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पागल कौन बनाम जिंदगी किसी मुफलिस की कबा तो नहीं...

22 जून 2016

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अरसा हो गए पर आज भी यह घटना याद आती है मानो कल की हो । मंडी हाउस श्रीराम सेंटर के आगे चाय की दुकान पर मैं बैठा था अपने कुछ मित्रों के साथ एक पेड के नीचे बने चबूतरे पर। आपस में हम जोर जोर से बातें कर रहे थे कि तभी पास ही खडी एक लडकी हमलोगों के निकट आ बैठी। हमने उधर ध्यान नहीं दिया पर वह कुछ बेचैन लग रही थी। कुछ देर बार हमारा सोचना सही निकला।

बिना किसी प्रसंग के उसने शुरू कर दिया - कि अरे , यहां रोज केाई ना कोई पागल हो जाता है। हम अब भी उसे इग्नोर कर रहे थे पर वह मुखातिब रही और बोलती चली गयी - हां उधर देखिए वह आदमी पागल होकर कैसा चीख रहा है।

हमने उधर देखा तो ऐसा कोई आदमी नहीं दिखा, पर हमने हां में सिर हिला दिया। तब उसने दूसरी ओर इशारा कर कहा और देखिए उधर भी एक लडकी पगला गयी है। हमने उस दिशा में देखा तो उधर भी कुछ वैसा नहीं था।

हमें लगा कि कहीं यह लडकी ही तो पागल नहीं है । सो हम फिर अपनी बातचीत में मशगूल हो गये। वह लडकी लगता है हमसे बातें किए बिना जाने को तैयार नहीं थी।

तब हमने उधर तबज्जो दी। तो उसने मेरे मित्र से तपाक से पूछा - आप कहां से हैं । मित्र मजाक के मूड में आ गए और पूछा पहले आप बताइए कहां की हैं, तो उसने जिद की नहीं पहले आप बताइए , बिहार से हैं।

तो मित्र ने जवाब दिया नहीं - बनारस से हैं। अब लडकी ने तपाक से कहा - हम भी इलाहाबाद के हैं। हमें पता नहीं क्येां उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ!

उसकी उम्र यही कोई अठाइस-तीस की रही होगी पर शरीर सूखा सा कांतिविहीन था। पर उसके कपडे आधुनिक थे , पिंडलियों से उपर वाली जिंस पहन रखी थी उसने। हम बातें कर ही रहे थे कि अचानक एक भारी भरकम से सज्जन उधर से गुजरे तो लडकी लपक कर उधर भागी - और पूछा - क्या हाल है - उस सज्जन ने परिचित की तरह पूछा - कैसी हो, मैं ठीक हूं। लडकी ने चहकते हुए उन सज्जन से बात की , उन्होंने भी ढंग से बातें की और अपनी राह चलते बने। लडकी फिर आकर पास बैठ गयी। और वही चर्चा आरंभ कर दी कि यहां कोई ना कोई रोज पागल हो जाता है।

तब उसकी बातों से लगा कि वह एनएसडी की पुरानी छात्रा रही है। कुछ देर में फिर एक सज्जन आए और वहीं स्कूटर रोका तो वह पहले की तरह चहकती हुई लपकी और बातेें करती स्कूटर पर सवार होकर कहीं चली गयी।

तब मित्र ने कहा कि यहां कुछ एनएसडी की असफल छात्राएं इसी तरह मिल जाती हैं बातेें करतीं पता नहीं क्या कहना चाहती हैं। वे फ्रस्टेट रहती हैं , देखा नहीं कैसी निचुडी सी काया थी, इस पर दूसरे मित्र ने आपत्ती की कि वह क्या करे एक जमाने में उसने भी सबकी तरह सपने देखे होंगे , जिन्हें वह उनकी तरह सच ना कर सकी।

तब मुझें फैज की वह पंक्ति याद आयी - जिंदगी किसी मुफलिस की कबा तो नहीं कि जिसमें हर घडी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं...

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सच - झूठ

16 जून 2016
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जब तुझे लगेकि दुनिया में सत्‍यसर्वत्र हार रहा हैसमझों तेरे भीतर का झूठतुझको ही कहींमार रहा है।

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कविता अंत:सलिला है

16 जून 2016
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गेटे ने कहा है कि जीवन और प्रेम उन्‍हीं के लिए है, जिन्‍हें इसको रोज जीतना पडता है। जीवन और प्रेम की तरह कविता भी उन्‍हीं के लिए है जो इसके लिए रोज लड सकते हैं। पहली बात कि कविता का संबंध उसे जिये जाने, लिखे जाने और पढे जाने से है ना कि बेचे जाने से। फिर आज इंटरनेट के जमाने में प्रकाशक अप्रासंगित ह

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सफेद चाक हूं मैं

17 जून 2016
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जीवन की उष्ण , गर्म हथेली से घिसा जाता सफेद चाक हूं मैं कि क्या कभी मिटूंगा मैं बस अपना नहीं रह जाउंगा और तब मैं नहीं जीवन बजेगा कुछ देर खाली हथेली सा डग - डग - डग

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साहब की सोहबत

18 जून 2016
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सुबह नहा धोकर कसरत करने के बाद ‘क’ महाशय को लगा कि बाहर कोने में बैठना चाहिए, वहां ठंडी हवा होगी ‘रिल्के’ की कहानियों का अनुवाद हाथमें ले प्लास्टिक की एक कुर्सी उठाए आ गए एक पेड़ के नीचे ।  हां, यहां हवा तेज है । नहाने से अभी भीेगे बालों से जब हवा लगी तो सिहरन सी हुई । फिर कुर्सी पर बैठे महाशय ‘क’ कि

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कचरा दिल्‍ली क्‍यों नहीं जा सकता

20 जून 2016
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गांधी मैदानपटना के दक्षिण की सड़क परचलता हुआ मैं बाईसवीं सदीकी ओर जा रहा हूं। कल किसी औरसड़क पर चलता हुआ भी मैं बाईसवीं सदी की ओर ही जारहा होउंगा। यहां तक कि परसोंअगर गांव की नदी से नहाकर खेतोंकी ओर जा रहा होउं तब भी मेराजाना बाईसवीं सदी की ओरही होगा। मैं अगर कहीं नहींभी जाता रहूं, घरमें बैठा रहूं त

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योग - परिवेश की जीवंतताओं को जोडना ही योग है

21 जून 2016
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समाज में जीवन में जहां कहीं भी जो कुछ सकारात्‍मक है उसे परस्‍पर जोडना ही योग है। इसमें किसी तरह की घृणा के लिए कोई जगह नहीं है।शरीरकेस्‍तरपरतनमनकीशक्तियेांकोएकजगहकेंद्रितकरनायेागहै।यहअपनीशक्तियोंकोइकटठाकरउसकाकेंद्रीकृतप्रयोगहै।येागासनयोगकाएकहिस्‍सामात्रहै।कुत्‍ता बिल्‍ली जिस तरह सो कर उठने के बाद अप

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पागल कौन बनाम जिंदगी किसी मुफलिस की कबा तो नहीं...

22 जून 2016
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मैं हिन्दू हूँ

23 जून 2016
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मैंहिन्‍दू हूंइसीलिएवे मुसलमान और ईसाई हैंजैसेमैं चर्मकार हूंइसीलिएवे बिरहमन या दुसाध हैंआजहमारा होनाहमारेकर्मों,रहन-सहनऔरदेश-दिशाके अलगावों का सूचक नहींहमइतने एक से हैंकिआपसी घृणा हीहमारीपहचान बना पाती हैमोटा-मोटीहम जनता या प्रजा हैंहमसिपाही,पुजारी,मौलवी,ग्रंथी,भंगी,चर्मकार,कुम्हार,ललबेगियाऔर बहुत

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रूडयार्ड किपलिंग - 'द जंगल बुक' के लेखक

24 जून 2016
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रूडयार्डकिपलिंग का जन्म बंबई में 30दिसंबर 1865को हुआ था । उनके माता-पिताअंग्रेज थे । उनका बचपन बहुतअच्छा नहीं था । आरंभ के छः सालों तक उनकापालन-पोषणभारतीय नर्सों ने किया । आगेवे इंग्लैंड ले जाए गए ।वहां फोस्टर परिवारों ने पांचसाल तक उनकी देखभाल की । इसके बाद उनकादाखिला एक बोर्डिंग स्कूलमें करा दिया

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हर तरफ कातिल निगाहें - गजल

25 जून 2016
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धूप मीठी और चिडिया बोलती है डार परपर पडोसी ढहा सा है दीखता अखबार पर।सूझती सरगोशियां फाकाकशी में भी जनाबअगर रखनी नजर तो तू ही रख ब्‍योपार पर।जानता हूं वक्‍त उल्‍टा आ पडा है सामनेकौन सीधा सा बना है अपन ही धरतार पर।हर तरफ कातिल निगाहें और हैं खूं-रेजियांफिक्र क्‍या जब निगहबानी यार की हो यार पर।

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संदीप की कहानियों का जादुई यथार्थवाद

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युवाकथाकार संदीप मील के लोकोदय प्रकाश से आए दूसरेकहानी संकलन 'कोकिला शास्‍त्र'कीशीर्षक कहानी 'कोकिला शास्‍त्र'कोपढते हुए लगा कि जैसे संदीपहिंदी में जादुई यथार्थवादकी रचना करने वाले पहले कहानीकारहैं। संदीप की कहानियों कातो मैं पहले संग्रह से ही मुरीदहो गया था पर नये संग्रह की इसपहली अपेक्षाकृत लंबी क

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राजनीति में दूर तक काम नहीं आता जातिगत जनाधार

25 अक्टूबर 2016
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जाति और राजनीति के हिसाब-किताब को देखें तो साफ हो जाता है कि पिछला दलित-पिछड़ों का उभार कोई लालू- नीतीश - मुलायम जैसे नेताओं का करिश्मा नहीं था, बल्कि वह जाति और राजनीति के रिश्तों की सहज उपज था। इन नेताओं ने उसी उभार की फसल काटी । जैसे जातिमें पैदा होने के लिए कुछ करना नहीं होता है। वैसे ही जाति की

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कॉरपोरेट मनीषा हलुमान जी

8 सितम्बर 2018
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खब्‍ती डॉट इन का वह बंदाबड़ी सी मोबाइल परहनुमानजी की फोटू निहारताव्यस्त था थोड़ी टीप-टाप के बादमुखातिब होता बोला - अरे, आ गएहां, एक बात कहनी थीहां हां कहिएमेरी कुर्सी टेबल दीवार की तरफ है, चिपकी सी अनइजी लगता हैहां आ आ...आपसे एक बात कहनी थी कल जाते वक्‍त आप बिना बताये निकल गये थेहां, टाइम से निकला थाअ

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चित्र पहेली - नीचे की तस्‍वीर में दो गलतियां हैं, बताएं

10 सितम्बर 2018
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आस्‍था की आंखें - तानसेन की समाधि

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ग्‍वालियर में तानसेन की समाधि पर इमली का एक पेड़ था। उसके बारे में प्रचलित हो गया कि उसकी पत्तियां खाने से गला सुरीला हो जाता है। नतीजा लोग इमली की पत्तियां तो खा ही गये, फिर जड़ें तक चाट गये।

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हिन्‍दी की कछुआ दौड़ - कुमार मुकुल

13 सितम्बर 2018
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हिन्दी के वरिष्ठ कवियों में शुमार रघुवीर सहाय ने हिन्दी को कभी दुहाजू की बीबी का संबोधन देकर उसकी हीन अवस्था की ओर इशारा किया था। इस बीच ऐसी कोई क्रांतिकारी बात हिन्दी को लेकर हुयी हो ऐसा भी नहीं है। हां, यह सच्चाई जरूर है कि पिछले साठ-सत्‍तर वर्षों में हिन्दी भीतर ही भीतर बढ़ती पसरती जा रही है और आज

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