समझ न पाया कि चल रहा स्वप्न या जाग्रति शुरू है। दिया जल रहा है, पीतालोक-प्रसार में काल चल रहा है, आस-पास फैली हुई जग-आकृतियाँ लगती हैं छपी हुई जड़ चित्रकृतियों-सी अलग व दूर-दूर निर्जीव!! यह सि
सूनापन सिहरा, अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले उभरे, शून्य के मुख पर सलवटें स्वर की, मेरे ही उर पर, धँसाती हुई सिर, छटपटा रही हैं शब्दों की लहरें मीठी है दुःसह!! अरे, हाँ, साँकल ही रह -रह बजती है
ज़िन्दगी के... कमरों में अँधेरे लगाता है चक्कर कोई एक लगातार; आवाज़ पैरों की देती है सुनाई बार-बार....बार-बार, वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता, किन्तु वह रहा घूम तिलस्मी खोह में ग़िरफ्तार कोई ए
क्या-क्या नहीं है मेरे पास शाम की रिमझिम नूर में चमकती ज़िंदगी लेकिन मैं हूं घिरा हुआ अपनों से क्या झपट लेगा कोई मुझ से रात में क्या किसी अनजान में अंधकार में क़ैद कर देंगे मसल देंगे क्या जीव
अंधकार में रहने का मैं अभ्यासी हूँ✒️अंधकार में रहने का मैं अभ्यासी हूँमुझे उजालों से भी नफ़रत कभी नहीं थी,सबकी चाह दिखावे तक ही सिमट चुकी थीमुझे जलाने वालों की भी कमी नहीं थी।एक प्रहर में जलकर कांति बिखेरी मैंनेऔर दूसरे वक्त तृषित हो मुरझाया था,अंतकाल में देहतुल्य जल गयी वर्तिकालौ को अपने अंतस में
अँधेरे में नहीं बल्कि अँधेरे से लड़ेअन्धकार से लड़ना और अंधकार में लड़ना दोनों में ज़मीन आसमान का फ़र्क है. आज लोग अँधेरे से नहीं बल्कि अँधेरे में लड़ रहे है. आफ़ताब की रोशनी और चाँद की चाँदनी भी इस अंधकार को खत