गांधी जयंती गांधी जी को स्मरण करने का पुण्य दिन है। 2 अक्टूबर 1869 को गांधी जी के जन्म हुआ था। इसलिए कृतज्ञ राष्ट्र उनके जन्म दिवस को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है। अर्चना के अगणित स्वर मिलकर इस युग के सर्वश्रेष्ठ महामानव की वंदना करता है। इस दिन स्थान-स्थान पर गांधी जी के जीवन की झांकियां दिखाई जाती है, उनके जीवन की विशिष्ट घटनाओं के चित्र लगाए जाते हैं। गांधी जी पर प्रवचन और भाषण होते है। मुख्य समारोह दिल्ली के राजघाट पर होता है। राष्ट्र के कर्णधार मुख्यतः राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री और नेतागण तथा श्रद्धालु-जन गांधी जी के समाधि पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। प्रार्थना-सभा में राम धुन और गांधी जी के प्रिय भजनों का गान होता है। विभिन्न धर्मो के पुजारी प्रार्थना के साथ अपने-अपने धर्म-ग्रंथों से पाठ करते हैं। श्रद्धा-सुमन चढ़ाने और भजन-गान का कार्यक्रम ‘बिड़ला हाउस’ में भी होता है, जहां गांधी जी शहीद हुए थे।
गाँधी जी का जीवन सत्य, अहिंसा और सादगी से भरा था। उन्होंने जीवन भर लंगोटी में बिता दिया। वे रेल की तीसरी श्रेणी के डिब्बे में यात्रा करते थे। उनका खान-पान सादा था किन्तु विचार उच्च थे। वे सत्य में ईश्वर के दर्शन करते थे। अहिंसा उनके आचरण का मंत्र था; जीवन शैली का मार्ग था। यही मंत्र स्पष्ट रूप से उनके कांग्रेस पार्टी के माध्यम से भारत को स्वत्रंत करवाने के लिए चलाये गए आंदोलनों - सविनय अवज्ञा, असहयोग, स्वदेशी,रोलेट एक्ट, नमक क़ानून, हरिजन एक्ट आदि में स्पष्ट दिखाई देते हैं । यही वे आंदोलन थे, जो भारत की स्वतंत्रता आंदोलन के नींव के पत्थर साबित हुए। उनकी एक आवाज पर जनता ने जेलें भरी, लाठी-गोलियां खाई, यहाँ तक कि अपना जीवन बलिदान तक कर दिया। उनका मुख्य हथियार सत्य और अहिंसा था। वे अहिंसा के पुजारी थे। १९४२ का 'करो या मरो' निर्णायक आंदोलन गाँधी जी का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है।
गाँधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही समाज में व्याप्त कुरीतियों, ऊंच -नीच और सामाजिक बुराईयों के लिए अनेक सफल अभियान चलाये। उन्होंने जहाँ एक ओर लोगों को शरीर और आत्मा का शत्रु बताकर गरीबों को शराब जैसी बुरी लत से दूर किया वही दूसरी ओर हरिजनों के आत्मबल को ऊँचा उठाने के लिए उन्होंने उनकी बस्ती में रहकर 'अछूतोद्वार ' कार्यक्रम शुरू किये। जिसके परिणामस्वरुप अछूतों के लिए कुएं का पानी व मंदिर का दरवाजे खुले और वे हिन्दू धर्म के अविभाज्य अंग बने।
गाँधी जी ने स्वदेशी आंदोलन के माध्यम से लोगों को चरखा चलाने की सीख दी, जिससे वे आत्मनिर्भर बने। उन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। देश में खादी का प्रचार-प्रसार कर उसे देश की आन, बान और शान बनाया। जिसके परिणाम स्वरुप लाखों लोगों को रोजगार मिला और वह राष्ट्रीयता की पहचान बना।
गाँधी जी पर सादा जीवन, उच्च विचार वाली उक्ति सटीक बैठती थी। उनके जीवन में विचारों और क्रियाओं का विरोध और सामंजस्य प्रदर्शित करते हुए रविंद्र नाथ ठाकुर लिखते हैं कि, " वे स्वयं निर्धन और दरिद्र हैं, किन्तु सबको सुखी एवं संपन्न बनाने की दिशा में वे सबसे अधिक क्रियाशील हैं। वे घोर रूप से क्रांतिकारी हैं. किंत्रु क्रांति के पक्ष में वे जिन शक्तियों को जाग्रत करते हैं, वे अपने नियंत्रण में भी रखते हैं। वे एक साथ प्रतिमापूजक और प्रतिमा-भंजक भी हैं। मूर्तियों को यथास्थान रखते हुए भी आराधकों को उच्च स्तर पर ले जाकर प्रतिमाओं के दर्शन करने की शिक्षा देते हैं. वे वर्णाश्रम के विश्वासी हैं, किन्तु जाति-प्रथा को चूर्ण किये जा रहे हैं। भाव-भावना को वे भी मनुष्य की नैतिक प्रगति का बाधक मानते हैं, किन्तु टॉलस्टॉय की भांति वे सौंदर्य और नारी को संदेह की दृष्टि से नहीं देखते। गाँधी जी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जो सुधार वे दूसरों को सिखाते हैं, उन सुधारोँ की कीमत पहले वे आप चुका देते हैं।"
गांधी जी किसी भी काम को छोटा-बड़ा नहीं समझते थे। 'यह मेरा काम नहीं है, उसका काम है' जैसी धारणा में जो अपना समय बर्बाद करते हैं उनके बारे में उनका मानना था कि अपनी सेवा किये बिना कोई दूसरों की सेवा नहीं कर सकता है। दूसरों की सेवा किये बिना जो अपनी ही सेवा करने के इरादे से कोई काम शुरू करता है, वह अपनी और संसार की हानि करता है। वे स्वयं कैसे दूसरों के लिए प्रेरणा बन जाते थे, इस पर एक प्रेरक प्रसंग देखिए- मगनवाड़ी आश्रम में सभी को अपने हिस्से का आटा पीसना पड़ता था। एक बार आटा समाप्त हो गया। आश्रमवासी रसोईया सोचने लगा कि अब क्या किया जाय? यदि वह चाहता तो स्वयं भी पीसकर उस दिन का काम चला सकता था, लेकिन चिढ़कर उसने ऐसा नहीं किया। वह सीधे गांधी जी के पास गया और बोला ‘आज रसोईघर में रोटी बनाने के न आटा है न कोई पीसने वाला है। अब आप ही बताएं, क्या करूं? गांधी जी ने शांत भाव से कहा- ‘इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं है। चलो, मैं चलकर पीस देता हूँ।’ बापू अपना काम छोड़कर गेंहूँ पीसने बैठ गए। जब रसोईया ने गांधी जी को चक्की चलाते देखा तो उसे बड़ी आत्मग्लानि हुई। उसने गांधी जी से कहा कि ‘बापू आप जाइये, मैं खुद ही पीस लूंगा।’ इसका गहरा प्रभाव केवल रसोईया पर ही नहीं बल्कि सभी व्यक्तियों पर पड़ा।