हर घड़ी गम से गुफ़्तगू में निकल जाती है,
गम अगर छोड़े कभी तो कहीं ख़ुशी से मिलूं,
आँखों में अश्क़ की नदियां-सी उभर आती है,
आँखों के अश्क़ रुके तो कहीं हँसी से मिलूं,
राह कोई भी चलूँ जख्म हैं स्वागत में खड़े,
दर्द फुर्सत दे अगर तो कहीं राहत से मिलूं,
रोजमर्रा की जरूरतों से जंग जारी है,
प्यास-पानी से बढे बात तो चाहत से मिलूं,
क्या हुआ कल, क्या होगा कल, ये सोंचने में मगन,
निकलूं उलझन से तो मैं आज की आहट से मिलूं,
जीत या हार, मिले मार या तारीफ़ कोई,
औरों की बात से निकलूं तो कहीं खुद से मिलूं,
मौत के डर से यहां रोज मरे जाते हैं,
मौत का डर ये मिटे तो मैं जिंदगी से मिलूं …