अरसा हो गए पर आज भी यह घटना याद आती है मानो कल की हो । मंडी हाउस श्रीराम सेंटर के आगे चाय की दुकान पर मैं बैठा
था अपने कुछ मित्रों के साथ एक पेड के नीचे बने चबूतरे पर। आपस में हम जोर
जोर से बातें कर रहे थे कि तभी पास ही खडी एक लडकी हमलोगों के निकट आ बैठी।
हमने उधर ध्यान नहीं दिया पर वह कुछ बेचैन लग रही थी। कुछ देर बार हमारा
सोचना सही निकला।
बिना किसी प्रसंग के उसने शुरू कर दिया - कि अरे , यहां
रोज केाई ना कोई पागल हो जाता है। हम अब भी उसे इग्नोर कर रहे थे पर वह
मुखातिब रही और बोलती चली गयी - हां उधर देखिए वह आदमी पागल होकर कैसा चीख
रहा है।
हमने उधर देखा तो ऐसा कोई आदमी नहीं दिखा, पर हमने हां में सिर हिला दिया। तब उसने दूसरी ओर इशारा कर कहा और देखिए उधर भी एक लडकी पगला गयी है। हमने उस दिशा में देखा तो उधर भी कुछ वैसा नहीं था।
हमें
लगा कि कहीं यह लडकी ही तो पागल नहीं है । सो हम फिर अपनी बातचीत में मशगूल
हो गये। वह लडकी लगता है हमसे बातें किए बिना जाने को तैयार नहीं थी।
तब
हमने उधर तबज्जो दी। तो उसने मेरे मित्र से तपाक से पूछा - आप कहां से हैं । मित्र मजाक के मूड में आ गए और पूछा पहले आप बताइए कहां की हैं, तो
उसने जिद की नहीं पहले आप बताइए , बिहार से हैं।
तो मित्र ने जवाब दिया नहीं - बनारस से हैं। अब लडकी ने तपाक से कहा - हम भी इलाहाबाद के हैं। हमें पता नहीं क्येां उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ!
उसकी उम्र यही कोई अठाइस-तीस की रही होगी पर शरीर सूखा सा कांतिविहीन था। पर उसके कपडे आधुनिक थे , पिंडलियों से उपर वाली जिंस पहन रखी थी उसने। हम बातें कर ही रहे थे कि अचानक एक भारी भरकम से सज्जन उधर से गुजरे तो लडकी लपक कर उधर भागी - और पूछा - क्या हाल है - उस सज्जन ने परिचित की तरह पूछा - कैसी हो, मैं ठीक हूं। लडकी ने चहकते हुए उन सज्जन से बात की , उन्होंने भी ढंग से बातें की और अपनी राह चलते बने। लडकी फिर आकर पास बैठ गयी। और वही चर्चा आरंभ कर दी कि यहां कोई ना कोई रोज पागल हो जाता है।
तब उसकी बातों से लगा
कि वह एनएसडी की पुरानी छात्रा रही है। कुछ देर में फिर
एक सज्जन आए और वहीं स्कूटर रोका तो वह पहले की तरह चहकती हुई लपकी और
बातेें करती स्कूटर पर सवार होकर कहीं चली गयी।
तब मित्र ने कहा कि यहां
कुछ एनएसडी की असफल छात्राएं इसी तरह मिल जाती हैं बातेें करतीं पता नहीं
क्या कहना चाहती हैं। वे फ्रस्टेट रहती हैं , देखा नहीं कैसी निचुडी सी काया
थी, इस पर दूसरे मित्र ने आपत्ती की कि वह क्या करे एक जमाने में उसने भी
सबकी तरह सपने देखे होंगे , जिन्हें वह उनकी तरह सच ना कर सकी।
तब मुझें फैज की वह पंक्ति याद आयी - जिंदगी किसी मुफलिस की कबा तो नहीं कि जिसमें हर घडी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं...