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कविता अंत:सलिला है

16 जून 2016

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गेटे ने कहा है कि जीवन और प्रेम उन्‍हीं के लिए है, जिन्‍हें इसको रोज जीतना पडता है। जीवन और प्रेम की तरह कविता भी उन्‍हीं के लिए है जो इसके लिए रोज लड सकते हैं। पहली बात कि कविता का संबंध उसे जिये जाने, लिखे जाने और पढे जाने से है ना कि बेचे जाने से। फिर आज इंटरनेट के जमाने में प्रकाशक अप्रासंगित हो चुके हैं न कि कविता। अब कवि पुस्‍तकों से पहले साइबर स्‍पेश में प्रकाशित होते हैं और वहां उनकी लोकप्रियता सर्वाधिक है, क्‍योंकि कविता कम शब्‍दों मे ज्‍यादा बातें कहने में समर्थ होती है और नेट की दुनिया के लिए वह सर्वाधिक सहूलियत भरी है।
कविता मर रही है, इतिहास मर रहा है जैसे शोशे हर युग में छोडे जाते रहे हैं। कभी ऐसे शोशों का जवाब देते धर्मवीर भारती ने लिखा था - लो तुम्‍हें मैं फिर नया विश्‍वास देता हूं ... कौन कहता है कि कविता मर गयी। आज फिर यह पूछा जा रहा है। एक महत्‍वपूर्ण बात यह है कि उूर्जा का कोई भी अभिव्‍यक्‍त रूप मरता नहीं है, बस उसका फार्म बदलता है। और फार्म के स्‍तर पर कविता का कोई विकल्‍प नहीं है। कविता के विरोध का जामा पहने बारहा दिखाई देने वाले वरिष्‍ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेन्‍द्र यादव भी अपनी हर बात की पुष्‍टी के लिए एक शेर सामने कर देते थे। कहानी के मुकाबले कविता पर महत्‍वपूर्ण कथाकार कुर्तुल एन हैदर का वक्‍तव्‍य मैंने पढा था उनके एक साक्षात्‍कार में , वे भी कविता के जादू को लाजवाब मानती थीं।
सच में देखा जाए तो आज प्रकाशकों की भूमिका ही खत्‍म होती जा रही है। पढी- लिखी जमात को आज उनकी जरूरत नहीं। अपना बाजार चलाने को वे प्रकाशन करते रहें और लेखक पैदा करने की खुशफहमी में जीते-मरते रहें। कविता को उनकी जरूरत ना कल थी ना आज है ना कभी रहेगी। आज हिन्‍दी में ऐसा कौन सा प्रकाशक है जिसकी भारत के कम से कम मुख्‍य शहर में एक भी दुकान हो। यह जो सवाल है कि अधिकांश प्रकाशक कविता संकलनों से परहेज करते हैं तो इन अधिकांश प्रकाशकों की देश में क्‍या जिस दिल्‍ली में वे बहुसंख्‍यक हैं वहां भी एक दुकान है , नहीं है। तो काहे का प्रकाश्‍ाक और काहे का रोना गाना, प्रकाशक हैं बस अपनी जेबें भरने को।
आज भी रेलवे के स्‍टालों पर हिन्‍द पाकेट बुक्‍स आदि की किताबें रहती हैं जिनमें कविता की किताबें नहीं होतीं। तो कविता तो उनके बगैर, और उनसे पहले और उनके साथ और उनके बाद भी अपना कारवां बढाए जा रही है ... कदम कदम बढाए जा कौम पर लुटाए जा। तो ये कविता तो है ही कौम पर लुटने को ना कि बाजार बनाने को। तो कविता की जरूरत हमेशा रही है और लोगों को दीवाना बनाने की उसकी कूबत का हर समय कायल रहा है। आज के आउटलुक, शुक्रवार जैसे लोकप्रिय मासिक, पाक्षिक हर अंक में कविता को जगह देते हैं, हाल में शुरू हुआ अखबार नेशनल दुनिया तो रोज अपने संपादकीय पेज पर एक कविता छाप रहा है, तो बताइए कि कविता की मांग बढी है कि घटी है। मैं तो देखता हूं कि कविता के लिए ज्‍यादा स्‍पेश है आज। शमशेर की तो पहली किताब ही 44 साल की उम्र के बाद आयी थी और कवियों के‍ कवि शमशेर ही कहलाते हैं, पचासों संग्रह पर संग्रह फार्मुलेट करते जाने वाले कवियों की आज भी कहां कमी है पर उनकी देहगाथा को कहां कोई याद करता है, पर अदम और चीमा और आलोक धन्‍वा तो जबान पर चढे रहते हैं। क्‍यों कि इनकी कविता एक 'ली जा रही जान की तरह बुलाती है' । और लोग उसे सुनते हैं उस पर जान वारी करते हैं और यह दौर बारहा लौट लौट कर आता रहता है आता रहेगा। मुक्तिबोध की तो जीते जी कोई किताब ही नहीं छपी थी कविता की पर उनकी चर्चा के बगैर आज भी बात कहां आगे बढ पाती है, क्‍योंकि 'कहीं भी खत्‍म कविता नहीं होती...'। कविता अंत:सलिला है, दिखती हुई सारी धाराओं का श्रोत वही है, अगर वह नहीं दिख रही तो अपने समय की रेत खोदिए, मिलेगी वह और वहीं मिलेगा आपको अपना प्राणजल

योगेन्द्र योगी

योगेन्द्र योगी

मुकल जी बहुत ही बेहतरीन तरीके से आपने कविता के मुददे और उसकी चुनौतियों को उठाया है

17 जून 2016

राम लखारा

राम लखारा

सच है कविता को बैसाखियों की आवश्यकता नही है . कविता ने खुद बैसाखी बनकर दूसरों की मदद ज़रूर की है .

17 जून 2016

साक्षी मिश्रा

साक्षी मिश्रा

"कविता अतः सलिला है", बेहद रोचक कविता है आपकी कुमार मुकुल जी .....आपने इस लेख के माध्यम से कविता की महत्वता को दर्शाया है. ......आपको इस लेख के लिए बहुत- बहुत बधाई ...

17 जून 2016

प्रतीक सिंह सचान

प्रतीक सिंह सचान

बेहद तुलनात्मक रचना है आपकी|

17 जून 2016

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सच - झूठ

16 जून 2016
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जब तुझे लगेकि दुनिया में सत्‍यसर्वत्र हार रहा हैसमझों तेरे भीतर का झूठतुझको ही कहींमार रहा है।

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कविता अंत:सलिला है

16 जून 2016
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गेटे ने कहा है कि जीवन और प्रेम उन्‍हीं के लिए है, जिन्‍हें इसको रोज जीतना पडता है। जीवन और प्रेम की तरह कविता भी उन्‍हीं के लिए है जो इसके लिए रोज लड सकते हैं। पहली बात कि कविता का संबंध उसे जिये जाने, लिखे जाने और पढे जाने से है ना कि बेचे जाने से। फिर आज इंटरनेट के जमाने में प्रकाशक अप्रासंगित ह

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सफेद चाक हूं मैं

17 जून 2016
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जीवन की उष्ण , गर्म हथेली से घिसा जाता सफेद चाक हूं मैं कि क्या कभी मिटूंगा मैं बस अपना नहीं रह जाउंगा और तब मैं नहीं जीवन बजेगा कुछ देर खाली हथेली सा डग - डग - डग

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साहब की सोहबत

18 जून 2016
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सुबह नहा धोकर कसरत करने के बाद ‘क’ महाशय को लगा कि बाहर कोने में बैठना चाहिए, वहां ठंडी हवा होगी ‘रिल्के’ की कहानियों का अनुवाद हाथमें ले प्लास्टिक की एक कुर्सी उठाए आ गए एक पेड़ के नीचे ।  हां, यहां हवा तेज है । नहाने से अभी भीेगे बालों से जब हवा लगी तो सिहरन सी हुई । फिर कुर्सी पर बैठे महाशय ‘क’ कि

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कचरा दिल्‍ली क्‍यों नहीं जा सकता

20 जून 2016
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गांधी मैदानपटना के दक्षिण की सड़क परचलता हुआ मैं बाईसवीं सदीकी ओर जा रहा हूं। कल किसी औरसड़क पर चलता हुआ भी मैं बाईसवीं सदी की ओर ही जारहा होउंगा। यहां तक कि परसोंअगर गांव की नदी से नहाकर खेतोंकी ओर जा रहा होउं तब भी मेराजाना बाईसवीं सदी की ओरही होगा। मैं अगर कहीं नहींभी जाता रहूं, घरमें बैठा रहूं त

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योग - परिवेश की जीवंतताओं को जोडना ही योग है

21 जून 2016
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समाज में जीवन में जहां कहीं भी जो कुछ सकारात्‍मक है उसे परस्‍पर जोडना ही योग है। इसमें किसी तरह की घृणा के लिए कोई जगह नहीं है।शरीरकेस्‍तरपरतनमनकीशक्तियेांकोएकजगहकेंद्रितकरनायेागहै।यहअपनीशक्तियोंकोइकटठाकरउसकाकेंद्रीकृतप्रयोगहै।येागासनयोगकाएकहिस्‍सामात्रहै।कुत्‍ता बिल्‍ली जिस तरह सो कर उठने के बाद अप

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पागल कौन बनाम जिंदगी किसी मुफलिस की कबा तो नहीं...

22 जून 2016
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अरसा हो गए पर आज भी यह घटना याद आती है मानो कल की हो । मंडी हाउस श्रीराम सेंटर के आगे चाय की दुकान पर मैं बैठा था अपने कुछ मित्रों के साथ एक पेड के नीचे बने चबूतरे पर। आपस में हम जोर जोर से बातें कर रहे थे कि तभी पास ही खडी एक लडकी हमलोगों के निकट आ बैठी। हमने उधर ध्यान नहीं दिया पर वह कुछ बेचैन लग

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मैं हिन्दू हूँ

23 जून 2016
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मैंहिन्‍दू हूंइसीलिएवे मुसलमान और ईसाई हैंजैसेमैं चर्मकार हूंइसीलिएवे बिरहमन या दुसाध हैंआजहमारा होनाहमारेकर्मों,रहन-सहनऔरदेश-दिशाके अलगावों का सूचक नहींहमइतने एक से हैंकिआपसी घृणा हीहमारीपहचान बना पाती हैमोटा-मोटीहम जनता या प्रजा हैंहमसिपाही,पुजारी,मौलवी,ग्रंथी,भंगी,चर्मकार,कुम्हार,ललबेगियाऔर बहुत

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रूडयार्ड किपलिंग - 'द जंगल बुक' के लेखक

24 जून 2016
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रूडयार्डकिपलिंग का जन्म बंबई में 30दिसंबर 1865को हुआ था । उनके माता-पिताअंग्रेज थे । उनका बचपन बहुतअच्छा नहीं था । आरंभ के छः सालों तक उनकापालन-पोषणभारतीय नर्सों ने किया । आगेवे इंग्लैंड ले जाए गए ।वहां फोस्टर परिवारों ने पांचसाल तक उनकी देखभाल की । इसके बाद उनकादाखिला एक बोर्डिंग स्कूलमें करा दिया

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हर तरफ कातिल निगाहें - गजल

25 जून 2016
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धूप मीठी और चिडिया बोलती है डार परपर पडोसी ढहा सा है दीखता अखबार पर।सूझती सरगोशियां फाकाकशी में भी जनाबअगर रखनी नजर तो तू ही रख ब्‍योपार पर।जानता हूं वक्‍त उल्‍टा आ पडा है सामनेकौन सीधा सा बना है अपन ही धरतार पर।हर तरफ कातिल निगाहें और हैं खूं-रेजियांफिक्र क्‍या जब निगहबानी यार की हो यार पर।

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संदीप की कहानियों का जादुई यथार्थवाद

25 जून 2016
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युवाकथाकार संदीप मील के लोकोदय प्रकाश से आए दूसरेकहानी संकलन 'कोकिला शास्‍त्र'कीशीर्षक कहानी 'कोकिला शास्‍त्र'कोपढते हुए लगा कि जैसे संदीपहिंदी में जादुई यथार्थवादकी रचना करने वाले पहले कहानीकारहैं। संदीप की कहानियों कातो मैं पहले संग्रह से ही मुरीदहो गया था पर नये संग्रह की इसपहली अपेक्षाकृत लंबी क

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राजनीति में दूर तक काम नहीं आता जातिगत जनाधार

25 अक्टूबर 2016
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जाति और राजनीति के हिसाब-किताब को देखें तो साफ हो जाता है कि पिछला दलित-पिछड़ों का उभार कोई लालू- नीतीश - मुलायम जैसे नेताओं का करिश्मा नहीं था, बल्कि वह जाति और राजनीति के रिश्तों की सहज उपज था। इन नेताओं ने उसी उभार की फसल काटी । जैसे जातिमें पैदा होने के लिए कुछ करना नहीं होता है। वैसे ही जाति की

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कॉरपोरेट मनीषा हलुमान जी

8 सितम्बर 2018
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खब्‍ती डॉट इन का वह बंदाबड़ी सी मोबाइल परहनुमानजी की फोटू निहारताव्यस्त था थोड़ी टीप-टाप के बादमुखातिब होता बोला - अरे, आ गएहां, एक बात कहनी थीहां हां कहिएमेरी कुर्सी टेबल दीवार की तरफ है, चिपकी सी अनइजी लगता हैहां आ आ...आपसे एक बात कहनी थी कल जाते वक्‍त आप बिना बताये निकल गये थेहां, टाइम से निकला थाअ

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चित्र पहेली - नीचे की तस्‍वीर में दो गलतियां हैं, बताएं

10 सितम्बर 2018
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आस्‍था की आंखें - तानसेन की समाधि

10 सितम्बर 2018
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ग्‍वालियर में तानसेन की समाधि पर इमली का एक पेड़ था। उसके बारे में प्रचलित हो गया कि उसकी पत्तियां खाने से गला सुरीला हो जाता है। नतीजा लोग इमली की पत्तियां तो खा ही गये, फिर जड़ें तक चाट गये।

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हिन्‍दी की कछुआ दौड़ - कुमार मुकुल

13 सितम्बर 2018
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हिन्दी के वरिष्ठ कवियों में शुमार रघुवीर सहाय ने हिन्दी को कभी दुहाजू की बीबी का संबोधन देकर उसकी हीन अवस्था की ओर इशारा किया था। इस बीच ऐसी कोई क्रांतिकारी बात हिन्दी को लेकर हुयी हो ऐसा भी नहीं है। हां, यह सच्चाई जरूर है कि पिछले साठ-सत्‍तर वर्षों में हिन्दी भीतर ही भीतर बढ़ती पसरती जा रही है और आज

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