इस गम-ए-नसीहत को राह नहीं दिखता
बुलाने पर भी कोई पास नहीं दिखता।
बेताबी और भी बढ़ जाती
जब हाथ कुछ खास नहीं आती।
उदासी का मंजर गम का सैलाब बन जाता
उम्मीदों का घड़ा टूट अपने वजूद में सिमट जाता।
उठता हजारों सवाल मन में
पूछता में इस गम-ए-नसीहत मन से।
क्यों ये तेरे ही साथ होता हर बार
तेरा ही काफिला क्यों पिछड़ता अकेला बार-बार।
अपने ही महफिल में खुद को अकेला किया,
ख्वाइसों की मंजिल का कुछ ऐसा ताना-बाना किया।
नहीं दिखता कोई साथ इस मेरे सफर में
मुझे ही चलना पड़ता अकेले तन्हा इस सफर में
कहने को है हजारों हमसफर पर
ऐसे कि जैसे कुआं ही पूछे पानी की डगर