ये दिन किसी आम दिनों जैसा नहीं था। मैं देहरादून में था। नेहरुग्राम में अपनी बुआ के घर।
अपने वास्तविक घर से बहुत दूर। एक सरकारी नौकरी की तलाश में। हिंदी लिखने और पढ़ने वाले उन आम लोगों में, जिन्हें अपने बेटे से यही उम्मीद होती है कि वो कुछ भी नौकरी करे मगर उसके आगे सरकार शब्द जरुर जुड़ा हो। ऐसा ही मेरा परिवार भी है। जितनी साधारण ये आम परिवारों की बात है उतनी ही असाधारण है इन सब से अलग कुछ सोच पाना।
सरकारी इसलिए क्योंकि इसमें नौकरी हमेशा रहने की गारंटी है। नौकरी के आगे सरकारी शब्द एक रुतबा दिखाता है। ये फर्क नहीं पड़ता तुम किस पद पर हो, क्या तुम्हारा काम है। बस सरकारी है इस बात की तसल्ली रहती है।
हर सरकारी नौकरी पेशे वाला व्यक्ति इन्हीं विलक्षण गुणों के कारण खुद को तोप समझने लगता है। और समझे भी क्यों ना ऐसे तोपची विलक्षण लोगों को कोई भी शख्स अपनी बेटी देने से हिचकिचाता नहीं।
मैं बहुत दवाब में था । बीएससी मेरे कहने के मुताबिक अच्छा गया नहीं और जो मैं कर रहा था उसमें चाह कर भी कुछ नहीं हो रहा था। दो साल देहरादून में एक बैंक की नौकरी के पीछे हाथ पाँव मार के थक चुका था। और आज संडे का दिन उसी नौकरी के कुंए में मेरी आख़िरी छटपटाहट थी।
हार जाना बुरा नहीं है। मगर हारते-हारते जब निराशा और संताप के गहरे कुंए में खुद का वजूद डूबने लगे तो एक खामोश चीख के साथ सीने से बस एक आह निकलती है। जिसे सुनने वाला कोई नहीं होता। बस होती है तो हाथों से रेत की तरफ फिसलती खोखली उम्मीद।
कोई नहीं जानता था ये मेरा सरकारी नौकरी की तरफ आखिरी कोशिश थी। उस वक्त तो में भी नहीं। जिंदगी वक्त का गोल घेरा है जितनी तेज और जितनी दूर हम इसमें आगे बढ़ते जाते हैं हम घूम कर उन्हीं तारीखों पर लौट आते हैं जहाँ से हमने चलना शुरु किया था।
मैं उत्तराखंड तकनीकी विश्विद्यालय से बैंक का एग्जाम देकर जब स्कूटी से दनदनाता हुआ जब बुआ के घर पहुंचा। तो ये बस मैं ही जानता था कि पेपर क्या और कैसा हुआ है। ना जाने पेपर देने के बाद यही लगता है बस ये पेपर तो निकल जाएगा। मगर जितनी बार मैं फेल हुआ था। तो उससे ये उम्मीद रखना तो अब मेरे लिए बड़ा मुश्किल हो गया था।
प्रेमनगर से घंटाघर कब पहुंचा ये ख्याल ही नहीं रहा, और ख्याल रहता भी कैसे! मैं तो बीते सारे पेपरों और घरवालों के हर बार घर से दूर परीक्षा को भेजने पर उम्मीदों का हिसाब लगा रहा था।
कभी-कभी उम्मीदों का हिसाब लगाना भी चाहिए इससे पता चलता है कि हमने कितनी उम्र और कितनी दूरी तय कर ली है। वो अलग बात है ये दूरियाँ बस हिसाबों में ही रहती है जिंदगी में तो ये परसों की बात लगती है। इन्हीं खोखली उम्मीदों में मैंने कितनी भी दूरी तय की हो मगर स्कूटी की दूरी बुआ के घर पर आकर ठहर गई थी।
गेट से अंदर आते ही किचन के बर्तनों की आवाज़ और बातों का शोर हो रहा था। स्कूटी लगाकर दरवाज़े से कमरे में ज्यूं ही घुसा । सामने डाइनिंग टेबल पर बुआ और बुड्डी थी। बुड्डी असल में गढ़वाल में पिता की बुआ को कहते हैं।
मेरे अंदर आते ही उनकी बातों का टाॅपिक थम गया था और आमतौर पर आदतन ये सवाल पूछने लगे कि पेपर कैसा गया?
मैं कुछ देर के लिए सोचने लगा कि इस बात का सही उत्तर क्या देना चाहिए।
एक वक्त होता है जब ऐसे सवालों का आपके पास माकूल जवाब होता है। मगर उम्र के बढ़ने और हर पेपर के बाद आए परिणामों के बाद मिली असफलता के बाद ये सवाल काफी मुश्किल हो जाता है।
उनकी आँखें मुझपर थी और मेरी पानी के गिलास पर । फिर एक घूंट गले से नीचे उतर जाने के बाद मैंने वही कहा जो हर पेपर देने गए लाखों अभ्यर्थियों का होता है।
"अच्छा हुआ!"
और उन्होंने भी वैसा ही जवाब दिया जो हर आम परिवार कहता है। "बस! इस बार हो जाए।"
कुछ जवाबों और सांत्वना को हर बार मिली असफलता के बाद सुनने से निराशा होती है। कभी-कभी लगता है कि इन सवालों के प्रतिउत्तर के बाद खामोश हो जाना चाहिए।
साल 2017 का ये साल जब से आया था कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा था।
मेरे हिसाब से मैं अगर हर साल को देखूं तो उन सब में मेरे लिए कुछ अच्छा जैसा था ही नहीं। हर निराशा में डूबा व्यक्ति शायद इस एहसास को समझेगा।
मेरे परिवार में भी कुछ ऐसी ही हलचल थी। पापा अभी भी संयुक्त परिवार में थे। मेरी दादी के तीन बेटे और तीन बेटियाँ थी।और घर रुद्रप्रयाग में है। रुद्रप्रयाग अलकनंदा और मंदाकिनी के संगम पर बसा एक जिला । गंगा जमुनी तहजीब से तो मैं इतना वाक़िफ़ नहीं मगर ये जानता हूँ कि नदी के मुहाने और पहाड़ों पर बसे ये लोग मेहनती बहुत हैं।
गंगा चाहे जहाँ भी लोगों को पाप मुक्त करती हो मगर इसके उद्गम नदियों के पहाड़ों पर बसे गाँव के बासिंदे निश्छल ही लगते हैं। छला तो विचारों को जाता है जो भोले -भाले कहे जाने वाले लोगों की मनोदशा को बदलने लगता है। उसी बदलाव की चपेट में आकर हमारे परिवार से कोई भाग गया था। भागा नहीं था बल्कि घर छोड़कर चला गया था।
मेरे चाचा जी का लड़का उम्र 17 थी और घर इसलिए छोड़ा क्योंकि घरवाले पढ़ने को कह रहे थे। ये जवाब अक्सर घरवालों, रिश्तेदारों और लोगों का होता है। मगर हम असल में क्यों भागते रहते हैं इसका अंदाजा सही-सही कोई नहीं लगा पाता।
एक महीने पहले जब वो घर छोड़ कर गया था तो कोई चिठ्ठी या फोन तक नहीं किया। पहले दिन तो अंचभे में रहे। यकीन ही नहीं हुआ। लगा कि वो ऐसा नहीं कर सकता, कहीं आस-पास ही होगा आ जाएगा। दूसरे हफ्ते गुस्से में आखिर किस चीज की कमी थी जो उसने ये काम किया और महीना बीत जाने के बाद गुस्सा- तकलीफ़, चिंता और पीड़ा में बदल गई। यह सोचकर कि ना जाने कैसा होगा। क्या कर रहा होगा।
हालात ऐसे थे कि जब भी कोई इधर-उधर की बात करता तो आखिरी में बातें सारी उसकी चिंता में ही खर्च हो जाती।
महीने बीत जाने के बाद में देहरादून आया था। अपने बैंक का इम्तिहान देने। जब लौटा तो बुआ और बुड्डी का विचार बना उसे हरिद्वार ढूंढने का। हरिद्वार ना सिर्फ गंगा की नगरी है बल्कि उत्तराखण्ड का वो शहर है जहाँ हर घर से भागा शख्स उसी किनारे मिल जाता है।
इसलिए लगता है हरिद्वार, प्रयाग (इलाहबाद) और वाराणासी जैसे शहर को गंगा की नगरी की जगह भटकने वालों का शहर कहना चाहिए।
हिसाब तो वैसे सही लगाया था। हो सकता है वो वहाँ मिले, और वैसे भी पेपर के बाद कुछ करने को था भी नहीं तो बस हरिद्वार की ओर निकल पड़े।
साथ मैं अंकल भी थे। यानि बुड्डी के बेटे। जो कि मेरे हम उम्र थे। जो कहता है कि रिश्ते उम्र देख कर बनते हैं तो उन्हें शायद गाँवों की तरफ लौट जाना चाहिए।
हम चारों की चौकड़ी नेहरुग्राम से ऑटो कर जोगीवाला पहुँच चुकी थी। अब यहाँ से हरिद्वार की यात्रा करनी थी। बस का इंतजार हो रहा था। एक तरफ बुआ और बुड्डी अपनी गप्पों में मस्त थे तो दूसरी तरफ हम दोनों ।
"दीपक पेपर कैसा हुआ?" बंटी अंकल ने पूछा।
"वैसे ही जैसा हमेशा होता है! . . और आपका?"
"वैसे ही जैसा हमेशा होता है!" . . इस बात पर हम दोनों हंसने लगे।
ये हंसना कुछ भी हो सकता था। नियती पर कटाक्ष, खुद पर बेचारगी या रोज़गार देने वालों पर उपहास, कि देखो लाखों बेरोगारों के बीच सिस्टम में हम भी छूटे हैं।
"हरिद्वार . .हरिद्वार .?"
तभी एक लंबी सी सवारी गाड़ी से झांकते हुए ड्राइवर ने पूछा । और हम हाँ कहते हुए उसमें घुस गए। हम दोनों लड़के थे जाहिर है हम पीछे की सीट पर थे और बुआ और बुड्डी दोनों बीच की सीट पर।
मैं दरवाज़े से पीछे सड़क को देखने लगा । लगा सब पीछे छूटा जा रहा है । भागती हुई गाड़ियाँ, बिजली के खंभे, चलते हुए लोग और हवा से मटकते पेड़। बस जो नहीं छूट रहा था तो वो चमचमाती सड़क थी जिसे जितने पीछे छोड़ते हैं उतना और पसर जाती है। मैं इतना कभी सोचता नहीं। सोचा होता तो या तो कोई बाबा बन जाता या एक छोटा-मोटा लेखक। जिसके हाथों पर लगी स्याह धब्बे उसके जिंदगी के उजड़े, उधेड़े और एकाकी में बिताए दिनों की खोखली कहानी कहते। लेखक बनना अभिशापित होना है।
मैं बैठा-बैठा यही सोच रहा था और मेरे सामने बैठा हर शख्स हेडफ़ोन लगाकर अपनी दुनिया में खोए हुए थे। कभी-कभी गौर से देखने पर लगता है यहाँ हर कोई भटका हुआ है। भटकना आदमी की नियती में है। कोई दूर तक भटका हुआ ही शायद अपनी नई कहानी लिखता है। देहरादून से हरिद्वार तक ना जाने कितनी सारी चीजें मैंने सोची जैसे पंछियों को देखकर उड़कर एवरेस्ट को पार करना । सूरज को देखकर एक गाँव में दीवाली के दिन खेले जाने वाले भेलो की याद आना और पहाड़ को देखकर उससे कहीं दूर भाग जाना। जब शाम को इन बातों को दोहरा कर अपने मोबाइल पर लिखा तो लगा कि हर बात में तो मेरे ही भाग जाने का जिक्र है। मैं भी तो सबसे भाग ही रहा हूँ। फिर मेरे और मेरे चचेरे भाई के भाग जाने में क्या फर्क।
विचारों में दुविधा होती है और ज्यादा विचारने के बाद भटक जाने का खतरा। यूं ही नहीं किसी को पागल कहा जाता है। पागल होना विचारों की उसी दुविधा का परिणाम है।
इतना सब सोचने में हरिद्वार तक का एक घंटे का सफर कब पूरा हुआ खबर नहीं। ये मेरा पहली बार हरिद्वार आगमन था। जिसका मकसद था किसी भटके हुए को ढूंढना। और अगर वाक्यों को सही से दोहराउं तो एक भटके हुए का दूसरे भटके हुए को ढूंढना।
गाड़ी से उतरकर हम हरिद्वार पहुंचे । प्लॉन था कि अगर वो भागा होगा तो हरिद्वार हर की पौड़ी पर ही मिलेगा। वहाँ पहुंचते ही हम अलग हो गए । बुआ और बुड्डी जी एक टीम में तो हम अलग-अलग जाके खोजबीन करने लगे।
मैं हर किसी को देखता तो ना जाने क्यों मुझे उनमें उसका ही चेहरा दिखता ये देखकर लोग भी मुझे बड़े घूर के देख रहे थे। अक्सर ऐसा ही होता है जब किसी को ढूंढ़ने निकलो तो हर जगह उसका ही चेहरा दिखाई देता है।
हर की पौड़ी में कई लोग थे जो गंगा किनारे डुबकी लगा रहे थे। कोई अपने दादा जी का हाथ पकड़े गंगा के पानी में आहिस्ता उतरने की हिदायत देता तो कोई उसी घाट के एक छोर पर अपने पूर्वजों को तिलांजलि। बहुत से ऐसे थे जो मेरी तरह किसी भटके हुए को ढूंढ रहे थे। मैं उन्हीं लोगों की भीड़ में गंगा के कभी इस घाट तो कभी गंगा के ऊपर बने पुल को पार कर दूसरे घाट चला जाता।
मैं जब पुल की सीढ़ियों से उतर ही रहा था कि एक अधेड़ उम्र का शख़्स एक तस्वीर दिखा कर मुझे पूछ बैठा। .. "भैया क्या आपने इसे कहीं देखा ?"
मैंने तस्वीर को गौर से देखा जैसे मैं जिसकी तलाश में निकला था उसमें उसकी शक्ल ढूंढ रहा हूँ... फिर जैसे ही नजरें उसे नहीं पहचानी मैंने सर हिला के मना किया। वो फिर मेरे पीछे आते एक शख्स से यही सवाल करने लगा।
हालाँकि में थोड़ा आगे निकल गया था मगर मेरे कान अभी उनकी होने वाली बातचीत का पीछा कर रहे थे। उस शख्स ने भी तस्वीर को देखा और उसे हाथ से इशारा करके सुभाष घाट में ढूंढने को कहा। मैंने यह सब सुना तो कुछ आगे बढ़ कर एक आदमी से सुभाष घाट का रास्ता पूछा। फिर हर की पौड़ी के किनारे हर एक इंसान की शक्लों को देखते हुए सुभाष घाट की ओर बढ़ गया।
सुभाष घाट मेरी उम्मीद मुताबिक भीड़-भाड़ वाला नहीं था। बल्कि वो एक ऐसा किनारा था जहां भिखारियों के बच्चे गंगा के शांत पानी में सिक्के ढूंढ रहे थे। एक ऐसा भी किनारा नहीं था जहां उनके नन्हें हाथ पानी की उथली सतह न टटोल रहे हों। एक पल तो लगा मानो हंसों का एक झुण्ड हो जो अपने रोज़मर्रा के क्रियाकलापों में व्यस्त है। वहाँ हर एक उम्र का हंस एक उम्मीद के सहारे उस सिक्के को ढूंढने में लगा था जिससे शायद उसकी एक दिन की भूख मिट सकती है। मेरा दिल अनेकों जज्बातों,संवेदना और पीड़ा के बादलों से उमड़ने-घुमड़ने लगा। ऐसा लगा मानों उनके नन्हे हाथों ने मेरी हृदय की छिछली सतह टटोल ली हो।
मैं कुछ देर उन्हें देखता रहा उनके पास जाकर हर एक चेहरों को देखना मुझे अब तक याद है। वो एक ऐसा ख्याल है जो कभी जहन से जाता नहीं। मन ही मन सिस्टम को कोशा अपने उस भगोड़े भाई को कोशा और जो बच गया उसमें खुद को कोसने लगा। उसी किनारे गंगा में पड़ी एक मूर्ति को देखा जिसकी नजरें भी मुझे ही देख रही थी। फिर उन सब से मुँह मोड़ कर एक भगोड़े सा भागने लगा।
सामने से बंटी अंकल आ रहे थे उन्होंने मुझसे दूर से इशारा करके पूछा " मिला " मैंने गर्दन हिला कर ना कह दिया। जब जहन बैचेन हो तो ज़बान भी निर्वात ढूंढ़ने लगती है वो निर्वात जहाँ शब्द कितने भी क्यों ना हो मगर उनका वजूद होने से भी मायने नहीं रखता। फिर जब हम अपने वजूद से भटक जाते हैं तो गंगा के इन्ही धराओं के किनारे लौट आते हैं।
फिर हम भटक कर हर की पौड़ी से जाने लगे जहाँ गंगा मंदिर और महादेव मंदिर में हाथ जोड़कर उस भागे हुए कि सलामती की प्रार्थना की फिर वहां से बाहर आकर बस अड्डे चले गए।
उस दिन देहरादून की ओर बस में आते हुए पीछे दौड़ती उन निशानों को जिन्हे में सुबह ही पीछे छोड़ आया था, ये एहसास हुआ कि मैं कितना भटका हुआ हूँ। जितनी बार मंज़िल के करीब आता जाता मैं और भटक जाता।
अब इसी बैचेनी,जिंदगी की कशमकश और अजीब सी उथल पुथल से भागते हुए मेरे मन में नाजाने क्यों एक कहानी आने लगी। एक भटके हुए की कहानी। मेरे जैसे जिंदगी के बहुत से उथलपुथल से घबराकर भागे एक भगोड़े की कहानी। भटकने और भटक जाने के बीच झूलती पहाड़ के एक लड़के सचिन की कहानी और सचिन से उसके केदार बनने की कहानी।
बस इसी जगह में आपको खुद से आजाद कर रहा हूँ और केदार से मिला रहा हूँ। ये मानकर कि ज़िम्मेदारी से आजाद होना भगोड़ा होना है, मैं अपने आप को भी एक भगोड़ा साबित कर रहा हूँ।