैं। पिछले दिनों भी अवरुद्ध की खबरें आईं, उनका भी सबसे बड़ा दरिया सूख गया। धरती की जान शायद दुनिया के हर अंग से छीजती जा रही है। विकसित तकनीकों से बेशक हम चतुर-सुजान हो रहे हैं लेकिन प्रकृति निरंतर ओझल होती जा रही है। प्रकृति की उदास और हमारे लालच को उसी पैमाने से नापा जा सकता है कि दुनिया के अधिकतर देश अब अपनी-अपनी प्राकृतिक संसाधनों को गिनने में जुटे हैं।

 

ऐसी कई चीजें होती हैं जिनके लिए वैज्ञानिक, विश्वविद्यालय और शोध केंद्रों की आवश्यकता नहीं होती। अगर रिकॉर्ड बची हैं तो बहुत कुछ प्रत्यक्ष, प्रमाण सहित दिखाई देता है। पंजाब के पर्यावरण के संबंध में कोई भी घटना जितनी तेजी से बदल रही है और बदल रही है उसके लिए न तो विश्लेषण की जरूरत है न वैज्ञानिक गवाहों की। साधारण जन भी खतरों की इन बजती घंटियों को सहज ही सुन सकते हैं। आज पंजाब में जहां भी नजर दौड़ाओ सबूत और साफ साफ नजर आएंगे। खेत सुलग रहे हैं, खेतों की मेढ़ पर कतार की जड़ें कटी हुई पेस्टीसाइड्स के कारण सड़ा जा रही हैं। कई प्रजातियों में फूल-फलियां आना बंद हो गई हैं। अगले तीन महीने बाद जलती पराली पंजाब का सगुण और निर्गुण दोनों ही जला रहा है।

 

सब ओर मची भगदड़ के बीच पंजाब की जल्दी कुछ ज्यादा ही दिख रहा है। धरती का पूरा सत निचोड़ने की जल्दी, सत निचोड़ अपना गांव, कस्बा, शहर छोड़ विदेश जाने की जल्दी। इसी भागमभाग के कारण आज पंजाब के लगभग तीस गाँव ऐसे हैं जहाँ केवल वृद्ध ही बचे हैं। यहां सभी के नौजवान डॉलर की चाह में विदेश पहुंच गए हैं। जो छोटे मंझले कृषक परिवार खेती बाड़ी से बंधे भी हैं तो यह खेती उनकी जी का जंजाल बन चुकी है। ये घटते हुए बढ़ते हुए असर से लगातार दूर होते जा रहे हैं। तीस पर कृषि व्यवसायी, ऋणदाता, सरकारें सब उनकी झोलीछीजते रहते हैं। इसलिए पंजाब के प्रत्येक चुनाव में बिजली, पानी, बीजों, ग्राहियों पर सब्सिडी की बढ़ती जाती है। पिछले चुनाव में तो पंजाब में सबसे ज्यादा राज करने वाले किसान परिवारों के लिए छत की पार्टी में मुफ्त डील की घोषणा कर डाली थी। सोचिए तो जरा कृषि के मॉडल राज्य में किसानों के लिए ही मुफ़्त समझौता की घोषणा!

 

पंजाब का साधारण किसान आज सरकारी फाइल से लेकर बिजली के जीरो फील के बल्व तक सिर्फ ठगा ही ठगा है। यह किसान अब पगड़ी संभाल के बजाय दिन-ब-दिन गर्दन पर चढ़कर बोझ को उठाने का अभ्यास करता है। उन्हें सहज है कि इसी बोझ को संभालने के अभ्यास में किसी भी भाई की 2500 गर्दनें टूट चुकी हैं। लेकिन फिर भी वह 'हरित क्रांति' की इस काली सुरंग से शुरू होने की बजाय और अधिक भ्रमित होने वाला है। इसी बोझ के मारे, दूसरों से आगे दुर्घटना की भयावहता में धरती को लगातार दुहने की जल्दी में, पराली फुंक-फुंक कर जा रहा है।

 

कुछ साल पहले तक हर तरह का भूसा ग्रामीणों का अनाज कर्ज था, लेकिन ट्रैक्टर, हारवेस्टर आने के बाद पहले से ऊगी उन जलन की भी उखड़ने लगीं जो धरती में जमीं ही भीतर ही धरती को उजागर करते रहते हैं। दृश्यों को अब प्राकृतिक कर की जरूरत नहीं समझी जाती। पंजाब की ज्यादातर चक्कियों पर अधिकारियों के लिए पीसे जाने वाले चारे में बूचड़खानों से आया हड्डियों का चूरा और पांवटा साहिब की तरफ से आने वाला नर्म पत्थर पीसकर चला जाता है। किसी से दूध दुहने की सरल प्रणाली तो टीकाकरण को ही मान लिया गया है।


पृथ्वी को आग के बारे में जानने से कई प्रश्न प्रासंगिक हैं। पहला सवाल तो धरती के बेटों से ही पूछा जाना चाहिए कि जो धरती उनके परिवार की रोजी रोटी है, वह उन्हें आग क्यों लगाता है? दूसरे कामों में लोग अपने-अपने कामों की पूजा-अरदास करते हैं। तो फिर क्या फल देने वाले चबूतरे को, बछड़ा, बछड़ी देने वाले गायों को भी यूं ही आग के चश्मे देना चाहिए?साढ़े पांच लाख ट्रैक्टर वाले प्रदेश में टीका लगाकर उगाई गई पांच फुट की मूल को देने वाले पुरस्कार वाले कृषि विश्वविद्यालय के आधुनिक खेती के चंद बुद्धिजीवियों का ऐसा मानना ​​है कि अब पंजाब के 90 प्रतिशत किसान के पास ट्रैक्टर हैं तो अब बैलों की, सांडों की क्या आवश्यकता है। इन निकटतम बूचड़खानों में भेज देना चाहिए। यह बेहद दुख की बात है कि अतिरिक्त भूसा दिखाई देने के बजाय इसे उन राज्यों में भेजा जा सकता है जहां आज भी छोटे किसान पशु आधारित कृषि पर अपना जीवन यापन कर रहे हैं। लेकिन ध्यान केंद्रित करने वाले बयान और राज्यों की अपनी-अपनी तीखी नाक के कारण कोई भी राज्य अपने पड़ोसी के लिए सहाई होना नहीं चाहता।

 पराली के आड़ में धरती पर फंकने के इस व्यवहार के प्रति सरकार, प्रशासन के ग्रैब्रिट कहीं नहीं दिखते, स्मॉल-मोटे मैमोरेंडमों के भी फेसबुक वाले मित्र के कारण कुछ बड़ी खबरें बनती हैं। लेकिन कष्ट निवारण की कोशिश छोटे ही रहते हैं। कहीं-कहीं कोई कूद अधिकारी अपने निजी संकल्प के कारण अपने संस्कारों पर बिना पैर धरे कुछ प्रयास जरूर करता है लेकिन अधिकतर नेता बटे नेता ही जीवित रहता है। राजनेता भी अपने चुनावी घोषणा-पत्रों की स्लेट अपने वोट बैंक के कारण अपने ठिकाने से रखते हैं क्योंकि पास देश के सभी दुखों की एक ही दवा है। वोट के कारण वे मरने वालों को भी नाराज नहीं करना चाहते। इसलिए प्रशासन भी 'जाने भी दो यारो' जैसा सब कुछ याद रखता है पृथ्वी को आग के बारे में जानने से कई प्रश्न प्रासंगिक हैं। पहला प्रश्न तो पृथ्वीपुत्रों से ही पूछा जाना चाहिए कि जो पृथ्वी उनके परिवार की रोजी-रोटी है, वह उन्हें आग क्यों लगाता है? दूसरे कामों में लोग अपने-अपने कामों की पूजा-अरदास करते हैं। तो फिर क्या फल देने वाले चबूतरे को, बछड़ा, बछड़ी देने वाले गायों को भी यूं ही आग के चश्मे देना चाहिए? क्या गड़बड़ है पंजाब के किसानों के ही संस्कार? सरबत की बुराई चाहने वाला यही किसान आज कितनी सहजता से रात को भूसे के ढेर में माचिस की तिली फेंक कर जाता है। अब तो इन फंसी हुई तिलियों के कारण पड़ौसी की सफलता, घर, मनोरंजन तक खबर की खबरें अक्सर आती रहती हैं। फसल चरचरा के बाद पराली का रंग पंजाब का आकाश धुएं से काला हो जाता है। अब हरे-इंकलाब, हरित क्रांति का सार तत्व यह है कि पंच आब, पांच नदियों के नाम पर बने पंजाब में अब छुआ नदियां तो जहरीली हो चुकी हैं। तीन मिट्टी वर्ष में दो बार जलकर स्वाहा, राख हो रही है। पेस्टीसाइड के जहर के कारण देग और तेग की शान का यह क्षेत्र अब देश में जहर तैयार कर रहा है। लगभग 6 लाख सबमर्सिबल, सिंचाई पंपों के शेर-शय्या पर टिकी पंजाब की धरती निसाह-उदास सी दिखने लगी है। शून्य का उजाड़ और कुछ नहीं, मिट्टी, पानी, जानवर, हरियाली और शुद्ध हवा का जलना ही होता है। शून्य का उजाड़ एल.सी.डी. डीएमआरसी या शराब की पकड़ में नहीं आता। कुछ चिंताशील लोगों को, जो पंजाब की मिट्टी, पानी, हवा के लिए अदालत के दरवाजे खटखटाते हैं, वे डाकिया होंगे कि प्रकृति के उपकार होते हुए कानून से नहीं बचा सकते। परमात्मा के उपकार तो कार-सेवाओं से ही बचाए जा सकते हैं और कार-सेवाएं भी तभी फलीभूत होती हैं जब सरबत के बावजूद डॉलर-मोह की बजाय कोई भौतिक श्रद्धा बची हो। पंजाब का धूल-धूसर जलता सगुण और निर्गुण अब शुद्ध मन से ही बचा रह सकता हैसच तो यही है हम सभी देशवासियों को अपने प्रांत और अपने शहर के साथ सोच रहती है जबकि हम सभी की सोच मानवता और जनहितार्थ के साथ साथ देश के साथ दायित्व और सेवाभाव होना चाहिए। जैसे हमारी सेना के लिए देश एक है और समानभाव की सोच होती है

आओ हम सभी पंजाब की घटना को अपने समझ से सोचे और देश के साथ दायित्व और सेवाभाव के साथ हो।

मीनू द्विवेदी वैदेही

मीनू द्विवेदी वैदेही

बहुत सही कहा आपने सर सुन्दर लिखा है आपने 👌 आप मेरी कहानी पर अपनी समीक्षा जरूर दें 🙏

9 अक्टूबर 2023

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रचनाएँ
जलता हुआ पंजाब
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जलता हुआ पंजाब के अर्थ और अनर्थ का सहयोग और दुखद घटित होता है क्योंकि हमारी जरा सी नासमझी का कोई फायदा उठा रहा है आओ देश हितार्थ हम अपने भारत का विकास करे।
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                                 हम सभी इस घटना से पहले भी समाचार पत्र के लेखों में पढ़ चुके हैं आज हम  सभी इस  घटना को पढ़ते हैं। पंजाब  के  हर चुनाव में बिजली, पानी, बीजों, ग्राह्यों पर सब्सिडी की ब

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