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माँ सा कोई दूजा नहीं

31 मार्च 2016

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पहली बार किसी गज़ल को पढ़कर आंसू आ गए ।

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शख्सियत, ए 'लख्ते-जिगर, कहला न सका ।

जन्नत,, के धनी "पैर,, कभी सहला न सका ।

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दुध, पिलाया उसने छाती से निचोड़कर,

मैं 'निकम्मा, कभी 1 ग्लास पानी पिला न सका ।

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बुढापे का "सहारा,, हूँ 'अहसास' दिला न सका

पेट पर सुलाने वाली को 'मखमल, पर सुला न सका ।

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वो 'भूखी, सो गई 'बहू, के 'डर, से एकबार मांगकर,

मैं "सुकुन,, के 'दो, निवाले उसे खिला न सका ।

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नजरें उन 'बुढी, "आंखों,, से कभी मिला न सका ।

वो 'दर्द, सहती रही में खटिया पर तिलमिला न सका ।

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जो हर "जीवनभर" 'ममता, के रंग पहनाती रही मुझे,

उसे "दीवाली" पर दो 'जोड़, कपडे सिला न सका ।

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"बिमार बिस्तर से उसे 'शिफा, दिला न सका ।

'खर्च के डर से उसे बडे़ अस्पताल, ले जा न सका ।

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"माँ" के बेटा कहकर 'दम, तौडने बाद से अब तक सोच रहा हूँ,

'दवाई, इतनी भी "महंगी,, न थी के मैं ला ना सका ।

माँ तो माँ होती हे

भाईयों माँ अगर कभी गुस्से मे गाली भी दे तो उसे उसका आशी्रवाद समझकर भूला देना चाहिए|,, इसको जीवन में खुद भी उतारे और लोगो को प्रेरित करें

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चंद्रेश विमला त्रिपाठी

चंद्रेश विमला त्रिपाठी

अत्यंत भावपूर्ण रचना !

31 मार्च 2016

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tyontherrewamp
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