"क्या तमाशा बना रखी है। कोय ऐसा दिन याद नहीं, समय से घर पहुंची हो। आखिर उसे कौन समझाए। बाप होता तो उससे बातें भी होती, मां से कुछ कहना उचित नहीं। और तो और मां भी होती तो मेरी बात चलती, है तो सासु मां... फिर भी....ई भी साला गजबे है, 'पौधा सींचे हम और फूल तोड़े कोई और'।" घर के अंदर से आती आवाज सुन बाहर ही ठीठक गई सासु माँ। आईने के सामने बालों को हाथों से संवारते हुए नये-नये तरकीबें उभरती जा रही थी। कदमों की आहट सुनाई पड़ी, साड़ी से बने परदे की ओर ध्यान अनायास पड़ते ही, उसे एक ओर खिसका दिया, तभी कंघी पर नजर पड़ी और उसे उठाकर फिर वहीं रख, बाहर की ओर झांकते हुए बुदबुदाया, "न जाने क्या दिखा इस घर-परिवार में। पिताजी भी गजबे इंसान हैं। लड़की पसंद आ गई, मानो जन्नत मिल गया हो।" "जबकि पिता आसमान माने जाते हैं। उसके बिना सारा जहां सुना-सुना। इतना ही नहीं, खासकर घर की औरतें सुकून की जिन्दगी तो जीती ही हैं, इधर-उधर चक्कलश से भी दूर रहती हैं। वरना, यही हाल होना है, छुट्टा घोड़ा की तरह घूमते फिरे।आखिर मेरे सोचने से कुछ होने भी नहीं जा रहा। फिर भी अगाह तो करूंगा ही।" आहट के बाद भी किसी को आते न देख घर से बाहर निकल आया। बरामदे पर बैठी सासु मां को देख, पैरों का ठहर जाना जरूरी रहा। सासु मां में कोई सुगबुगाहट नहीं देख अचंभित सा लगा। पहले ऐसा नहीं होता था। क्षण भर के लिए सोचने लगा, "मैं कुछ बोलूं, उससे पहले ही मां बोलने लगती, आज तो बिल्कुल उलट, "बेटा, आपकी चिंता जायज है। आप भी तो बड़े बेटे समान हो। सोहन का क्या। अभी उसे क्या पता दुनिया जहान। पिता का साया हटा, पहाड़ जैसा बोझ आ पड़ा। अब उसे संभालना है। न जाने कब तक झेल पाता है। फिर भी झेलना तो है ही।" "मां जी, आप भी न? जिस बात को लेकर गंभीर होना चाहिए, उसे तो नजरअंदाज कर रही हैं। ले-देकर चुल्हे जलने की बात। पेट के बाद भी बहुत कुछ है और मायने भी रखता है।" "मैं मानती हूँ। आप भी तो घर के मुख्य सदस्यों में एक हैं। अच्छे-बुरे कामों के लिए आपकी सहमति भी तो कम नहीं न।" "मां जी! गजब हाल है। शाम ढ़लने को है। कॉलेज में छुट्टी डेढ़-दो बजे ही मिल जाती है। आपने कभी सोचा है, आखिर इतनी देर सीमा कहाँ ठहर जाती है। जमाने की आंखों से कब तक ओझल होती रहेंगी?" "बेटा, इसमें सिर खुजलाने व चिंता करने की कोई बात नहीं। अभी बच्ची है। बचपना को छोड़ देना इतना आसान भी नहीं। कहीं सहेलियों के साथ रुक गई होगी या स्कूल-कॉलेजों का कहना ही क्या----- कई बार बता भी चुकी है, दो-दो दिनों की पढ़ाई एक दिन में ही हो जाती है। ऐसे आएगी तो पूछ लूंगी। बेटी जात है, ध्यान तो रखना ही है।" उहापोह वाली प्रतिक्रिया सुन उसकी छटपटाहट बढ़ गई। अपनी अहमियत को कमजोर आंक, भर्राई आवाजों के साथ कहना शुरू किया, "ओह! सच में मां अपनी संतानों के प्रति भोली-भाली होती हैं। सालों से देखते-देखते आजिज हो गया हूँ। अब आंखें जवाब देने लगी हैं। इसे नजरअंदाज करना परेशानी की सबब बनने वाली है। एक आप हैं कि घर की देवी समझ रखी हैं। वह कहाँ तक पढ़ाई करेगी? पढ़ लिखकर क्या कर लेगी-----चौका-वासन ही तो करना है---- उतनी औकात भी नहीं कि कोई बराबरी वाला लड़का ढूंढ बियाह करवा सकें। एक मेरा परिवार था, जो रीमा को देख 'चट मंगनी पट बियाह' के लिए तैयार हो गये।भला बी.ए पास, भाई पर चार-चार कमरे, जमा में कुल छः बीघे जमीन भी, मात्र कुछ हजार रुपये में। इस धरती पर ऐसे हरिश्चंद्र नहीं मिलते? मां जी, अब सोचने का समय नहीं रहा। बाबूजी होते तो कुछ और बातें होतीं। वे रहे नहीं। एक सोहन के ऊपर सारी जिम्मेदारी बढ़ गई। वह भी क्या करे। समय ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया। अभी खेल ने-कूदने की उम्र में सुबह से शाम तक खटता है। यह भी गजबे उदाहरण है, जो घर का चिराग हो, वह काम करे और पराई बनने वाली, पढ़ाई करे। हजारों वर्ष आगे की सोच है। पहली प्राथमिकता सोहन के बजाय सीमा को दी जा रही है। किसी दूसरों के घर रौशन करेगी, घर का चिराग नहीं बन पाएगी-----।" "आपकी बातों में सहमति है, बेटा। जिम्मेदारी भी बनती है, हरेक पहलूओं पर ध्यान देना। उससे बात करूंगी। लेकिन मैं मां हूँ...... उसकी ख्वाहिशें, सोच, घर के प्रति जिम्मेदारी से भली-भांति परिचित भी हूँ। उसकी इच्छा है कि पढ़ूँगी---- तो माता-पिता... पिता तो रहे नहीं। मां होने के नाते, उसकी चाह को दबा देना उचित नहीं। ऐसा न हो कि मन-मस्तिष्क में घर कर जाए। पिता रूपी आसमान न होने के कारण असहज महसूस करने लगे। आप क्या घर के गार्जियन से कम हैं? बड़े बेटे के कांधे पर ही घर.....।कुछ देर के लिए चुप हो गई, शायद किसी की आहट मालूम पड़ी। किसी को न देख फिर बोलने लगी, "आप भी सोचने-समझने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन सीमा की पढ़ाई-लिखाई में अरचन न आए। कोई जरूरी नहीं कि पढ़ लिखकर नौकरी ही करे बल्कि जीवन की नैया उनलोगों के बनिस्पत........।" सासु माँ की बात सुन बेचैनी बढ़ गई। मन मुताबिक बातें नहीं हो पा रही थी। खुद में असहज महसूस करने लगा। रूख को मोड़ते हुए कहने लगा, "अब मेरी दखलंदाजी उचित नहीं... मेरी सोच से भिन्न है, आपकी सोच। मेरी नजरों में पढ़ाई से कहीं अधिक जरूरी है, इज्ज़त-प्रतिष्ठा! और आप हैं कि पढ़ाई-पढ़ाई का रट लगा रखी हैं। अरे! बड़े-बड़े पैसे वालों को देखा हूँ, बच्चे को परख कर कदम बढ़ाते हैं। मुझे तो कहीं से नहीं लग रहा है, वह पढ़ पाएगी.... हाँ, कॉलेज आना-जाना मात्र ही पढ़ाई है, तो पढ़ाएं; मुझे कुछ लेना-देना नहीं।" "ऐसा न कहें----- किसी की इच्छाओं को तब तक न दबाएँ, जब तक की उसकी कमियां न उजागर हो जाए। मेरी नजरों में वह पढ़ने के लिए तत्पर है। बेटा, पिताजी भी कहा करते थे, सीमा पढ़ लिखकर कोई मुकाम हासिल करेगी, अफसर बिटिया कहलाएगी। सच में, वे अफसर बिटिया सुनने की लालसा पाल रखे थे। वे तो रहे नहीं, लेकिन कहीं इसकी मेहनत और उनका आशीर्वाद काम आ जाए तो, उनकी आत्मा..... बोलती हुई आवाजें रुंध सी गई। आंसुओं की बूंदें टपकने को आतुर हो चली। सामने की वस्तुएं भी साफ-साफ दिखाई नहीं पड़ने लगी। शून्य सा प्रतीत होने लगा दिन के उजाले भी.... कुछ देर यूँ ही खोई रही। पति के साथ बिताए पल गहराने लगे। "देवी बना दीजिए बेटी को, आसमान की ऊंचाई मापेगी।" अपनी नाराजगी को पटक, बुदबदाता हुआ घर से बाहर निकल चला। क्षणभर बाद आंखें खुली, इधर-उधर झांकने लगी। दामाद को न देख पलभर के लिए सुकून महसूस हुआ, "चलो, अच्छा हुआ। झूठ-फूस की बातों में उलझ गई थी। माथे पर जोर दे, सोचने लगी, कहीं उनकी बातों में सच्चाई तो नहीं, सीमा अभी नादान है, हो सकता है भटक जाए, कोई बड़ी बात नहीं।" अनायास सिर पर हाथ ने पहुंच बना लिया। बुदबुदाने लगी, "फिर भी मेरी बेटी है न... मैं जानती हूँ... वह वैसा कुछ नहीं करेगी, जिससे तौहीनता हो।" मायुसी को दबाये, सीमा पर ध्यान तो फिर विकास की शंकाओं की ओर घिर गई। विकास के द्वारा कही गई बातों में संशय की स्थिति पैदा हो गई। उसके द्वारा गुस्से में घर से बाहर निकल जाना विचलित कर दिया। रीमा की यादें कौंधने लगी। तभी सामने रीमा को देख, टपकने वाली बूंदों को लेप लगाती हुई, "बेटी, कब आई? यूँ ही बिना बताए कैसे आना हुआ? घर-परिवार तो ठीक है न?" एक साथ निर्देश के साथ सहानुभूति उड़ेल दी मां ने। बिना कुछ बोले साल भर के बाबू को गोद में लिए रीमा मां के पास बैठ गई। मां की बेचैनी व रूआंसी आँखों में झांके बिना बोली, "मां, होनी को किसने टाला, मेरे नसीब में यही होना था। पिता का साया न उठा कि मानो सारा जहां विरान हो गया; फिर भी संतुष्ट हूँ, मां।" बोलती हुई अंदर ही अंदर फफक पड़ी। रीमा के कंधे पर हाथ रखती हुई और पास हो बोलने लगी, "ऐसा न बोलते बेटा। मैं हूँ न! प्रकृति तुम्हारे साथ है...... कैसी तकलीफ?" "मां, 'दुल्हन वही जो पिया मन भाये।' मैं उसी समय आई थी, जब उनसे बातें हो रही थी। किनारे छुपी हुई थी। कहीं उनकी नजर न पड़ जाए। उनकी मंशा तो शादी के ठीक बाद ही समझ.गई थी। कभी सोची हो, शादी के कुछ दिनों बाद से ही यहाँ डेरा क्यों जमा लिया है। उसे भी घर-परिवार है। माता-पिता हैं। दो-दो छोटे भाई भी हैं। आखिर इतने सारे लोगों को छोड़ लापरवाह क्यों बन गया। वहाँ भी जितने मुँह, उतनी बातें सुनाई पड़ती हैं। आज तो और भी अनर्थ हो गया। यह निठल्ला मुझे भ्रम में रखे रहा। कभी कहता, सीमा का फॉर्म भरवाना है, कभी मां को डॉक्टर के यहाँ दिखाना है, तो कभी सीमा के लिए लड़का देखने जाना है। मैं भी चुप रह जाती थी, इसलिए भी कि ऐसा न कहे कि पिता न होने के कारण मैं भूल गई हूँ। महल-अटारी को जकड़े हुई हूँ। ससुराल को ही अपनी जायदाद समझ रखी हूँ। मां, बेटी होने का तो कतई यह मतलब नहीं; दुःख-सुख में साथ रहना सीखे तो कोई बेटी से।" रीमा की बातों में भावना बह रही थी। पति के प्रति दबे शब्दों में तृष्णा भी। रीमा की बात सुन माँ चिंतित हो गई। उसकी बातों में हथौड़े की चोट लगी कराह निकल रही थी। बीच-बीच में उसकी आवाजें बाहर भी निकल आती, जिसमें करवाहट के साथ अंदरूनी तकलीफ भी समाहित थी। पुचकारती हुई, उसे गोद में छुपा ली। रीमा की आँखें नम हो चुकी। वह सोचकर भी बोल नहीं पा रही थी। मानो, कहीं आंसू न टपक आए। उसकी हालात व कमजोर शरीर से कंपन का आभास देख सांत्वना देने लगी, "बेटी, तुम तो सारी बातों से अवगत हो। पिताजी समय से पहले सैर पर निकल गये। उन्हें जब निकलना ही था तो ठिकाना लगाकर जाते या साथ लेते जाते। तुम्हें तो सब मालूम है, आस पड़ोस के लोग कैसे चुहलबाजी करते थे। तेरहवीं सिर पर सवार थी, सोमरा माय मुँह चमकाए के बोल रही थी, "अब देखवै केना चंगुरा पर चलतैय आर दू-दू गो बेटी के केना निमाह तै?" एक तरह से सहिये बोल रही थी। कर्ता-धर्ता जो सो गये थे।" बीच-बीच में इधर-उधर निहार भी लेती थी। आज तक बच्चों के कानों तक किसी की शिकवा शिकायत नहीं पहुंचने देना चाहती। इधर-उधर किसी को न देख बोलने लगी, "सगे-संबंधियों ने होनहार लड़का बताया था। सोहन को भी भेजी थी। उसे क्या पता, वह तो खुद बच्चा था। लेकिन उसने जो कहा, मेरी आत्मा जुड़ा गई। बी.ए. पास। देखने में भी खूबरसूरत। घर-द्वार भी देखने लायक। यहाँ तक कि सबने कहा, जोड़ी अच्छा है। कहीं से दूसने लायक नहीं। सबकी सुन महसूस किया, ऐसे घरों में मेरी औकात नहीं कि तुम्हें बैठा दूँ। सच में बेटी, सपनों में नहीं सोची थी। शादी के बाद काफी खुशी मिली, भगवान को द्वाअ देने लगी। मेरी बेटी अच्छे घर की दुल्हन बनी है।आज भी खुश हूँ। घर में गार्जियन स्वरूप एक बेटा मिला है। यहाँ-वहाँ आना-जाना भी लगा रहता है।" खूबियों की बखान किए जा रही। रीमा की आँखों में खुशी नाम की कोई चीज नहीं। वह मन ही मन गम की घूंट पीए जा रही थी। उसकी बातों को दबे शब्दों में समर्थन प्रकट करती हुई बोली, "मां, आपने फर्ज निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ा। मेरी किस्मत ही ऐसी थी।" "किस्मत! क्या बोल रही हो?" उसकी बातें सुन असमंजस में पड़ गई। घंटों से मुरझाए चेहरे ने अपनी बेवशी सामने रख दिया। माँ कुछ बोलती कि रीमा की आवाज निकल आई, "माँ, मैं उस घर की बहू हूँ। वे मेरे पति हैं। इतने दिनों में भलीभांति पहचान चुकी हूँ। समझने का तो उसी समय समझ चुकी, पुख्ता सबूत की चाह ने नारी होने का प्रमाण दिया। ससुर जी से आजिज हो चुकी हूँ। हालांकि उनकी बातों में मेरी ही अच्छाई निहित है। फिर भी, अब सुनने की हिम्मत नहीं। यहाँ मैं भूखी रहूंगी, मजदूरी कर लूंगी.... मंजूर है।" अपनी ही बातों से सहम गई। सामने बैठी माँ भी हताश दिखने लगी। खपरैल घर से झड़ती धूल को निहारती तो ईंट पर आसन जमाए कनस्तर को भांपने लगी। खुद को संभालती हुई, "अधिकार है बेटी! इसमें संकोच की बात कहाँ से आई। मैं भी कुछ कर ही लेती हूँ। सोहन भी चार-पाँच हजार रूपये उपार्जन कर ही लेता है। वे भी कुछ कर लेंगें तो जीवन जीने के लिए बहुत है... मैं तो कई बार उनसे चर्चा भी की थी, लेकिन टाल जाते हैं। साफ शब्दों में कह देते हैं, पाँच-छः हजार कमाने से क्या होगा, मुझे क्या कमी है। भला उनसे मुँह कौन लगाये। चुप रह जाती हूँ..... आखिर दामाद हैं, उनसे बकथेथी करना उचित नहीं समझती। फिर भी कोई बात नहीं। जिनगी है तो करना ही है, भला माय-बाप कब तक साथ रहेंगे। रीमा की चेहरे को उठाती हुई, सांत्वना देती हुई बोली, चिंता मुक्त रहो।" उसकी रहम व अनजानी बातें सुन आंसू टपकने लगी। फफकने लगी। "अरी! यह क्या? कहीं मेरी बातों में चोट तो नहीं। ऐसे फफकना अच्छा नहीं। आखिर हुआ क्या? बताती क्यों नहीं? पहले भी आई थी, ऐसे तो नहीं थी.... हताशा केसी? बेटी, दादी भी एगो पड़हुआ पढ़ती थी, 'चिंता से चतुराई घटे, दुख से घटे शरीर.........' माँ की उपदेश राहत तो पहुंचा रही थी, लेकिन अपने पति की करतूतों को भुलाए नहीं भूल रही। अब माँ कुछ अधिक निर्गुण गाने वाली थी, उसे रोकती हुई, "वह कहीं चैन से रहने देगा। मेरी उपस्थिति उसकी देह में जलन पैदा करेगी। आजतक चुपचाप पड़ी रही। अभी तक दलाली में जीवन को दौड़ा रहा है। कोई काम धंधा उसके वश की बात नहीं। गांव में भी आवारागर्दी करना आदत रही है। बस, इस घाट से उस घाट करना रह गया है। किसी की नौकरी लगाने के नाम पर ठगी तो किसी की शादी के नाम पर महीनों गायब। मानो, नियति है। दारू-तारी तो जीने के लिए जरूरी.... और भी ढ़ेरों शिकायतें, भला किसे कहूँ कि पत्नी रहते हुए....... चुप हो गई।" रीमा की बात सुन गंभीर हो गई। सिर पर हाथ रख, छिटपुट घटनाएं आँखों के सामने पुष्ट हो रही थी। जब कभी अचानक घर प्रवेश करती तो आँखें बंद कर पीछे मुड़ जाती थी। रीमा की बातों ने प्रमाणित कर दिया उसकी सोच। उसे उड़ेलना उचित नहीं समझी और रीमा से बोली, "अपना घर है। जब तक मन शांत न हो जाए, यहीं रहो। जीवन में सुख-दुख है ही।" रीमा साहस साथ लेकर आई, "नहीं मां! यहाँ रहना उचित नहीं। मैं उसके साथ रहूंगी। एक दुल्हन कमजोर हो सकती है, पत्नी आरती उतारने में आगे रह सकती है, उसे कुछ हासिल करना होता है, लेकिन एक माँ नहीं।" उसकी बातें सुन दंग रह गई। आँखें रीमा के चेहरों पर टिकी रही। हिम्मत नहीं कि अब कुछ बोले...... कुछ देर चुप्पी छाई रही.... मुरझा सी गई रीमा। आखिरकार माँ की आवाज निकल पड़ी, "तुम तो ऐसी नहीं थी। आज तलक जिद नहीं मचाई। आते ही होंगे, बात करती हूँ। ऐसा तो नहीं कि इनके बिना ससुराल वाले परेशान करते हैं? आज मैं इन्हें समझाऊँगी, मेरी बात जरूर मानेंगे।" उसने माँ को विश्वास में ले रखा था। इतने के बावजूद भी माँ की नजरों में घर के बड़े बेटे बने हुए थे। माँ हौसला बढ़ाने में लगी रही। घंटों बीतने वाली है। रीमा माँ की मनोदशा भांपती हुई बोली, "क्या नहीं बोलते वे लोग। ससुराल से अर्थी उठती है, न कि कदम। आज मैंने कदम उठाई.... डोली के समय तुम्हीं बोली, घर की इज्ज़त-प्रतिष्ठा की दुहाई दी थी। जिम्मेदारी की पाठ पढ़ाई थी। आज तक उसे ढ़ोती रही। ढ़ोती हुई भी जब अपनों पर ही लांछना शुरू हो जाए, तो जीवन निर्रथक है, बेकार है माँ। सासु माँ बोलती रही, उसे दरकिनार करती रही..... आज ससुर जी की बातें जब अपने कानों से सुन ली तो जमीन खिसक गई...... मैं शून्य में विचरण करने लगी। 'काटो तो खून नहीं' जैसी हालातों के साथ यहाँ तक आ पहुंची। सीता वाली कहानी याद आने लगी, भला मेरी पुकार धरती क्यों सुने, मेरे साथ न तो राम है और न ही उस सीता की छाया। साफ शब्दों में दहाड़े मार रहे थे, "सास विधवा है, साली जवान है.... भला उसकी पूर्ति कौन करे.... दामाद को रख लिया।" रीमा की आवाज सुन सन्न रह गई। आवाजें कंठ तक आती-आती आ नहीं पाती। शरीर भी मुर्दे समान। रीमा कब माँ की गोद में सिर डाल दी, उसे भी मालूम नहीं। फफकती जा रही थी।माँ भी उसके ऊपर लद गई। सिसकने की आवाज ने माँ के शरीर में कुछ अहसास कराया। धीरे-धीरे रोने की आवाज तेज हो गई। अनायास बेटे आयुष पर ध्यान केंद्रित हो गया। उसे आसपास न देख, उठ खड़ी हुई।इधर-उधर नजरें दौड़ रही थी, देखी सीमा आयुष को दुलार-प्यार में मग्न थी। क्षण भर में मायुसी को दूर फेंक चहक उठी, "अरी! कब आई? आजकल काफी देर तक कॉलेज रहती हो?" "हाँ! पढ़ने के सिवाय करना ही क्या है?" मुस्कुराती हुई जवाब के बदले हँसोड़ सवाल कर बैठी। पल भर के लिए अपनी जिन्दगी को नसीब की करामत समझ सीमा से बोली, "ठीक कहती हो। समय का काम है, बीतते रहना। अपना भी, उसके साथ चलते जाना...... समय न जाने कब कहाँ धकेल जाए....!" कुछ देर के लिए चुप्पी छा गई। रीमा की बातों ने उलझन में डाल दिया। समझ नहीं पाई, आखिर निशाना साध रही है या समय की नियति ने मजबूर किया। इधर-उधर की बातें छोड़ कुछ बोलने को चाह रही........ घुमाऊ बात सुन असमंजस में पड़ गई, बोलूँ या न बोलूँ....! उसकी मंशा समझ रीमा ही बोली, "सोहन तो ठीक है न? कितने बजे घर आता है?" "देर रात तक।छोटू आता ही होगा।" उन दोनों की बात कम शब्दों में निपटाती हुई, "छोड़ो इन सारी बातों को, अपना बताओ, तुम ठीक हो न... घर-परिवार में सब कोई ठीक ही होंगें?" बिना जवाब सुने सवालों के घेरे में एक अचंभित सवाल दाग गई, "जीजाजी तो डेरा जमा लिए हैं। ऐसा क्या है, वहाँ छोड़ यहाँ पड़े रहते हैं?" यह सवाल प्रसन्नचित्त से प्रकाश वर्ष की दूरी पर अवस्थित मालूम पड़ी। अंदर ही अंदर घुटन महसूस करने लगी। खुद को संभालती हुई बोली, "तुमसे बेहतर कौन जान सकता है?" जवाबी सवाल तारे गिनने को कहा। सिर के ऊपर खपरैल छप्पर को निहारती हुई, "दीदी, यही तो हम बेटियों के लिए अभिशाप है। कोई न मिले तो पहाड़ जैसे बोझ डाल दो माथे पर... कुलबुला कर ईश्वर के शरण में चली जाए या ईश्वर मान उसके सामने हाजिर कर दे....यही तो निदान है। मोहरे बने रहना बेटियों के हिस्से.... चाहे बड़ी हो या छोटी, इस घर की हो या उस घर की....।" "रीमा, घंटों बीत गये, नास्ता-पानी भी तो कर लो।" बाहर से माँ की आवाज सुन शांति छा गई। कुछ जवाब देती कि माँ अंदर आ पहुंची। "किस बात लेकर उलझ गई हो। बाबू को तो कुछ खिला-पिला देती।" सीमा की गोद से अपनी गोद में लेती हुई पुचकारने लगी, "मेरे नाती, नाना पर गया है।" माँ की बात सुन दोनों मुस्कुराने लगी। "ई ठिठोली से काम नहीं चलेगा। चलो फटाफट नास्ता तैयार करो। देखो, मेहमान जी भी आ गए हैं। वे भी सुबह से तामझाम कर रहे हैं।" उनके आने की बात सुन आपसी बातें बंद हो गई। आहट ने रंज पैदा किया। आँखें लाल सी हो गई।कुछ देर फुसफुसाहट जैसी बातें हुईं, फिर उस कमरे की ओर निकल पड़ी, जहाँ पति देव विराजमान हैं। रीमा को देखते ही आग बबूला हो उसने दहाड़ मारा, "ऐसा क्या हुआ? कल ही तो आया?" तत्क्षण रीमा की चुप्पी को जमींदोज करते हुए कहा, "कहीं चैन से जीने नहीं दोगी। अरी! मैं ही हूँ जो इस घर को संभाले हूँ। वरना, कब कालिख पोतवाये गांव वालों के बीच घूमती रहती। आते-जाते पैरों की निशान तक पर नजर रखता हूँ... थोड़ी सी चूक हुई कि नजरें उठाकर चलने लायक नहीं रहोगी... एक तुम हो कि पीछे पड़ी रहती हो... किसी दूसरे घर में तो हूँ नहीं... अपना छोड़ तुम्हारे ही परिवार वालों के लिए जूझ रहा हूँ।" "हूंह!" तिरस्कृत भाव में रीमा आ पहुंची। उसकी मुहजब्बर बातें सुन आवाज निकलने को आतुर हो चली कि उसने शुरू हो गया, "आगे मुँह लगाने की जरूरत नहीं। यहाँ वाले क्या बोलेगा, वहाँ वाले भी उतना ही मजाक उड़ाता होगा।" विकास को सुनते रहना अब कुव्वत में नहीं। आँखों में आँखें डालकर बोली, "खाक कहेंगे! यहाँ वाले बोलते हैं, पत्नी अपने ससुराल में, पति अपने ससुराल में और वहाँ वाले, 'सास-साली को संभाल रहा है', और क्या बोलेगा?" सीमा की हिम्मत पहली बार उजागर हुई। क्षण भर के लिए विकास हक्का-बक्का रह गया। आक्रोश को बुलाया और चिल्लाते हुए कहा, "बेहयाई, बदतमीज, लाज-शरम को पी गई हो। संस्कार को गिरवी रख आई। तनिक भी शरम नहीं आई। वहाँ रहते हुए भी कुछ सीख नहीं पाई। अब तक तो इस कचरे को भूल जाना चाहिए। ठीक कहा गया है, 'बिन बाप के बेहयापन लाजिमी है।' "बस, अब आगे नहीं।" दोनों की बातें दो कानों से बाहर की ओर कूच कर चुकी। शोरगुल सुन सीमा व उसकी माँ भी दरवाजे तक पहुंच आई। बीच-बचाव कर मामले को शांत करने की कोशिश करने लगी। विकास की आवाजों में नमी नहीं। चुप रहना तौहीनता समझ रहा है। वह बड़बड़ाता रहा। सीमा चुपचाप खड़ी रही। सीमा की मनोवृत्ति उसे और बकबक करने को उत्साहित किया.... समय देख माँ सिर्फ इतना बोली, "बेटा, आपके हाथों रीमा को सौंप चुकी हूँ.... इसके साथ चलना आपका दायित्व है। यह मत सोचिए कि मैं बेटी की तरफदारी कर रही हूँ, यही जीवन निर्वाह करेगी। सीमा का क्या, आज है, कल कहीं और की होगी।" विकास काबू में नहीं रहा। माँ की बात तीर की तरह लगी। वह अपनी बात जोरदार ढ़ंग से मनवाना चाह रहा था। बिना कुछ समझे दामादपन को बेपर्दा कर दिया। आवारगी को बेढंगे तरीक़े से प्रस्तुत किया, "सच में विधवा को सात भतार......वह किसी एक बात पर नहीं रहती।" माँ पर आक्षेप व पूरी महिला जाति पर आरोप सुन सीमा बेकाबू हो गई। उसमें बातों की सैलाब उमड़ पड़ी। न जाने कितने दिनों में जमा कर रखी थी। उसकी नजरों में न तो माँ दिखाई पड़ रही थी और न ही बड़ी बहन रीमा। सामने बस, सिर्फ एक भोगी। कोशिश करती थी, उसकी नजरों में नजरें डालकर बोलूं, लेकिन उसकी नजरें...... आखिकार शुरू हो गई, "विकास! तुम जैसे औरतखोर के लिए दुनिया में कहीं जगह नहीं। कब तक रोव जमाते रहोगे.... चांद की सैर कराने की बात कर, जीवन निर्वाह नहीं हो सकता।" सीमा की जुबानी मन-मस्तिष्क को सुन्न कर दिया। आवाक हो इधर-उधर रास्ते निहारने लगा। छोटे से कमरे में दोनों की तानातानी पहले से मौजूद थी। दरवाजे को अपने कब्जे में लिए माँ और सीमा कर रखी थी। बाहर निकलने की कोई गुंजाइश नहीं। कोई राह न देख रीमा को डांटते हुए कहा, "चलो यहाँ से। तुम आग लगाने के लिए आई हो।" उसे दरवाजे की ओर धक्का देने लगा। दोनों मुस्तैदी के साथ खड़ी हैं। माँ की आँखें सीमा पर टिकी हुई। माहौल देख सीमा पर ही बोलने लगी, "चुप रहो! यहाँ कोई दूसरा नहीं।किसे गलत कहूँ। कोई भी अंगुली काटूं तो दर्द मुझे ही सहना है।" "माँ! बहुत हो गया! तुम्हें मालूम है, इसने कॉलेज जाने से क्यों मना करता रहा? कुछ दिनों बाद जाने की अनुमति भी मिल गई? इसने सब्जबाग दिखाना शुरू किया। मैंने विवेक से काम लिया और समय से समझौता किया। इसकी सोच को हाँ में हाँ मिलाती रही, तब जाकर पढ़ाई जारी रही।जब इसने समझ गया, समझौता हाथों से फिसलती जा रही है, तब आरोप-प्रत्यारोप शुरू कर दिया..... ताकि कठपुतलियों की तरह नाचती रहूँ। पता होनी चाहिए, जब कॉलेज नहीं जाती थी, यह दिनों भर यहीं पड़ा रहता था। आखिर किसलिए? तुम तो पेट की खातिर पिता बने रहने में अव्वल रही। तुम्हारी जिम्मे चार-चार पेट। सोहन की जिम्मेदारी को हल्की करने में लगी रही। मेरी व छोटू की पढ़ाई के लिए चौका-वासन तक करने से नहीं सकुचाई। बीमारी की हालात में महीनों डॉक्टर के पास रहती थी, उस बीच इसी भेड़िया के साथ समय बितायी।" सीमा बोली जा रही है। उसकी बातों में भीख नहीं, जज्बातों से भरी थी। एक की आँखें जमीन की ओर तो दो की आँखें सीमा तो कभी विकास की ओर। "माँ! एक साथ दो-दो परिवार इसकी भेंट चढ़ने के लिए तैयार है...!" सीमा की बात सुन दोनों-तीनों मन ही मन भुनाने लगे। विकास काठ का रूप लिए रहा। पति की कारगुजारियों से रीमा की शंका पुष्ट हो चली। रीमा ने सीमा से कहा, "अब नहीं! इसकी भनक बहुत पहले लग चुकी थी।" सीमा की जुबान खुल गई थी। विकास के प्रति तिरस्कृत नजरों से घूरती हुई, माँ से बोली, "माँ, तुम्हीं पूछो! कितनी औरतें चाहिए? मेरी परवाह इसे क्यों? अपनी दायित्व खुद मैं हूँ। धिक्कार है ऐसे मर्दों पर जो बेटे के दायित्व को समझने से चूक गया। डूब मरो मेरे जीवन के सौदागर..... राह छोड़ती हूँ।" इतना बोल माँ की आंचल में समा गई। नन्हीं जान सीमा की गोद से अपनी माँ रीमा की ओर टकटकी लगाया था। पलक झपकते ही विकास दरवाजे लांघ गया। माँ गंभीरता की शरण में थाहें ढूंढने लगी। शायद बेटी की जिंदगी से जुड़ी लम्हें को लेकर। रीमा माँ से लिपट गई। एक साथ सुकून भरी आवाजें आई, "माँ, चिंता की कोई बात नहीं, नून-भात खा लूँगी, लेकिन अरमान नहीं मिटने दूँगी।" ● © अविनाश