गांधी मैदान पटना के दक्षिण की सड़क पर चलता हुआ मैं बाईसवीं सदी की ओर जा रहा हूं। कल किसी और सड़क पर चलता हुआ भी मैं बाईसवीं सदी की ओर ही जा रहा होउंगा। यहां तक कि परसों अगर गांव की नदी से नहाकर खेतों की ओर जा रहा होउं तब भी मेरा जाना बाईसवीं सदी की ओर ही होगा। मैं अगर कहीं नहीं भी जाता रहूं, घर में बैठा रहूं तब भी गांधी मैदान वाली सड़क अगली सदी में जा रही होगी। मतलब बाईसवीं सदी में जाना एक सनातन सत्य है, उसको हमारे विकास या स्थिरता से कोई अंतर नहीं पड़ता।
तो बाईसवीं सदी को जाती इस
सड़क के बाएं नेताजी सुभाष
बाबू की मूर्ति है। जो गंगा
की ओर इशारा कर रही है। मानो
कह रही हो गंगा की ओर चलो। पर
जिन्होंने सुभाष बाबू को
पढा होगा वे जानते हैं कि सुभाष
बाबू का इशारा दिल्ली की ओर
है। उनका नारा था… दिल्ली
चलो। यह नारा उन्होंने दूसरे
विश्वयुद्ध के समय दिया था।
तब से वह दिल्ली नहीं पहुंच
पाए हैं। मूर्ति तो यही कह रही
है। जिस राजनेता ने यह मूर्ति
लगवाई है उसका लक्ष्य भी
दिल्ली जाना ही होगा। वैसे
तमाम राजनेता आज अमेरिका और
थाइलैंड जा रहे हैं। शायद
दिल्ली का रास्ता अमेरिका
या थाइलैंड होकर ही जाता है।
सुभाष बाबू भी दिल्ली जापान
होकर जाना चाह रहे थे। विवेकानंद
भी अमेरिका होकर ही भारत आए
थे।
फिलहाल
सुभाष बाबू की मूर्ति के आगे
कचरा है और मवेशी बंधे हैं।
मवेशियों की पगही कोई खोल दे
तो वे भी शायद दिल्ली जाना
पसंद करेंगे। पर क्या कचरा
भी चलकर दिल्ली जाएगा।
साहब अगर कचरा पटना के मुहल्लों से निकलकर शहर के मध्य राजपथ पर लगी इस मूर्ति तक आ सकता है तो वह दिल्ली क्यों नहीं जा सकता।