गली के कोने पर जो खंडहर नुमा मकान है
किसी वक़्त बसेरा था कुछ ख़्वाबों का.
कुछ ख़्वाब तड़के-तड़के उठ
ना जाने किस उधेड़बुन में लग जाते.
कभी इधर भागते, कभी उधर दौड़ते
कभी उपर वाले कमरे में कुछ काग़ज़ात तलाशते.
कभी ख़ूटे पर टँगे कपड़े के बस्ते से कुछ पल निकालकर
भर लेते जेबें दिन भर के ख़र्चे के लिए.
कभी रसोईघर में रखे मर्तबान से चुरा लेते
कुछ चुनिंदा लम्हे, कुछ खट्टे तो कुछ मीठे.
कभी माँ के हाथों बने रोटी साग का पुंगा बना भर लेते एक ही फांक में मुंह में.
कभी बरामदे में खेल ते लंगड़ी, एक, दो, चार.
कभी जा बैठते चबूतेरे पर और चुगते कुछ ख़ास दाने ज़िंदगी के.
कभी घर के कोने में जा बैठते रूसकर और करवाते लाख मनावने.
कभी चुपके से अट्ठनी चुरा ले जाते और लगाते चटकारे बोरकूट के.
कभी झगड़ पड़ते, कभी लड़ पड़ते, कभी रूठ जाते, कभी मान जाते.
कुछ ऐसे ख़्वाबों का आशियाना था वो घर.