डरी सहमी सी इक जिंदगी,
आकर खडी हुवी मेरे सामने,
तन के साथ मन भी घायल,
चोटील थी पांव की पायल!
खरोचने के निशान बदन पर,
आंखों से ना बहे पानी की धार,
खुद में ही उलझी सदबुद खोई,
गहरी थी उसके दर्द की खाई!
अंश उसका छिन चुका था,
चेहरे से नूर गायब हो चुका था,
खामोश एक मुरत की तरह,
१९-२० की लडकी थी वह!
घर से बेघर हुवी थी वह,
डर डर भटकती थी वह,
पापा के महलों की राजकुमारी,
रास्तों को अचानक हुवी प्यारी!
बदचलन कहकर ठुकराया था,
दहेज के लिए सताया गया था,
अपने घर में कितने बंदिशों से,
सर से पांव तक सजाया गया था!
उछलता कूदता उसका लडकपन,
रह गया था सिर्फ आंखे ही मुन,
दिखावट ससुराल की खत्म थी,
असलियत से रुबरु आज होनी थी!
ना साथ था किसीका ना हाथ ,
पता ना था कोई भी अब पास,
लेकर चल दिये हम उसको ,
पहुचाना था महसुस कही उसको!
आधार पाकर वह पुलिस का,
एक दो घंटे बाद बोल पडी थी,
सुनके उसकी उस दिन आप बिती ,
धूंधली हो गई थी नयनों की ज्योती!
ना पापा के पास वापस जाना चाहती,
ससुराल भी ना फिर से जाना चाहती,
सोच समझकर फैसला कर आज वह,
बन गई थी कितनों के जीवन की ज्योती!
सताये औरतों की वह खुद मसीहा थी,
अपने आप में इक करिश्मा वह थी,
राह भटकते हर एक मुसाफिर की,
वह एक आशियाना बन चुकी थी!
खुद की पढाई पुरी करके वह,
बन चुकी थी सशक्त नारी,
हाथों में कलम ठाम के आज,
हर एक के लिए वह न्याय सुनाती!