"जब शहर छूटते हैं तो क्या होता है?"
ये सवाल ही गलत लगता है मुझे,
सवाल ये होना चाहिए "जब शहर छूटते है तो कैसा लगता है?"
ये बस एक या आधे कागज़ भर की कहानी नही है, ये कहानी उन तमाम सपनो, अपनो और उनके साथ जुड़ी यादों और बातों की है...
रात करीब 1:30 बजे किसी उलझे से ख़याल में जागते हुए, व्हाट्सएप पर एक मेसेज आता है...
""Hi, कैसे हो?"
जवाब में.. मैं अच्छा हूँ,आप बताइए कैसी हैं आप?"
"हम भी मस्त..."
"अच्छा सुनो, हम लोग नोएडा से शिफ्ट हो रहे हैं, "बैंगलोर"
पतिदेव का ट्रांस्फर होगया है..."
"बढ़िया है..."
"यार पर ये शहर छोड़ने का दिल नही कर रहा, सब कुछ तो है यहाँ अब नए शहर जाकर फिर से सब नया तरीके से करना पड़ेगा..."
"सिर्फ पते बदलते हैं वक़्त फ़िर घूम कर वहीँ लाता है।।।"
सब छूट जाएगा यहाँ का...
"मन का अंतर्द्वंद्व हमेशा रात में ही लड़ाई को आगे रहता है, उस स्थिति में खयाल और सवाल दोनों ही बवाल मचाते हैं..."
बात बदलते हुए,
"वैसे एक चीज़ जो यहाँ पुरानी हो रही थी वहाँ नई हो जाएयी..."
""वो क्या...
"आपके कपड़े... यहाँ सबने देखे हैं, वहाँ तो सबके लिए नया ही नया होगा..."
वैसे ये तो है कि, "you are the person"
"जिनसे मैं मिलना चाहता था, इन दिनों नोएडा आना नही हुआ और अब तो साउथ जा रहे तो अब जब कभी प्लान बनेगा तब ही आ पाएंगे..."
पता नही आपका अन्तर्द्वन्द मैं खुद में महसूस कर रहा हूँ...
"एक वक्त से ये जो ठहराव की बात करता रहा हूँ, मुझे लगता है ये ठहराव, उस वक़्त पर होगा जब सब शांत होगा जीवन मे..."
मैने देखा हैं शहर किसी शहर का बदलना...
चीजों को पीछे जाते देखना, यादोँ को नज़रो से ओझल होते देखना महसूस करना उन दीवारों को, शहर की खुशबू को,
चाहे कितनी भीड़ हो फिर भी अपनापन देता है ये शहर...
"अच्छा सुनो...2 बज गया है फिर बात करते हैं।"
जाते जाते ये सुनते जाइये...
"सितारों को आँखों मे महफ़ूज़ रखना बड़ी देर तक रात ही रात होगी...
मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी।।।"