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नहीं देख पाता हूँ ...

20 अगस्त 2022

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सूरज की पहली किरण से 

घर के मुंडेर पर और आँगन में 

कौए के कांव-कांव 

और गौरेये की चीं-चीं 

किसी बच्चे के हाथ से 

रोटी छिन जाने की 

वे गुदगुदाती कहानियाँ 

नहीं सुन पाता हूँ । 


नदी, खेत, नाले 

वर्षा के कारण बने 

पानी के पनाले में 

रंग-बिरंगी और छोटी-छोटी 

वे चंचल पौठी मछलियाँ  

नहीं देख पाता हूँ । 


भादों के अधखुले आसमान में 

मँडराते गिद्धों की कतारें,

लगते अटकलें;

चहकते मैना और तोते की 

चें-चें और टें-टें; 

गौधूलि में लौटते बगुलों की 

सफलता-असफलता  

के गीत 

नहीं सुन पाता हूँ। 


हाथ तक अंधेरा पसरते ही

घर के पिछवाड़े में  

सियार का हुआं-हुआं 

और लकड़बग्घे के ही-ही और फें-फें 

रात में किसी के खेत को 

नील गाय या जंगली सूअर ने चर लिया 

नहीं सुन पाता हूँ। 


जाड़े की सुबह-शाम अलाव तापते 

गर्मी के दिनों में देर रात तक  

पड़ोसी के आँगन में 

दुःख-सुख बांटते 

गाँव के लोगों को 

जमा होते और बतियाते 

नहीं देख पाता हूँ। 


हाँ, देखता हूँ - 

सिकुड़ती नदियां

प्लास्टिक से लिपटे 

स्याह पड़े बालू और मिट्टी के बीच ठहरे हुए 

बजबजाते नाले का काला पानी। 


हाँ, देख पाता हूँ – 

दूर से ही चमकते 

कहीं रंग-बिरंगे; छोटा ही सही, 

कंक्रीट की कृतियाँ; 

नंगे टीले

वीरान दर्रे और खाइयाँ ।   


हाँ, देखता हूँ – 

अपनी कृति वीरान-से पड़े 

चमकते महलों की 

चौकीदारी करते 

और साल दो साल में 

अपनी ही संतान के आने की बाट जोगते,  

दहलीज़ पर बैठे, टकटकी लगाए 

जीवन के अंतिम पड़ाव पर ठहरे 

वे बूढ़े-बुढ़ियाँ । 


- गुरु प्रसाद शर्मा 

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