बेतहाशा बेजुबान बागी सा बंदा,मूकबधिर न वो न आंखो से अंधा,खुद को यूं खो चुका मिल न पाया फिर,विकल्प और भी थे क्यूं चुना फांसी का फंदा।खबर फैली शहर में बदले नही थे खास हावभाव,बस माँ उसकी शोक मनाती कुछ अपने ही परेशान,कहीं कर्ज़दार तो नही था वो भावनाओं के ठेकेदारों का,मंदिर