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पूनम ने तो सोना जीता है, लेकिन उनकी बहनें दिल जीत लेती हैं

10 अप्रैल 2018

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बनारस, वाराणसी या फिर काशी. इसे जिस भी नाम से पुकारिए, मतलब एक ही है. पौराणिक आख्यानों की मानें तो ये शहर भगवान भोलेनाथ के त्रिशूल पर टिका है. इसलिए यहां पर स्थापित काशी विश्वनाथ मंदिर की पूरी दुनिया में खास जगह है. आधुनिक भारत और खास तौर से राजैनिक संदर्भ में बनारस वो शहर है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है. लिखने के लिहाज से बनारस की पहचान अब मोदी के संसदीय क्षेत्र तक सीमित हो गई है. लेकिन अब इस शहर को एक नई पहचान दी है यहां की एक लड़की ने. नाम है पूनम यादव. उसने कॉमनवेल्थ गेम 2018 में महिलाओं के 69 किग्रा भार वर्ग में गोल्ड जीता है. अब पूरा देश इस लड़की की तारीफों के पुल बांधते नहीं थक रहा है.

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कॉमन वेल्थ गेम्स में सोना जीतने की खुशी मनाता पूनम का परिवार.

और यही वजह थी कि 8 अप्रैल को बनारस शहर से करीब सात किलोमीटर की दूरी पर बसे दादूपुर गांव के लोग मिठाइयां बांट रहे थे. पूरे गांव में जश्न का माहौल था. लोग एक दूसरे को बधाइयां दे रहे थे. लेकिन एक परिवार ऐसा भी था, जिसकी आंखों में आंसू थे. वो परिवार गांव के किसान कैलाश यादव था. उस कैलाश यादव का, जिसकी बेटी पूनम ने सोना जीतकर पूरी दुनिया में भारत का मान बढ़ाया था. लेकिन ये आंसू गम के नहीं खुशी के थे. खुशियों के इन आसुओं तक पहुंचने में पूनम और उसके परिवार को खासी मशक्कत करनी पड़ी थी.

पूनम के पिता कैलाश यादव एक किसान हैं. मामूली किसान, जो किसी तरह से अपने घर का खर्च चलाते हैं. वो पांच बेटियों और दो बेटों के पिता हैं. हमारे समाज में बेटियों को अब भी अपनी जगह बनाने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ती है. कैलाश यादव की बेटियों के साथ भी ऐसा ही हुआ. उनकी पांच में से तीन बेटियों की खेल में दिलचस्पी थी. शशी, पूनम और पूजा. तीनों का ही मन पढ़ाई से ज्यादा खेल में लगता था. पारंपरिक तौर पर पिता बेटियों को पढ़ना चाहते थे, लिहाजा उन्हें हाई स्कूल के बाद पढ़ने के लिए वाराणसी के परमानंदपुर इलाके के विकास इंटरमीडिएट कॉलेज में भेज दिया. वो 2011 का साल था. वहां ये तीनों पढ़ने के साथ ही खेलने भी लगीं, लेकिन स्कूल को उनका खेलना रास नहीं आया. लिहाजा स्कूल ने तीनों का नाम काट दिया. पिता को भी बात समझ में आ गई कि उनकी बेटियां खेलने के लिए बनी हैं. फिर पिता को अपने जीवन का सबसे कठिन फैसला करना पड़ा. उन्होंने तीनों बेटियों का एडमिशन किशोरी स्कूल में करवा दिया.

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पूनम, शशी और पूजा, तीनों ही बहनें वेटलिफ्टिंग करती हैं.

इस स्कूल में आने के साथ ही तीनों की प्रैक्टिस तो शुरू हो गई. शशी सबसे बड़ी थी, पूनम उससे छोटी और पूजा ज्यादा छोटी थी. पूनम और शशी इंटरमीडिएट में थीं, इसलिए घरवालों ने पढ़ाई पर भी ध्यान देने को कहा. पढ़ाई और खेल के साथ ही घर का काम और खेतों में मजदूरी भी इन्हीं दोनों को करनी पड़ती थी. पूनम और शशी ने खेतों में काम किया, मजदूरी की, वेटलिफ्टिंग की और पढ़ाई कर जैसे-तैसे इंटरमीडिएट पास कर लिया. वहां से निकलने के बाद पिता ने दोनों का एडमिशन काशी विद्यापीठ में करवा दिया. यही पूनम और शशी दोनों की जिंदगी का सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट साबित हुआ. काशी विद्यापीठ ने पूनम और शशी की प्रतिभा को देखते हुए उनके खेल को बढ़ावा दिया. यूनिवर्सिटी तो साथ में खड़ी हो गई, लेकिन घर के हालात साथ नहीं थे. घर में कभी इतने पैसे नहीं हुए कि पेट भरने के अलावा किसी और चीज के बारे में सोचा जाए. पिता को पांच बच्चियों की शादी की भी चिंता थी और पूनम, शशी के खेल की भी.

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पूनम के घर में लगा मेडल का ढेर.

पूनम की बड़ी बहन शशी बताती हैं कि घर में कभी-कभार चावल, दाल, रोटी, सब्जी मिल जाती थी. कभी-कभी ये भी नसीब नहीं होता था. लेकिन वेटलिफ्टिंग के लिए तो खाने के साथ फूड सप्लिमेंट की भी ज़रूरत थी. उसे खरीदने के लिए घर में पैसे नहीं थे. पिता कैलाश ने हार नहीं मानी. वो हम बहनों के लिए एक भैंस खरीदकर लाए और इस तरह से हमारी खुराक में दूध जुड़ गया. पूनम, शशी वेटलिफ्टिंग करने लगीं. लेकिन पूनम का खेल ज्यादा बेहतर था. शशी ठीक से वेटलिफ्टिंग करती थी और पूजा ने भी शुरुआत कर ही दी थी. लेकिन तीनों में पूनम का खेल सबसे ज्यादा बेहतर था. शशी और पूजा को भी इस बात का अंदाजा था. इसलिए शशी और पूजा ने एक कुर्बानी दी. अपने खेल की कुर्बानी, जो बहुत ही बड़ी थी.

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पूनम की मां अपने गरीबी के दिनों को याद कर आज भी भावुक हो जाती हैं.

दोनों बहनों ने फैसला किया कि वो अपने खाने की खुराक भी पूनम को दे देंगी. शशी बताती हैं कि हम दोनों ही बहनें अपने दूध का ग्लास पूनम को दे देती थीं. खाने के लिए मां जो रोटियां देती थी, उसमें से भी हम दो-तीन रोटियां पूनम के लिए दे देते थे. और इस तरह से पूनम की खुराक थोड़ी बेहतर हुई. खुराक बेहतर हुई तो खेल भी बेहतर हुआ. यूनिवर्सिटी मदद कर ही रही थी, जिससे पूनम का खेल निखरता चला गया. इसके अलावा पूनम के पिता कैलाश यादव के गुरु अड़गड़ानंद ने कैलाश यादव को बनारस के एक स्वयंसेवी और समाजवादी पार्टी के नेता सतीश फौजी से मिलवा दिया. सतीश फौजी ने कैलाश यादव की मदद की और पूनम के लिए हर महीने 20 हजार रुपये देने का इंतजाम कर दिया. ये पैसे पूनम की ट्रेनिंग में खर्च होने लगे.

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पूनम की शुरुआती मदद सपा नेता सतीश फौजी ने की थी. उसके बाद लखनऊ साई सेंटर के जीपी शर्मा पूनम के कोच बन गए.

एक दिन पूनम के पास लखनऊ से एक फोन आया. वो फोन जीपी शर्मा नाम के शख्स का था, जो लखनऊ के स्पोर्ट्स कॉलेज में साई सेंटर के वेटलिफ्टिंग के कोच थे. उन्होंने पूनम के बारे में सुना था, तो पूनम को फोन कर लखनऊ आने का न्यौता दिया. पूनम लखनऊ आ गई और फिर साई सेंटर में उसकी ट्रेनिंग शुरू हो गई. जीपी शर्मा के मुताबिक जब और वेटलिफ्टर आराम कर रहे होते थे, पूनम पसीना बहा रही होती थी. घर में गरीबी थी, लेकिन पिता हर महीने पूनम के लिए बादाम भेजते थे. करीब तीन साल तक पूनम जीपी शर्मा के अंडर में ट्रेनिंग लेती रही.

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2014 में पूनम को कांस्य मिला था.

ये सब होते-होते साल 2014 आ गया. पूरे देश के खिलाड़ी ग्लासगो के कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी कर रहे थे. वेटलिफ्टिंग में पूनम भी अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता के लिए पूरी तरह से तैयार थी. लेकिन घर की माली हालत ठीक नहीं थी. घरवालों के पास इतने पैसे ही नहीं थे कि वो पूनम को ग्लासगो भेज सकें. फिर पूनम के पिता कैलाश ने एक और बड़ा फैसला लिया. उन्होंने उन दोनों भैंसों को बेच दिया, जिसे वो पूनम और उसकी बहनों को दूध पिलाने के लिए लाए थे. खेतों के आधार पर सात लाख रुपये का कर्ज लिया और पूनम के ग्लासगो जाने की व्यवस्था की. पूनम जब ग्लासगो पहुंची और वहां ब्रॉन्ज जीतकर देश का नाम रोशन किया तो पूनम के गांव में बधाई देने वालों का तांता लग गया. लोग कैलाश यादव को बधाई दे रहे थे, लेकिन कैलाश यादव के पास इतने भी पैसे नहीं थे कि वो बेटी की खुशियों में मिठाई खिलाकर लोगों को शरीक कर सकें. एक बार फिर उन्होंने अपने करीबियों से मदद मांगी और पैसे उधार लेकर मिठाइयां खरीदीं.

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अपने मां और पिता के साथ पूनम यादव.

जब पूनम भारत वापस लौटी तो रेलवे विभाग ने उसे नौकरी ऑफर की और वो रेलवे में टीटीई हो गई. बनारस के ही कैंट स्टेशन पर उन्हें तैनाती दे दी गई. वहीं पूनम की बड़ी बहन शशी के खेल को देखते हुए रेलवे ने उन्हें भी नौकरी दे दी और वो फिलहाल आगरा में टीटीई हैं. शशी बताती हैं कि नौकरी के बाद उन्होंने खेलना छोड़ दिया था, लेकिन पूनम की सफलता ने सबको प्रोत्साहित किया है. अब शशी एक बार फिर से खेल के मैदान में उतरने को तैयार हैं. वहीं ग्लासगो की सफलता के बाद पूनम लगातार खेलती रहीं. ग्लासगो कॉमनवेल्थ गेम्स में ब्रॉन्ज जीतने के बाद पूनम ने 2015 में पुणे में हुई कॉमनवेल्थ चैम्पियनशिप में गोल्ड जीता था. इसके बाद 2017 में कॉमनवेल्थ चैम्पियनशिप (गोल्ड कोस्ट) में सिल्वर मेडल भी जीता था. और अब 2018 के कॉमनवेल्थ गेम्स में पूनम ने सोने पर निशाना साधा है.


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