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खोजी मन

29 सितम्बर 2021

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खोजी या डिस्कवरी कुछ नया या पहले से पहचाने गए कुछ को सार्थक के रूप में पहचाने जाने का कार्य है।
सब लोग जिनका मन खोजी होता है नहीं-नहीं वस्तुएं खोजने का नई नई जगह खोजने का यह सब खोजी के रूप में ही कहलाए जाते हैं। इसी तरह हम भी बचपन में खोजी मन लिए हुए मन में उत्सुकता लिए हुए नई-नई  जगह जाने के लिए बेचैन रहते थे हमेशा मन में रहता था कि वह जगह क्या है जा कर तो देखें और कभी कभी तो इस चक्कर में परेशानी में भी फंस जाते थे। क्योंकि खोजी मन और बच्चा उस समय उस परेशानी को नहीं देखता है और बड़ों की बात भी नहीं सुनता है और अनजान जगह पर भी दौड़ा चला जाता है ऐसा ही मेरा अनुभव रहा है जो आपके साथ   शेयर कर रही हूं।
कभी-कभी हम लोगों को बहुत होशियारी भी बहुत महंगी पड़ती है ।यह में जो अनजाने एहसास लिख रही हूं ,यह एक सच्ची घटना है जिसने मुझे जिंदगी की सच्चाई से अवगत कराया है।
बात बहुत पुरानी है जब मैं करीब 10 साल की रही होगी।

हमारे यहां जयपुर में हर साल आमेर में हमारे पुराने मंदिर पर जैन मेला लगता है ।और हम लोग वह पूरा दिन आमेर में बिताते थे ।थोड़ी देर तो मंदिर में रहते बाकी हम अपनी टोली के साथ में घूमते फिरते रहते थे। आसपास की खंडहरों में जाने का मुझे बहुत शौक था ।मुझे शुरू से ही खंडहर और पुराने मंदिर पुराने महल टूटे-फूटे घर उन सब का मतलब पुरातत्व विभाग के सभी चीजों का बहुत शौक रहा है। तो हम आमेर जाने का हमेशा इंतजार करते रहते थे ।क्योंकि वहां पर   पुरातत्व विभाग के बहुत खंडहर है, पुराने और बहुत यादें बसी है पुरानी ।तरह-तरह के सुंदर-सुंदर टूटे-फूटे मकान है। अब तो बहुत साल हो गए ,शायद बदल भी गया हो। यह बहुत पुरानी बात है करीब 55 साल पुरानी।
उस दिन भी हम लोग पहले मंदिर गए फिर पूजा में बैठे। वहां से सब बच्चे साथ में मेरे भाई साहब भी थे जो मेरे बहुत अच्छे दोस्त हैं  खिसक लिए चुपचाप ।अगर हम बाहर ही खेलते हैं तो हमारे बाबू साहब वगैरह कोई भी देख ले तो हमको बहुत डांट पड़ती, इसीलिए हमने सोचा थोड़ा सा आगे जाते हैं और वहां गली मैं जाकर पकड़म पकड़ाई या छुपन छुपाई खेलेंगे। तो हम लोग वहां आगे गए, और छूपम छुपाई खेलने लगे। तो वहां एक पुराना बहुत खंडहर ,खंडित मंदिर था ,पता नहीं शायद मीरा देवी का था या कोई माता जी का मंदिर याद नहीं मुझे। कभी भी भाई साहब उस मंदिर में नहीं जाने देते थे। तो उस दिन छुपाई छुपन छुपाई के मौके पर मैंने वह चांस लिया ,और मैं चुपचाप जाकर उस खंडहर में जहां मंदिर बना हुआ था उस रूम में जाकर छिप गई। मुझे ऐसा था यहां तो कोई नहीं आता तो मुझे यह लोग कोई पकड़ नहीं पाएंगे और मैं जीत जाऊंगी। थोड़ी देर तो मैं वहां पर छिपी रही ।उसके बाद मैंने देखा पीछे से एक बहुत सारी जटा वाला बाबा सफेद सफेद की जटा थी और बहुत सारी ढाडी थी उपरसे सफेद मुंडी हिलाता हुआ मंदिर के पीछे से मतलब खंडहर में ही कहीं से ।रास्ता होगा वहां से वह चला रहा था। मैं तो इतनी जोर से डर गई कि डर के मारे मुंह से आवाज भी ना निकले ।अब क्या करूं किधर जाऊं। फिर एकदम से ध्यान आया कि बाहर का दरवाजा खुला होगा वहां से दौड़कर बाहर निकल जाती हू वह भी थोड़ा दूर था ।पर मैं इतनी जोर से भागी शायद जिंदगी में इतनी जोर से कभी नहीं भागी होंगी और पीछे  मुड़कर भी नहीं देखा ।जोर जोर से सांस चलने लगी ।15:20 मिनट तक तो बोलने की स्थिति में भी नहीं थी ।भाई साहब ने और सब बच्चों ने बोला क्या हुआ तू ऐसे क्यों डर रही है। पर उस स्थिति से निकलते हुए मुझे बहुत टाइम लगा । फिर जब मैं स्वस्थ हुई मैंने भाई साहब को बात बताई। कि पीछे से कोई रास्ता है कोई सुरंग होगी वहां से एक बाबा आया था। और मुझे इतना डर लगा। और भाई साहब ने मुझे बहुत डांटा बोले  अब कभी भी  ऐसे चुपचाप अकेले नहीं जाना ऐसे खंडहरों में जाने की कोई जरूरत नहीं है ।पर यह बात अपने  बाईजी बाबू साहब को नहीं बताई। पर मैं इतना डर गई थी कि आगे से कभी अकेले खंडहरों में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई ।मुझे आज भी खंडहर बहुत अच्छे लगते हैं ।उसके अंदर जाना अच्छा लगता है ।पर अकेले नहीं कोई साथ हो तो ।यह एक अनजाना डर का एहसास तुझे जिंदगी भर याद दिलाता रहा है कि अकेले खतरे की जगह मत जाओ।
स्वरचित सत्य 19 नवंबर 2019


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