25 जुलाई 2015
हकीम दानिश भाई, बहुत अच्छे ख्याल हैं आपके. मैं तो आपकी तस्वीर से आपकी उम्र का अंदाजा लगाता हूँ और फिर आपके लेख पढता हूँ...और तहे दिल से सोचता हूँ कि काश एक ऐसा वक़्त आ जाये जब इंसान को उसकी जाति और मज़हब के बजाय बस एक इंसान की तरह जाना जाए. आप जानते होंगे कि हमारे देश की सशस्त्र सेना की हर कमान में हर मज़हब को मानने वाले सिपाही होते हैं जहाँ सबका एक मज़हब होता है, देश की प्राण-प्रण से सेवा और हिफाज़त. एक-दूसरे के प्रति भाई-चारे की भावना, सम्मान और सहिष्णुता हमारी एकता और अखंडता के लिए अत्यंत आवश्यक है. अंतिम पंक्तियों में, 'अपना हथियार नमाज़', 'अपने रब का डर', और 'मोहब्बत के बम' जैसी उपमाएं ठीक नहीं लगीं...बाक़ी लेख बहुत अच्छा है, आपकी सोच अच्छी है.
25 जुलाई 2015