"आज हिंदी दिवस है,
समस्त सरकारी कार्यालयों में,
और कुछ निजी कार्यालयों में भी,
सभाएं बड़ी ही सुन्दर सजी हैं,
बड़े बड़े लोग आएं हैं,
प्रतीत होता है,
विरानो में जैसे गुलशन समायें हैं,
चेहरों पे ख़ुशी और दिल में उदासी लिए
अधरों पे मुस्कान और आँखों में मायूसी लिए,
देश के कर्णधार आएं हैं,
कलयुग के अवतार आएं हैं,
किन्तु आज एक सवाल उठता है मेरे मन में,
जो माँगता है जवाब मुझसे;इस वतन से,
क्यों आज हमने सभाएं सजायी हैं,
क्यों विचारकों की फ़ौज़ बुलाई है,
भूली हिंदी को याद करने को?
या इसकी दशा पे विलाप करने को?
जवाब इस सवाल का क्या कोई दे पायेगा?
हिंदी को उसकी खोयी हुई गरिमा लौटाएगा?
अपने ही देश में हिंदी ने खोया सम्मान है,
ग़ैरों ने आकर यहाँ किया इसका अपमान है,
हमने इसे भुला दिया, ग़ैरों को अपना लिया,
जिसने हमें अमृत दिया, उसे ही जहर पिला दिया,
कहने को तो हिंदी हमारी माँ है,
किन्तु आज बेजान है,
फिर भी न जाने क्यों, इसके दर्द से,
हमारे देशवासी अनजान हैं,
तो फिर क्यों आज हम सब यहाँ आएं हैं?
क्यों ; आखिर क्यों?
परंपरा निभाने को या झूठी कसमें खाने को?
ये कहने कि हम हिंदी को सम्मान देंगे,
हिंदी को इसकी खोयी हुई पहचान देंगे,
किन्तु ये खोखले वचन हैं ;पूरे नहीं होंगे,
कुछ पहर न इक पखवारे के ढलते ही,
तोड़ दिए जायेंगे,
आज तालियां बजेंगी ;खूब बजेंगी,
और कल हिंदी को पूर्णतः भूल जायेंगे,
फिर अगले वर्ष,
आज ही के दिन,
सजेंगी सभाएं और वचन लिए जायेंगे,
और पुनः अगले दिन,
तोड़ दिए जायेंगे... "
ओम