रामसिंह मिडिल स्कूल में अध्यापक था और उसकी नयी ही पोस्टिंग हुई थी। अभी दो वर्ष का परिविक्षा काल ही उसका पूर्ण हुआ नहीं था इसलिए राज्य सरकार के आदेशों के अनुसार उसे वेतन भी सीमित ही मिलता था। रामसिंह एक खानदानी ठिकानेदार का इकलौता बेटा था जिसके जमीन तो कहने को दो सौ बिघा थी लेकिन उस पर अन्य लोगों का कब्जा था और रामसिंह ने बड़े संघर्ष के दिन भी देखे थे। उसके दादा के नाम दो सौ बिघा से अधिक जमीन थी लेकिन रामसिंह के पिता के बचपन में ही रामसिंह के दादा की मृत्यु हो गयी तो काश्त करने वाले अन्य लोगों ने धीरे-धीरे उन जमीनों में से काफी बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था। रामसिंह के पिता ने कोर्ट-कचहरियों की शरण भी ली लेकिन जैसे कि कहते हैं न कि, “कब्जा सच्चा झगड़ा झूठा।“ रामसिंह के पिता को अपनी जमीनों पर कब्जा नहीं मिल पाया था। अपने पिता को बची-खुची जमीन में हाड़तोड़ मेहनत करते देख रामसिंह ने पढ़ाई में पूरा ध्यान दिया और बी.एड. करने के बाद वह सरकारी अध्यापक हो गया था। उसकी पहली ही पोस्टिंग बापजी की ढ़ाणी गांव में हुई थी।
बापजी की ढ़ाणी, यह नाम भी अपने आप में एक इतिहास को समेटे हुए था। गांव के बड़े-बुजर्ग बताते हैं कि, कभी यहाँ पर एक नागा बाबा ने तपस्या की थी और उन्होने ही गांव के कच्चे जोहड़ के किनारे तीन पीपल के पेड़ भी लगाए थे जो आज काफी भीमकाय आकार लिए हुए है। आस-पास के बीसों गांवों में इतने बड़े पीपल कहीं नहीं मिलते हैं और इन्हीं पीपलों के नीचे ही नागा बाबा ने समाधी ली थी। उनके समाधी लेने के कुछ वर्षों बाद इस इलाके में भीषण अकाल पड़ा और लोग भूखों मरने लगे थे और गांव छोड़ कर जाने लगे थे। कहते हैं कि, जब गांव के लोगों ने गांव छोड़ना शुरू किया तब एक युवा सन्यासी उनके पास आया और गांव वालों से नागा-बाबा की पूजा करने व गांव का नाम उनके नाम पर करने की सलाह दी थी। गांव वालों ने इस सलाह को मान लिया और कुछ दिन इंतजार करने का निर्णय लिया। गांव वालों ने पीपल के नीचे की समाधी पर बाबा का अखण्ड दीपक जलाया और गांव का नाम रख दिया बाबजी की ढ़ाणी जो बाबजी से होते-होते बापजी की ढ़ाणी हो गया। बताते हैं गांव के बूढ़े-बडेरे लोग कि, जिस दिन बाबा की समाधी पर दीपक जलाया था उसी रात को बड़ी भारी मूसलाधार बारिश हुई थी और पुराना कच्चा जोहड़ पहली बार एक ही बारिश में पूरा भर गया था, बस उसी दिन से गांव के लोगों ने नागा-बाबा को गांव का कुलदेव मान लिया था।
यह गांव बापजी की ढ़ाणी शहर से कोई पचास मील दूर था और आने-जाने के लिए सिर्फ एक बस ही थी तो जिस भी अध्यापक की यहाँ नौकरी लगती वो अपने सारे दांव-पेच लगा कर यहाँ से अपनी बदली करवा ही लेता था जिसके कारण इस गांव के स्कूल में अध्यापकों की कमी ही रहती थी। रामसिंह ने अपनी पोस्टिंग के दिन ही इसे महसूस कर लिया था जब हैडमास्टरजी ने आते ही कहा था कि -
- आप कितने दिन रूकोगे मास्टरजी।
- मैं कुछ समझा नहीं हैड साहब। रामसिंह ने असमंजस में भरते हुए कहा।
- कुछ नहीं मास्टरजी, यहाँ कोई टिकना ही नहीं चाहता, सबको अपने घर के नजदीक ही पोस्टिंग चाहिए। हैडमास्टर ने थोड़ा गंभीर होते हुए कहा।
- आप भी तो रूके हुए हैं हैड साहब। रामसिंह ने जिज्ञासा की।
- अब हम तो कहाँ जायेंगे मास्टरजी, घर-बार सब छोड़ कर यहीं आसियाना बना लिया है। हैडमास्टर ने थोड़ा निराशा में भर कर कहा।
- ऐसा कैसे, मैं कुछ समझा नहीं। रामसिंह ने उत्सुकता से पूछा।
रामसिंह के पूछने पर हैडमास्टर ने बताया कि, सन् इक्कहतर की लड़ाई में पाकिस्तान से रातों-रात भागकर आना पड़ा था उनके परिवार को और फिर इसी गांव में पहली बार शरण मिली थी नागा-बाबा की समाधी वाले मंदिर में ही।
- बस उसी दिन से बाबाजी की शरण में ही दिन काट रहे हैं। हैडमास्टर ने अपनी पूरी कहानी बतायी।
- स्कूल में आपके अलावा ओर कौन-कौन हैं हैड साहब। रामसिंह ने पूछा।
- एक मैं हूँ, एक आप आये हैं, पचास विद्यार्थी है बस। हैडमास्टर ने हँसते हुए कहा।
- हम सिर्फ दो लोग ही संभालेंगे स्कूल को। रामसिंह ने हैरानी में भर कर कहा।
- अरे हाँ, मनभरी भी आती है साफ-सफाई करने के लिए। हैडमास्टर ने बताया।
- मनभरी! रामसिंह ने नाम के अनुरूप किसी युवा महिला की कल्पना करते हुए हल्की सी मुस्कुराहट बिखेरी।
- हाँ मनभरी, कल सुबह मिल लेना।
अगले दिन सुबह स्कूल में साफ-सफाई के लिए मनभरी उपस्थित हुई। जी हाँ, मनभरी, यही नाम तो बताया था उसका हैडमास्टरजी ने कल। स्कूल में सफाई करने का काम करने वाली मनभरी दुबले-पतले शरीर और बिल्कुल छोटी सी कदकाठी की थी। गौरवर्णा मनभरी का रंग एकदम गेहूँआ पीलापन लिए हुए था मानो पके हुए गेहूँ की बालियाँ खिल रही हो। लगभग साठ और सत्तर के बीच की उम्र में भी वो इतनी सुंदर दिखती थी कि, उसके यौवनकाल में वो कैसे सौन्दर्य की मालकिन रही होगी यह सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। अपनी उम्र की तरह ही कम होते जा रहे श्वेत केशों में सिंदूर की गहरी लालिमा लिए भरी हुई मांग उसके सुहागन होने की गवाही ही नहीं देती थी बल्कि अपने पति के प्रति गहरे प्रेम का प्रतीक भी दिखायी देती थी। ललाट उसका काफी बड़ा था और उस पर वो एक बड़ी सी सुर्ख लाल बिंदी भी लगाती थी जो उसकी जातीय महिलाओं का एक अघोषित फैशन या पहचान भी कही जा सकती है। उससे जब भी कोई मिलता तो वह हर मिलने वाले से जयरामजी की जरूर कहा करती थी और जयरामजी की कहते वक्त उसके चेहरे पर बड़ी प्यारी सी मुस्कान रहा करती थी। अपने मृदु व्यवहार से वह सबको अच्छी लगती लेकिन पिछले पांच-सात दिनों से वह परेशान सी दिखायी दे रही थी।
उसको परेशान देख रामसिंह ने उससे बात की तो एक-एक कड़ियां खुलती गयी। मनभरी ने बताया -
- स्कूल बंद हो रही है मास्टरजी।
- तो क्या हुआ, बच्चों की छुट्टियां हो गयी अब तो स्कूल बंद होगा ही, दो महीने की ही तो बात है फिर खुल जायेगी। रामसिंह ने कहा।
- दो महीने मेरे लिए बड़े भारी पड़ेंगे मास्टरजी। मनभरी ने निराशा में भरते हुए कहा।
- क्यों ऐसा क्या हो गया। रामसिंह ने फिर पूछा।
मनभरी ने बताया उसे कि, उसके पति को बहुत सालों पहले लकवे का दौरा पड़ गया था जिसके कारण वह अब चल-फिर भी नहीं पाता है। सुबह स्कूल में काम करने के बाद वह गांव के ही बड़े जमींदार के यहाँ पशुओं का बाड़ा बुहारने का काम भी करती है। जमींदार के यहाँ से उसे खाने-पीने का सामान और कपड़े-लत्ते मिल जाते हैं तो स्कूल से मिलने वाले पैसों से घर का काम चल जाता है लेकिन दो महीने स्कूल बंद रहने पर उसको मिलने वाले पैसे भी बंद हो जाते हैं तो यह दो महीने निकालने बड़े मुश्किल हो जाते हैं और उसे लोगों से उधार ले कर काम चलाना पड़ता है।
- पर बाईजी छुट्टीयों में स्कूल तो बंद करना मजबूरी है न, और छुट्टीयों के आपको पैसे भी नहीं दे सकते। रामसिंह ने कहा।
- हाँ पता है मास्टरजी, तभी तो परेशानी रहती है। अब गाँव में उधार भी तो रोज-रोज किससे मांगू। कहते हुए उसकी आँखें पनियाली हो गयी थी।
- बाईजी कौन-कौन है आपके घर में। रामसिंह ने जानने का प्रयास किया।
- मेरे पति हैं जो लकवे से बीमार है और काफी वर्षों से बिस्तर पर ही है और मैं हूँ। मनभरी ने उदास भाव में बताया।
- आपके संतान नहीं है। रामसिंह ने सीधे ही असमंजस में भरे भाव से पूछ लिया।
- औलाद। गहरी सांस लेते हुए मनभरी उदास हो गयी।
रामसिंह ने उस निराशा के भाव और उदासी के बारे में थोड़ा कुरेदा तो मनभरी के आँसू छलक पड़े। रामसिंह ने उसे सांत्वना देते हुए पानी पिलाया और फिर पूछा तो एक दर्द भरी कहानी सामने आयी। मनभरी ने बताया कि, उसका पीहर पंजाब और राजस्थान के सीमावर्ती इलाके में था और पीहरवाले भी गांव में कोटवाली का काम करते थे। छोटी उम्र में उसका विवाह हो गया था। अपने पीहर के गांव से बहुत दूर लेकिन उसका पति काफी हट्टा-कट्ठा नौजवान था और काफी मेहनती भी था। विवाह के बहुत वर्षों बाद तक भी जब उसको संतान नहीं हुई तो उसने बहुत जात-जडूले बोले, खूब भैरव मनाए, माता की मनौतियां भी ली लेकिन संतान नहीं हुई फिर किसी ने उसे इस गांव के नागा-बाबा की समाधी और उसके चमत्कार को बताया। दोनो पति-पत्नी बाबाजी की समाधी पर आये और एक विचित्र संकल्प ले लिया था कि, यदि उनको संतान होती है तो वो लोग अपना गांव छोड़ कर बाबाजी के इस गांव बापजी की ढ़ाणी में ही बस जायेंगे। पता नहीं बाबा का चमत्कार था या उन लोगों का भाग्य लेकिन उनके एक साल के भीतर ही जुड़वां दो संताने हुई। एक बेटा और एक बेटी। मनभरी के घर रौनक आ गयी थी। पूरे समाज के लोगों ने मनभरी के पति से शराब की दावत मांगी और खुशी में बौराया पति पहली बार शराब को चख बैठा था। इसके बाद तो शराब धीरे-धीरे उसका शौक बन गयी थी। बाबाजी की समाधी पर किए गए संकल्प के अनुसार मनभरी और उसका पति अपने पैतृक गांव के मकान, थोड़ी सी खेती सब बेच-बाच कर इस नए गांव में आ कर बस गए थे।
पहले पहल तो गांव के लोगों ने अजनबीपन दिखाया लेकिन मनभरी के मृदु व्यवहार और उसके पति की मेहनती प्रवृत्ति के कारण लोगों ने धीरे-धीरे इनको काम देना शुरू कर दिया था। दिन बीते, साल बीते और बेटी के ब्याह की तैयारियां चलने लगी लेकिन बेटी हैजे की शिकार हो गयी और बेटी के ब्याह की उमंग मनभरी के मन में ही दब कर रह गयी। बेटी के जाने के बाद उसका पति शराब खूब पीने लगा था और धीरे-धीरे बुढ़ाते शरीर को शराब ने लीलना शुरू कर दिया था। अपने बाप को शराब के नशे में चूर देखने वाला बेटा भी दुव्र्यसन का शिकार हो चुका था और अपनी माँ से रोज पैसों की मांग करता था। वह पक्का शराबी और जुआरी बन गया था। मनभरी ने उसे सुधारने का अंतिम प्रयास किया और पास के ही शहर की एक लड़की से उसका विवाह करवा दिया परन्तु यह दांव तो मनभरी का एकदम ही उल्टा पड़ गया था। पहले तो केवल बेटे से ही माथापच्ची करनी पड़ती थी अब बहु भी मनभरी को ताने देने लगी थी।
जुआरी बेटे को समझाने के सारे प्रयास असफल हो गये तो माँ-बाप ने उसे धमकाने की कोशिश की लेकिन बुढ़ाते बाप पर बेटे ने हाथ उठा दिया और बहु ने मनभरी के साथ मारपीट कर ली। गांव वालों ने बीच-बचाव किया और उसके बाद बेटा-बहु गांव छोड़ कर शहर चले गए दोनों बुढ़े माँ-बाप को अकेला छोड़ कर।
- अब आप ही बताओ मास्टरजी, घर में कौन-कौन हैं, क्या बताऊँ। मनभरी ने अपने आँसू पोंछते हुए पूछा।
- आपने सच कहा बाईजी, जो बेटा-बहू अपने माँ-बाप पर हाथ उठा दे वह तो मरे समान ही होते हैं। रामसिंह ने अपनी आँखें पोंछते हुए कहा।
- अरे मास्टरजी आप तो रोने लगे। मनभरी ने हँसते हुए कहा।
- कुछ नहीं बाईजी, पिताजी की याद आ गयी थी। रामसिंह ने बात टालते हुए कहा।
- आपके पिताजी भाग्यशाली हैं मास्टरजी जो आप जैसा बेटा मिला। मनभरी ने गहरी सांस लेते हुए कहा।
- भाग्यशाली तो मैं हूँ बाईजी जो ऐसे बाप के घर में जन्म लिया जिसने हाड़तोड़ मेहनत कर मुझे इस लायक बनाया कि, इस दुनियां के सामने खड़ा हो सकूं। रामसिंह ने अपनी कामयाबी का सारा श्रेय अपने पिता के खाते में डालते हुए कहा।
- लेकिन संतान वाली बात तो समझ आ गयी फिर भी आर्थिक रूप से इतनी कमजोरी वाली बात समझ नहीं बाती बाईजी। रामसिंह ने पूछा।
- क्या बताऊँ मास्टरजी। मनभरी ने बताना शुरू किया तो बात खुलती गयी।
उसने बताया कि, अपने पैतृक गांव की जमीन, मकान सब बेच कर इस गांव में आ बसे तो शुरू में तो लोगों ने इनको अपने नजदीक तक न फटकने दिया लेकिन मेहनतकश पति ने अपनी मेहनत और मनभरी ने अपने मृदु व्यवहार से गांव के लोगों के दिलों में अपनी जगह बना ली थी। यहाँ पर अपनी जमीन भी खरीद ली थी लेकिन पति की बीमारी में वो सारी जमीन बिक गयी बस रहने को आधा पक्का मकान ही बच गया है। बेटे से मदद की कोई उम्मीद करना भी बेमानी है। मनभरी ने बताया कि, स्कूल से मिलने वाले रूपयों में से भी पांच सौ रूपये उसे एक दूसरी महिला को देने पड़ते हैं।
- दूसरी महिला को पांच सौ रूपये देने पड़ते हैं! क्यों? रामसिंह ने आश्चर्य में भरते हुए पूछा।
- उसकी सरकारी नौकरी हो गयी मास्टरजी पास के शहर वाली नगरपालिका में और उसने मुझे इस स्कूल में लगवाने के लिए हैड साहब से सिफारिश की थी, इसलिए अब उसको हर महीने पांच सौ रूपये देने पड़ते हैं। मनभरी ने पूरी बात बतायी।
- अरे तो उसको नौकरी मिल गयी तो उसे तो यहाँ से हटना ही था, तुम्हे उसे पैसे देने की क्या जरूरत है? रामसिंह ने कहा।
- वो कहती है तुझे मैने लगाया है मेरी जगह, यदि मुझे रूपये नहीं देगी तो मैं तुझे हटा दूंगी और दूसरी किसी महिला को लगा दूंगी, अब काम छोड़ने से अच्छा है उसे कुछ रूपये ही दे दूं। मनभरी ने बताया।
- उसके बाप का राज है क्या जो तुझे हटा देगी। मेरे से मिलाना कल उसको। रामसिंह ने क्रोध में भरते हुए कहा।
अगले दिन मनभरी उस महिला को लेकर स्कूल आयी थी। संतू नाम बताया था उसने अपना। रामसिंह ने उसे मनभरी से रूपये लेने की बात पूछी तो उसने कहा।
- मास्साब, मैने इसे अपनी जगह लगाया है तो मेरा भी तो कुछ हक बनता होगा।
- तुम तो नगरपालिका में नौकरी करती हो न, वहाँ तुम्हे तनख्वा नहीं मिलती क्या? जो इस गरीब के थोड़े से पैसों पर भी नजर लगाए रखती हो। रामसिंह ने गुस्से में उबलते हुए कहा।
- वो तो मेरी नौकरी के हैं, पर इस स्कूल में तो इससे पहले मैं काम करती थी, मेरी जगह ही तो मैने इसे लगवाया था हैड साहब से कह कर, इसलिए रूपये लेती हूँ। संतू ने कहा।
- तेरी जगह उसी दिन खत्म हो गयी थी जिस दिन तुम नगरपालिका में लगी थी, अब यहाँ मनभरी काम करती है तो रूपये भी उसे ही मिलेंगे और यदि अब तूने उससे रूपयों का तकादा किया या रूपये लिए तो मैं नगरपालिका में तेरी शिकायत कर दूंगा, क्यों किसी गरीब का हक मारती हो, शर्म नहीं आती तुम्हें। रामसिंह ने बिफरते हुए कहा।
- नहीं मास्साब, नगरपालिका में शिकायत मत करना, आज से मैं इससे कोई रूपया नहीं लूंगी। संतू शिकायत के नाम से डर गयी थी।
- इस गरीब का बेटा इसे निहाल नहीं करता, पति इसका बीमार है, उम्र में ये तुमसे दोगुनी है फिर भी तुमने इससे रूपये लिए सिर्फ इस बात के कि, तुमने इसे हैड साहब से मिलाया था। ये पैसे लेकर कहाँ रखोगी संतू। ऊपरवाला सब की करतूतें देखता है। रामसिंह ने गंभीर होते हुए कहा।
- मुझ से गलती हो गयी मास्साब, अब मैं इसकी मदद करने कोशिश करूंगी। संतू ने हाथ जोड़ कर माफी मांगते हुए कहा।
- ठीक है, अब तुम जा सकती हो। रामसिंह ने कहा।
उसके जाने के बाद मनभरी ने आँखों में आँसू भरते हुए रामसिंह को बहुत आशीषें दी और उसके पाँवों की तरफ झुकी तो रामसिंह दो कदम पीछे हट गया।
- अरे, आप मेरी माँ की उम्र से भी बड़ी हैं बाईजी, ये क्या कर रहे हो। रामसिंह ने कहा।
- आपने मेरी जो मदद की है वो तो सगा बेटा भी नहीं करता मास्टरजी, भगवान आपको लंबी उम्र दे, सदा खुश रखे। मनभरी के मुख से आशीर्वादों की झड़ी लग गयी थी।
- मैंने तो को विशेष काम नहीं किया है बाईजी, बस जो आपका हक़ था उसी की बात की है, वैसे भी कल से स्कूल बंद हो रहा है बाईजी, अपना और अपने पति का ख्याल रखना, दो महीने की ही तो बात है मैं हैड साहब से कह कर आपको कुछ रूपये एडवांस दिलवाने का प्रयास करता हूँ, मेरी तरफ से आप ये रखीए। कहते हुए रामसिंह ने एक हजार रूपये मनभरी को दे दिये।
- नहीं मास्टरजी, आपसे मैं रूपये नहीं लूंगी। मनभरी ने मना करते हुए कहा।
- अरे नहीं बाईजी, आप ये रूपये रखीए आपके काम आयेंगे। रामसिंह ने जोर देकर रूपये देते हुए कहा।
रूपये लेने के बाद मनभरी हजारों-हजार आशीर्वाद देती स्कूल से रवाना हुई। दूर जाती हुई मनभरी की छोटी सी काया जब तक आँखों से ओझल नहीं हुई तब तक रामसिंह उसे देखता रहा। अगले दिन से स्कूल की छुट्टीयां हो गयी और रामसिंह अपने गाँव आ गया। शाम के वक्त टेलीविजन पर प्रधानमंत्री का भाषण आ रहा था जिसमें देश की तरक्की का गुणगान गाया जा रहा था और रामसिंह मन ही मन सोच रहा था कि, भारत ने कितना विकास किया है ये जानना है तो हमें किसी बापजी की ढ़ाणी में रहने वाली मनभरी से मिलना होगा, पता चल जायेगा देश ने कितना विकास किया है।