दलबदल कानून के औचित्य पर सवाल
-जयसिंह रावत
उत्तराखंड की ताजा राजनीतिक उथल पुथल और अवसरवादिता की पराकाष्टा के बाद दल-बदल विरोधी कानून की उपयोगिता पर एक बार फिर सवाल खड़ा हो गया है। मौजूदा परिस्थितियों में इस कानून की भावना का सम्मान तो हो नहीं रहा, मगर राजनीति के खिलाड़ी अपनी-अपनी सुविधाओं के अनुसार उसका चीरहरण अवश्य कर रहे हैं। राजनीति में सुचिता और स्थिरता के उदेश्य से दशकों की माथापच्ची के बाद बनाये गये इस कानून में आज भी इतने छेद रह गये हैं कि इसकी मूल भावना ही उन छेदों से रिस कर बाहर निकल रही है। नतीजतन राष्ट्रीय राजनीति में कदाचार और अवसरवादिता का बोलबाला बढ़ता जा रहा है।
राजनीतिक स्थिरता के लिये ही दलबदल कानून बनाया गया था और समय के साथ उसमें आयी खामियों को भी दूर करने का प्रयास किया गया। मसलन
1985 के कानून में दल विभाजन के लिये कम से कम एक तिहाई सदस्यों के अलग होने की बाध्यता थी तो 2003 में बाजपेयी सरकार द्वारा उसे और अधिक कठोर करते हुये विभाजन के लिये सदस्यों की संख्या दो तिहाई कर दी गयी। मतलब यह कि अगर दो तिहाई से कम सदस्य अलग होते हैं तो दलबदल कानून के तहत उनकी सदस्यता जाती है। लेकिन उसके बाद भी मकसद हल नहीं हुआ। उत्तराखंड में सत्ताधारी कांग्रेस के विधायकों की संख्या 36 थी तो विभाजन के लिये बागियों की संख्या कम से कम 24 होनी चाहिये थी। लेकिन यहां तो मात्र 9 बागियों ने निष्ठा बदल कर सरकार गिरा दी। इनको ह्विप का उल्लंघन करने की सजा तो बाद में मिली लेकिन उन्होंने सरकार तो पहले ही गिरा दी। दलबदल की सजा का फैसला भी अदालत पर निर्भर है। इस स्थिति में राजनीतिक स्थिरता की कल्पना और विधायकों की खरीद फरोख्त न होने की कल्पना भी कैसे की जा सकती है? इस कानून में यह कहीं नहीं लिखा है कि ह्पि का उल्लंघन करने पर या दल का विरोध करने पर तत्काल सदस्यता चली जायेगी। इस कानून में यह भी कहीं नहीं लिखा है कि सदस्यता का मामला कोर्ट में चला जाय तो उसका फैसला जल्दी या किसी समय सीमा में होना है। एक बार सरकार गिरा दो और फिर लम्बे समय तक बर्खास्तगी का फैसला टलवाते रहो। दरअसल हमारा संसदीय लोकतंत्र सन् 1967 से लेकर अब तक निरंतर दलबदल की बीमारी का संवैधानिक निदान ढूढने का प्रयास कर रहा है, मगर दो संविधान संशोधनों के बावजूद देश को एक “फूल प्रूफ” निदान नहीं मिल पा रहा है। उत्तराखंड के ताजा घटनाक्रम पर अगर गौर करें तो कानून राजनीतिक हालात और राजनीतिक कुचक्रों के आगे लाचार नजर आ रहा है। कुल मिला देखा जाय तो हर एक पक्ष दलबदल कानून को अपनी सुविधा के हिसाब से मरोड़ रहा है। इसे राजनीति के दरबार में कानून का चीर हरण कहा जाय या महाभारत के युद्ध में अकेले फंसे अभिमन्यु के वध पर सात महारथियों का जैसा अट्टाहस ?
बात केवल उत्तराखंड की नहीं है। उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, गोवा और हाल ही में अरुणाचल समेत कई प्रदेशों में दलबदल काननू के परखचे उड़ चुके हैं। एक बार उत्तर प्रदेश में बसपा के 13
विधायक टूट कर मुलायम सिंह सरकार के साथ खड़े हो चुके थे। बाद में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उनकी सदस्यता समाप्त हुयी। हाल ही में अरुणाचल में दलबदलुओं ने अपनी अलग सरकार बना ली। जबकि झारखंड में एक निर्दलीय विधायक मुख्यमंत्री बन कर भ्रष्टाचार के रिकार्ड तोड़ गया।
नैतिक मूल्यों और राजनीतिक मर्यादाओं के अवमूल्यन के चलते राजनीतिक दलों के सदस्य क्षुद्र स्वार्थ तथा पद्लिप्सा के लिये गिरगिट की तरह कभी भी अपना राजनीतिक चोला बदल रहे हैं। उनको अपना राजनीतिक आराध्य और निष्ठा बदलने में कोई संकोच नहीं होता। दलबदल विरोधी कानून के बावजूद विभिन्न प्रदेशों में आज राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता का महौल व्याप्त हो रहा है। उत्तराखंड, झारखंड और गोवा जैसे छोटे राज्यों की स्थिति तो और भी अधिक तरल हो गयी है। इस आयाराम -गयाराम की राजनीतिक संस्कृति के दुष्प्रभावों के कारण सरकारों की स्थिरता और राजनीतिक सुचिता प्रभावित हो रही है। सरकार गिराने और बचाने में ही सारा ध्यान केन्द्रित होने के कारण जनहित और समाज हित के कार्य गौण हो गये हैं। भ्रष्टाचार भी चरम पर पहुंच गया है।
21 मार्च 1968 को तत्कालीन गृह मंत्री यशवंतराव बलवंतराव चह्वाण ने लोकसभा में दलबदल पर चल रही चर्चा के दौरान कहा था कि “दलबदल का यह रोग एक राष्ट्रीय व्याधि का रूप धारण कर चुका है, जो हमारे लोकतंत्र के प्राण तत्वों को अंदर ही अंदर खाये जा रहा है।” चह्वाण दलबदल रोकने के प्रयासों के तहत गठित पहली समिति के अध्यक्ष थे। चह्वाण समिति ने अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया था कि “श्रेष्ठ से श्रेष्ठ विधायी अथवा संवैधानिक उपाय तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक कि विभिन्न राजनीतिक दल इनके अनुरूप मूल राजनीतिक नैतिकता की आवश्यकता को स्वीकार न करें, सार्वजनिक जीवन के कुछ औचित्यों और शालीनताओं का पालन स्व्ीकार न करें, और एक दूसरे के प्रति, और अंतिम विश्लेषण में इस देश के नागरिकों के प्रति अपने दायित्वों और कर्तव्यों को स्वीकार न करें”। चह्वाण की वह आशंका आज सही साबित हो रही है।
वास्तव में राष्ट्रीय व्याधि का रूप धारण कर चुके दलबदल को रोकने के प्रति जब तक राजनीतिक दल संजीदा और ईमान्दार नहीं होते तब तक इस रोग से मुक्ति मिलना संभव नहीं है। मुक्ति मिलेगी भी कैसे राजनीतिक दल अपनी सहूलियत के हिसाब से सदाचार और कदाचार की परिभाषाएं पल-पल में बदलते रहे हैं। राजनीतिक दल अपनी सहूलियत के हिसाब से नैतिकता की परिभाषा गढ़ रहे हैं। दरअसल भारत की संसदीय प्रणाली के इतिहास में दलबदल की शुरुआत जब से शुरू हुयी तभी से राजनीतिक दलों द्वारा इस पर अंकुश लगाने के लिये कानून बनाने की मांग भी की जाने लगी थी। विभिन्न दलों की चिंताओं को ध्यान में रखते हुये सबसे पहले इसके खिलाफ 8 दिसम्बर
1967 को एक संकल्प पारित हुआ और उसके बाद 11 अगस्त 1968 को लोकसभा में पी.वैंकट सुबैय्या द्वारा एक गैर सरकारी संकल्प पेश किया गया जो कि 8 दिसम्बर 1968 को पारित हुआ। उसी संकल्प के आधार पर तत्कालीन गृहमंत्री चह्वाण की अध्यक्षता में 19 सदस्यीय समिति का गठन किया गया जिसमें अटल विहार बाजपेयी और जय प्रकाश नारायण जैसे धुरंधर नेता भी शामिल थे। लेकिन इस समिति के समक्ष रखे गये प्रस्तावों पर सदस्यों में ही तीब्र मतभेद रहा। उसके बाद 1971 में भागवत सहाय समिति का गठन किया गया। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर 16 मई 1973 को लोकसभा में 32वां संविधान संशोधन रखा गया जो कि सदस्यों के तीब्र विरोध के चलते पारित न हो सका।
कांग्रेस के बाद जनता पार्टी की सत्ता आयी तो उसने भी दलबदल के खिलाफ कदम उठाने का प्रयास किया। उसने 15
महीनों की तैयारी के बाद 48वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया जो कि लोक सभा में कुछ घंटे भी नहीं टिक पाया। ग्यारह बार पार्टियां बदलने वाले हरियाणा के एक नेता गयालाल राम जैसे दलबदल के आदी नेताओं पर लगाम कसने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी
1985 में दलबदल कानून लाए थे। इसके लिये विपक्षी दलों के सहयोग से राजीव गांधी ने लोकसभा में 52वां संविधान संशोधन पेश किया जो कि जनवरी 1985 में पास हो गया। इस संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 102 और 191 में संशोधन करके यह प्रावधान कर दिया गया कि 10वीं अनुसूची के अधीन निर्याेग्य घोषित हुआ व्यक्ति संसद तथा विधान मंडल की सदस्यता के लिये अयोग्य होगा। इस विधेयक के द्वारा संविधान में 10 वीं अनुसूची अन्तः स्थापित की गयी। हालांकि यह भारतीय राजनीति के इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ था, लेकिन अवसरवादियों ने इसमें भी छेद निकाल लिये और दलबदल अनवरत जारी रहा। इसके प्रावधानों के अनुसार कम से कम एक तिहाई सदस्यों द्वारा दल छोड़ने पर ही दल का विभाजन माना जाता था और इस पैमाने पर हुये विभाजन के बाद ही मूल दल छोड़ने पर संसद या विधानमंडल की सदस्यता बच सकती थी।
कानून का यह दुरुपयोग देखकर चुनाव सुधार समिति, विधि आयोग, संविधान समीक्षा आयोग के कान खड़े हुए और उनकी सिफारिश पर वर्ष
2003 में संशोधन हुआ कि एक तिहाई की जगह जब दो तिहाई सदस्य पार्टी से टूटेंगे तभी उसे कानूनन पार्टी की टूट माना जाएगा। राजीव सरकार द्वारा लाये गये 1985 के कानून को अपर्याप्त मान कर सन् 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल विहार बाजपेयी की सरकार के कार्यकाल में संविधान का 91
वां संशोधन पारित हुआ जिसमें मूल दल से अलग होने की स्थिति में कम से कम दो तिहाई सदस्यों का अलग होना अनिवार्य बना दिया। इसके साथ ही पुराने कानून के कुछ अन्य छेदों को भी बंद कर दिया गया। इस कानून का भी सरकार गिराने और सरकार बचाने में काफी दुरुपयोग हो रहा है। इस कानून को लागू करने का दायित्व विधानसभा अध्यक्ष का है एवं विधानसभा अथवा लोकसभा अध्यक्ष भी किसी न किसी पार्टी एवं बहुमत प्राप्त सरकार के ही अपरोक्ष रूप से सदस्य होते हैं। उनके द्वारा सरकार को बचाने एवं गिराने के लिए कभी-कभी दलबदल विरोधी कानून का मनमाने तरीके से दुरुपयोग किया जाता है।
-जयसिंह रावत
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