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पीड़ित अफगानिस्तान में मृत हुई मानवता

16 सितम्बर 2021

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आजकल खबरों में अफगानिस्तान ही छाया हुआ है। यूं तो एक ही प्रकार की खबरों से मन में विरक्ति होती है, किंतु जो वर्तमान परिस्थितियां वहां की है वह मन में कई प्रश्न उठाती हैं और सोंचने को मजबूर कर देती हैं कि हम इक्कीसवीं सदी में रहते हैं या आज भी पुरातन काल में ही हैं ( आक्रमणकारियों का काल)

वहां चल रहे उत्पाद को देखकर मन द्रवित हो उठता है और आश्चर्य भी होता है कि यह आज के समय में कैसे संभव है जबकि विश्व में संयुक्त राष्ट्र संघ व मानवाधिकार संगठन मौजूद है। आमतौर पर अक्सर लोगों को छोटी बड़ी बातों पर अपने अपने अधिकारों की स्वतंत्रता के लिए मुखर होते देखा है। छोटे-छोटे समाज सेवी या विचारक भी बड़े बड़े राष्ट्र अध्यक्षों के विरुद्ध मुखर होते हैं लेकिन आज जब अफगानिस्तान पर आतंकवादियों के संगठन में मध्य युगीन हमलावर की तरह अनैतिक लोकतांत्रिक तरीके से कब्जा किया तो सभी चूहों की तरह बिल में छुप गए। बड़े-बड़े राष्ट्र अध्यक्षों ने तो जैसे तालिबान को अपनी मौन स्वीकृति ही दे दी।

राजनीतिक, बौद्धिक, आर्थिक, सामाजिक, औद्योगिक सभी रुप से प्रगति करने वाली इस दुनिया को एक झटके में ही इस घटना ने पुरातन काल में ला खड़ा कर दिया है जहां लोकतंत्र क्या है कोई नहीं समझता था।मानवाधिकार का कोई विचार नहीं था।

मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि पुरुष चाहे सत्ता के लिए लड़ रहे हो या फिर मजहब के लिए ही लड़ रहे हों, इसमें महिलाओं की स्वतंत्रता को कुचलने का क्या मतलब है। उनके साथ दुराचार करने से ही क्यों पुरुष के अहम की पुष्टि होती है। ऐसे लोगों को कब यह समझ में आएगा कि नर-नारी, हिंदू-मुस्लिम, अमीर-गरीब कुछ भी होने से पहले हम मनुष्य हैं। ईश्वर को किसी भी स्वरूप में हम देखते हों लेकिन वह यह कभी भी पसंद नहीं करेंगे कि एक इंसान दूसरे इंसान पर अत्याचार करे रक्तपात करें। उनकी बनाई अन्य रचना का नाश करें। 

कुछ भी हो आज मानवता के दुश्मनों को विजयी होता देख मन बहुत दुखी और चिंतित होता है। क्या वाकई दुनिया प्रगति कर चुकी है या सिर्फ प्रगतिशील होने का ढोंग ही करती है। मूलभूत सोच तो आज भी दमनकारी ही है। कोरोनावायरस का इलाज तो शायद फिर भी मिल जाए लेकिन इस दिमागी वायरस का शायद ही कोई उपचार हो।

स्वलिखित
खुशबू पुरी 🖋️

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