रिवाजों की बंदिश में, जखडी थी इक चिडीया
आँखों में लिए नमीं, होंठों से हसती थी गुडियाँ,
छुरी, पतेले , कढाई ,पोछा , थे उसके खेलखिलोने,
बचपन के हसीन सपने, ना थे उसके जीने के बहाने ।।
देखों औरों के खेलता, मन था उसका भी खिलता,
बहु की जिम्मेदारी से लेकिन, कहाँ उसका पिछा छुटता,
ये कैसी कैद रिश्तों की , बचपन दोंनों का मशहूर,
बच्चे होते हुए भी, बचपन भुलने पर मजबूर ।।
बचपन की नासमझी बडों की, थी अनचाही कैद,
तोड जंजिरे मजबूरी की, होना था दोनों को आझाद,
लेकिन कैसा था ये जीना, इकसाथ जहर का पीना,
आसमां के साथ होकर भी, दुखों के दर्या में बहना ।।
लिबाजों की तरह क्यु हर बार, लडकियों का सफर बदलता,
इक हाथ से दुजे हाथ क्यु हर बार , उसका घर है बदलता ,
मासूम से ख्वाईशों का होता, बीच राह पर दम तोडना,
बालिका वधू बनते ही, उसकी अपनी पहचान मिटती ।।
जवानी की दहलीज चढते, वो माँ तो बन ही जाती ,
बचपन अपना दूर फेककर, फिर इस रिश्तें में ढलती,
एक दिन देख मंजर फिर , अपने बचपन का ही,
दहल जाता मन उसका , बेटी का बालिका वधू बनना ।।
इस बार मान लेती वो ना मानेगी अब की बार हार,
बिना पर वो उड चली हौंसलों की उडान,
इस बार उसके साथ है उसका बेटी और पती,
तोडके बेडिया जिंदगी देखो खुशी से मिलती ।।
दूर बहोत दूर थी उनसे मनहोसी की हर परछाई,
लिखी थी उसके किस्मत में, सुनहरी अक्षरों की शाई,
बचपन था उसका भी खिलखिलता और हसता,