बक्त का मंजर बढ़ता गया,
वह अपने सवाल में कुछ न कुछ करता ही गया।
मैं तो था एक प्रतिभागी, जो कभी न था अवसरवादी।
हुआ यूं कुछ मेरे साथ, मेरी दुनिया ही बदल गयी अपने आप। यूं तो तालीम मिली मानव को इंसान बनाने की,
पर तालीम ही नजर आयी अपनी वजूद बचाने की।
यह भी एक दौर था, जिसमें हुआ कुछ और ही था, काबिलियत को मायूसी, सौदेबाजों को ताजपोशी मिली
न जाने इनको कैसे मनमोहन, मुलायम व जोशी मिले।
सब करते जुगल किशोर, करते उलट फेर में फेर,
उलझे को और उलझाते, ऊपर से खूब सहलाते।
अपने को मसीहा बनाते, और न जाने उन्हें कितना सताते।दरिद्र को दरिद्र बनाते,अपना राज बढ़ाने का स्वयंबर रचाते। नैतिकता कोई इनसे सीखे, झूठ बोलना फ्री में खरीदे।
होते ये रंगमंच के अच्छे कलाकार,
कभी टोपी तो कभी हवाई जहाज पर सवार।
हाथ जोड़ना, चरण छूना, ये होते इनके औजार,
कभी ये करते हम पे वार, तो कभी होते खुद के शिकार।
सफेद टोपी, सफेद लिबास, ये होते इनके पोशाक।
दूर से दिखते एक पहलवान,पर होते एक गीदड़ के मेजबान।
करते तो वादों की बीछार, जिसमें होता
योजनाओं का साज ही साज
पर ये कहते बौछार को बौछार समझो,
कभी न इसको मूसलाधार समझो।
हम गरजते हैं ज्यादा, पर बरसते हैं कम,
अब तो समझो, कितना तरस खाते हैं हम।
सच को एक पल में झूठ बनाते, राई को फौरन पहाड़ बनाते खाई को खाड़ी बनाते, मजहब के नाम पे लड़ाते ।
देश की लूटकर खण्डहर बनाते, अपने घर को खूब सजाते रिश्ते ये पल में बनाते, कुछ आजमाते तो कुछ जलाते।
कहते हम हैं नेता, हमको न दे ठेका,
हमसे कुछ न होता, सिवाय जुबान ही देता। ।
विनोद पांडेय "तरु"