भले ही 55 करोड़ की युवा शक्ति और तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था के बल पर विकसित देशों की कतार में शामिल होने की दहलीज पर भारत के खड़े होने का दंभ भरा जा रहा हो मगर वास्तविकता यह है कि 21 वीं सदी के भारत के करोड़ों बच्चे आज भी पेट की आग के सामने लाचार हैं तथा खतरनाक काम करते ये बच्चे सीधे बालपन से बुढापे में कदम रखने को विवश हैं। बच्चों से लगाव रखने वाले चाचा नेहरू के जन्म दिन को हर साल बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है तथा राजधानी दिल्ली से लेकर सुदूर ग्रामीण अंचल में भी विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है और बाल कल्याण की अनेक योजनाएं घोषित की जाती हैं। वास्तविकता यह है कि इन रंगारंग कार्यक्रमों की चकाचौंध से दूर करोड़ों बच्चे ऐसे हैं जिन्हें पेट भरने के लिए दो वक्त की दाल रोटी भी नहीं मिल पाती और वे भूख के सामने लाचार होकर जोखिम वाले काम करने को विवश हैं। हमारे लिए इससे बड़ी शर्म की बात और क्या होगी कि बाल कुपोषण के मामले में हम पाकिस्तान और बांगलादेश से भी नीचे हैं। यहां लाखों बच्चे या तो भीख मांगते हैं या फिर पेट की आग को शांत करने के लिए जोखिम वाला काम करते हैं और मालिकों द्वारा उनका जमकर शोषण किया जाता है। इन बच्चों को न तो बाल अधिकारों का पता है और न ही बाल दिवस के बारे में, वे तो सिर्फ इतना जानते हैं कि दो वक्त की रोटी का प्रबंध कैसे हो। कुपोषण के शिकार और खतरनाक काम करते ये बच्चे पढाई-लिखाई से तो वंचित रहते ही हैं वे सीधे बचपन से बुढापे की दहलीज पर ही कदम रखते हैं।
होटलों, घरों, चिनाई का काम, कुड़ा बीनते, स्टोव पर चाय बनाते, भीख मांगते इन बच्चों को देखकर लगता ही नहीं कि सरकार ने बाल श्रम को निषेध करने से आगे इन बच्चों की पढाई-लिखाई और भोजन की कोई व्यवस्था की है। ऐसे में इन बच्चों के लिए तो हर दिन केवल काम का दिन होता है और देश की तरक्की और संसाधनों का कोई लाभ उन्हें नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में शिक्षा का अधिकार जैसे कानून बेमानी होकर रह जाते हैं। एक ओर तो गोदामों में लाखों टन अनाज सड़ रहा है तो दूसरी ओर पेट की आग से लाचार बचपन सीधे बुढापे में कदम रख रहा है। बहरहाल पेट की आग में भस्म हो रहा बचपन देश के सफेदपोशों को न केवल मूंह चिढा रहा है बल्कि दुनिया की नजरों में आज भी भारत अभी भी गरीब देशों की कतार में ही खड़ा है। कूड़ा बीनने वाले बच्चे पवनदास ने बताया कि बाल दिवस का उन्हें कोई ज्ञान नहीं है। सरकार से उन्हें कोई सहायता नहीं मिलती और वे कूड़ा बीनकर अपना पेट भरते हैं।