जाति और राजनीति के हिसाब-किताब को देखें तो साफ हो जाता है कि पिछला दलित-पिछड़ों का उभार कोई लालू- नीतीश - मुलायम जैसे नेताओं का करिश्मा नहीं था, बल्कि वह जाति और राजनीति के रिश्तों की सहज उपज था। इन नेताओं ने उसी उभार की फसल काटी । जैसे जातिमें पैदा होने के लिए कुछ करना नहीं होता है। वैसे ही जाति की राजनीति के लिए कोई योग्यता नहीं होती, बस अपनी जाति को जनाधार मान झंडा उठा लेने की जरूरत होती है।
आजादी पूर्व की जनसंख्या रपटों को देखें तो बिहार की जातिवादी राजनीति की
पोल खुल जाती है। इस सदी के आरंभ में शिक्षा का प्रतिशत सर्वाधिक कायस्थों
में था फिर ब्राह्मण, राजपूत, अहीर और अंत में दलित थे।
राजनीति में जातियों को उनके शैक्षिक आधार पर जगह मिली है, संख्या बल पर नहीं। मजेदार तथ्य यह है कि जितनी बड़ी जाति होगी, उसका राजनीतिक कार्यकाल उतना ही छोटा होगा, क्योंकि राजनीतिक पदों की बंदरबांट और अन्य जातियों की संतुष्टि के लिए जरूरी पदों पर लोगों को लाने के काम में बड़ी जाति (संख्या में) एक बड़ी बाधा की तरह होती है।
इसीलिए देश भर में कायस्थों का राजनीति पर सबसे ज्यादा
समय तक कब्जा रहा। क्योंकि वे सबसे ज्यादा शिक्षित थे और उनकी संख्या सबसे
कम थी। इसलिए आपसी महत्वाकांक्षा की लड़ाई कम थी। जाति के ही दबाव में नेहरू
की इच्छा के विरुद्ध राजेन्द्र प्रसाद को दूसरी बार राष्र्टपति चुना गया।
कायस्थ चूंकि आजादी के पहले से राजनीति पर काबिज थे, इसलिए आजादी के बाद
दशकों तक उनका दबदबा रहा। फिर ब्राह्मण-भूमिहार बिहार और देश की राजनीति पर
काबिज रहे। फिर राजपूतों का छोटा सा काल आया, अंत में राजनीति पिछड़ों, फिर
दलितों के कब्जे में आयी। पर संख्या की मारामारी ने पिछड़ों-दलित नेताओं को
राजनीति के शिखरों पर टिकने नहीं दिया।
राजनीति को सतत क्रियाशीलता की जरूरत होती है। जाति और धर्म की रूढ़ियां उसकी क्रियाशीलता को बाधित करती हैं, इसलिए राजनीति इनका उपयोग कर इन्हें दोबारा मौका नहीं देती।
राजनीति के केन्द्र में हमेशा एक लोक लुभावन व्यक्ति आयेगा। पर पूरी जाति उस केन्द्र तक पहुंचने के लिए अपने भीतर संघर्ष करेगी। इसे वीपी सिंह के साथ हुए राजनीतिक उत्थान-पतन को देखकर समझा जा सकता है। देवीलाल, रामविलास पासवान, अजीत सिंह, मुलायम सिंह, लालू, नीतीश- सब एक साथ राजनीतिमें उठे हुए मोहरे आपस में ही टकरा गये और अकेले व बेकार होते चले गये। ये सब तथाकथित जनाधार वाले नेता थे। सबकी महत्वाकांक्षा प्रधानमंत्री पद की थी। पर वे इस पद के पास भी नहीं फटक सके। क्योंकि ये अपने विशाल जातीय वोट बैंक को लेकर आश्वस्त रहे।