मैं अथाह समुद्र हूँ तू किनारा है मेरा
मैं ढलती शाम हूँ तू उगता सूरज है मेरा
मैं जाती हुई कोई सर्दी की रात हूँ
तू बसंत की पहली फुहार है मेरा
मैं धूप हूँ तो तू साया है मेरा
मैं काँपती हुई सड़कों का सन्नाटा हूँ
तू दिवाली मानता कोई शहर है मेरा
मैं बुझती हुई लौ भी हूँ तो क्या हुआ ?
तू जलता हुआ चिराग़ है मेरा
तू आज भी है मेरा तू कल भी मेरा है
चाहें चटकती धूप सा बिखरता सा
चाहें तारों सा टिमटिमाता सा
हर हाल में बेहाली में
इक तू ही तो बस अपना है । ~अवंतिका केन (लेखिका )