संत कबीर जी का जन्म काशी में सन 1398 (संवत 1455) में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को माना जाता है। उनके अनुयायी उनके जन्मदिवस को 'कबीर साहेब प्रकट दिवस' के रूप में मनाते हैं। वे एक मस्तमौला संत थे, जिन्होंने तत्समय समाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना की।
संत कबीर जयंती के अवसर पर प्रस्तुत है उनकी कुछ सामयिक दोहे, जिनकी प्रासंगिकता आज भी कम नहीं है।
"यहु ऐसा संसार है, जैसा सेमर फूल।
दिन दस के ब्यौहार कौं, झूठे रंग न भूल।।"
दस दिन के जीवन पर मानव नाहक ही मिथ्या अभिमान करता है। वह भूल जाता है कि जीवन तो सेमल के फूल के समान क्षणभंगुर है, जो रूई के समान सब जगह उड़ जाता है। इसलिए-
"काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करैगो कब।।"
मानव को दुष्कर्म टालते हुए सत्कर्म यथाशीघ्र पूरा कर लेना चाहिए। क्योंकि काल का कोई भरोसा नहीं, कब प्रलय आ जाए और वह कुछ अच्छा किए बगैर ही काल के गाल में समा जाए। ऐसी ही जीवन और जगत की यथार्थता का बोध कराते हुए मानव जीवन को सार्थकता की दिशा में ले जाने वाले संत कबीर का जन्म काशी में एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से होना माना जाता है। कहा जाता है कि काशी में स्वामी रामानंद ने भूलवश अपने एक ब्राह्मण भक्त की विधवा कन्या को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया जिसके फलस्वरूप संत कबीर का जन्म हुआ किन्तु लोकलाज के भय से उस ब्राह्मण कन्या ने बालक को लहरतारा नामक तालाब के किनारे छोड़ दिया, जिसे नीमा और अली या नीरू नाम के निःसंतान जुलाहा अपने घर ले आये और उसका लालन-पालन किया। कबीर का जन्म सन् 1398 ई. के लगभग माना जाता है। कहते हैं कबीर बचपन से ही हिन्दू भाव से भक्ति करने लगे थे। 'राम नाम' जपते हुए वे कभी-कभी माथे पर तिलक भी लगा लेते थे। उन्हें स्वामी रामानंद के शिष्य के साथ ही प्रसिद्ध सूफी मुसलमान फकीर शेख तकी का भी शिष्य माना जाता है।
देशाटन करने के कारण उनका हठयोगियों तथा सूफी मुसलमान फकीरों से सत्संग हुआ तो उनका ’राम’ धनुर्धर साकार राम न होकर ब्रह्म के पर्याय बन गए-
"दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना।
राम नाम का मरम है आना।।"
कबीर की बानी ‘निर्गुण बानी‘ कहलाती है। वे रूढि़यों के विरोधी थे। अंधविश्वास, आडम्बर और पाखण्ड का उन्होंने जिस निर्भीकतापूर्वक और बेबाक ढंग से विरोध करने का साहस दिखाया वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने कर्मकाण्ड को प्रधानता देने वाले पंडितों और मुल्लों दोनों को खरी-खरी सुनाई-
‘‘अपनी देखि करत नहिं अहमक, कहत हमारे बड़न किया।
उसका खून तुम्हारी गरदन, जिन तुमको उपदेश दिया।।
बकरी पाती खाति है, ताको काढ़ी खाल।
जो नर बकरी खात है, जिनका कौन हवाल।।"
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"है कोई गुरु ज्ञानी जगत महँ उलटि बेद बूझै।
पानी महँ बरै, अंबहि आँखिन्ह सूझै।
कबीर का साम्प्रदायिक सद्भव आज भी हिन्दू-मुस्लिम एकता का संदेश दे रहा है-
‘हिन्दू-तुरूक की एक राह है, सतगुरु इहै बताई।
कहै कबीर सुनो हे साधे, राम न कहेउ खुदाई।।"
आज हमारा जीवन राजनीति और समाजनीति के दो पहलुओं के बीच " 'कबीर' आप ठगाइये, और न ठगिये कोय। आप ठगे सुख ऊपजै, और ठगे दुख होय।।" की तर्ज पर झूल रहा है। राजनीति के साथ समाज के हरेक व्यक्ति का कहीं न कहीं से व्यावहारिक संबंध जुड़ा हुआ है। राजनीति से परे आज साधु-संन्यासी भी दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आ पाते, ऐसे में यदि आज कबीर जीवित होते तो निश्चित वे अपनी वाणी से सामाजिक वैषम्य, असामंजस्य, अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता, अनीति और अन्याय के प्रति विद्रोह प्रकट कर राजनीति के छल-कपट, वोट-नीति, फूट डालो और राज्य करो की नीति, व्यक्तिवाद की वर्चस्वता, प्रजातंत्र की आड़ लेकर राजतंत्र के कृत्य, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के प्रति जनता को सचेत कर उनमें जान फूंक देते जिससे स्वस्थ्य राष्ट्र का निर्माण हो उठता।